मौजूदा दौर में भारत में मुसलमान नफ़रत, हिंसा, उत्पीड़न और नर-पिशाचों के दानवी अत्याचार को झेल रहे हैं. भारतीय मुसलमानों के मौजूदा संघर्ष का अध्ययन करते समय, दो प्रकार के जाल में से किसी एक जाल में फँसने की प्रवृत्ति होती है: उत्पीड़न या रोमानीकरण. पहले जाल में फँसकर मुसलमान हर प्रकार की एजेंसी से अलग-थलग पड़ जाते हैं और दूसरे जाल में पड़कर उसका महिमामंडन तो होता है, लेकिन इस लड़ाई में उनके जीतने की कोई गुंजाइश नहीं रहती. जबकि वास्तविकता इन दोनों के बीच कहीं रहती है.
संक्रमण के दौर में भारत (India in Transition)

सरकारी प्राधिकारियों द्वारा जहाँगीरपुरी (नई दिल्ली), खारगोन (मध्य प्रदेश) और लखनऊ (उत्तर प्रदेश) के मुस्लिम-बहुल इलाकों में कथित तौर पर अनधिकृत संपत्तियों को गिराने की घटनाओं से समकालीन भारत में मुस्लिम पहचान और स्थान के संबंध में प्रशासनिक विमर्श के स्वरूप को रेखांकित किया जा सकता है. भले ही सरकारी प्रशासनिक विमर्श की दुनिया में मुस्लिम स्थान एक विवादग्रस्त मुद्दा रहा है, फिर भी बुलडोज़र की यह राजनीति अपेक्षाकृत नया मुद्दा है.

सन् 2018 में कांग्रेस पार्टी की नेता सोनिया गाँधी ने मीडियाकर्मियों को संबोधित करते हुए 2014 के चुनाव में अपनी पार्टी की पराजय के कारणों को गिनाया था. अन्य कारणों के अलावा उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की क्षमता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि “भारतीय जनता पार्टी लोगों को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो गई है कि कांग्रेस पार्टी एक मुस्लिम पार्टी है.” इस भाषण से यह स्पष्ट हो गया था कि ए.के. एंथॉनी की रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस नेतृत्व ने ए.के.

भारतीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया में संविधान के बुनियादी अधिकारों के एक भाग के रूप में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित प्रावधानों को अंतिम रूप देने के लिए संविधान सभा के 29 सदस्यों ने दो दिनों तक चलने वाली बहस में भाग लिया था. अनुच्छेद 29 के अंतर्गत विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति के “संरक्षण” के लिए अधिकार दिये गए हैं. अनुच्छेद 30 के अंतर्गत “धर्म”, या “भाषा” पर आधारित सभी अल्पसंख्यकों को अपनी “पसंद” के शिक्षा संस्थानों को स्थापित करने और उन्हें चलाने का अधिकार है. इन महत्वपूर्ण चर्चाओं के दौरान कुछ सदस्यों ने “सामुदायिक” आधार पर यह अधिकार देने की वकालत की थी.

भारत की धर्मनिरपेक्षता को गर्व के साथ सर्वधर्म समभाव के रूप में स्वीकार किया जाता है. इसे कुछ अंतर के साथ पश्चिमी देशों की धर्मनिरपेक्षता के समकक्ष रखा जा सकता है. इसके मूल सिद्धांत को भारतीय गणतंत्र के पूर्व दार्शनिक-राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने “भारतीय विचारधारा में ईश्वर और मानव के बीच सौहार्द्रपूर्ण सद्भाव के रूप में व्यक्त किया है जबकि पश्चिम में स्थिति इसके विपरीत है”. सर्वधर्म समभाव की परिणति व्यावहारिक रूप में भारत के सभी प्रमुख धर्मों को समान रूप से संरक्षण देने की रही है. इसके विपरीत पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का व्यापक अर्थ है, चर्च और शासन को अलग रखना.

2017 में भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा था, “जिस प्रकार कांग्रेस पार्टी के लिए गाँधी हैं, उसी प्रकार दीनदयाल उपाध्याय भाजपा के लिए राजनैतिक ब्रांड इक्विटी बन गए हैं.” और सचमुच साल-भर तक चलने वाले उपाध्याय के जन्मशती समारोह (1916-68) के अंत में भारतीय जनसंघ (भाजपा की पहली राजनैतिक पार्टी) के तत्कालीन महामंत्री (1952-68) की बात को सही मानने का उचित कारण भी था. 2014 में भारत की लोकसभा में अधिकांश सीटें जीतने के बाद सत्ता में लौटने के बाद भाजपा ने उपाध्याय को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्थापित करने के लिए भारी प्रयास करना शुरू कर दिया था.

भारत के बीमार भूमि बाजारों की आर्थिक लागत क्या है? भूमि से जुड़े समाचार और सार्वजनिक नीति संबंधी विमर्श अक्सर सरकारों द्वारा भूमि अधिग्रहण के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं, जैसे टाटा नैनो सिंगूर मामला या भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनःस्थापन (LARR) अधिनियम, 2013. लेकिन अपने उपयोग या अनुपयोग के कारण ही कोई भी मशहूर कार्यक्षेत्र भारत की भूमि बाज़ार को बीमार करने वाली बुनियादी समस्याओं से उबरकर सामने आता है.

वर्षा, नदियों, समुद्र तटों और समुद्रों ने ही आदि काल से हमारे समाजों को आकार प्रदान किया है. अति प्राचीन काल से लेकर अब्राहमी धर्मों और प्राचीन मैसोपोटामिया तक की कहानियों से पता चलता है कि पानी ने इतिहास की धारा को कैसे बदल दिया. भारत में, जून और सितंबर के बीच देश की 80 प्रतिशत वर्षा को ले जाने वाली हवाओं के साथ साल-भर चलने वाला "मानसून का पात्र” रूपी नाटक, बचपन से लेकर संस्कृति और वाणिज्य तक सभी को लंबे समय से आकार देता रहा है. वर्षा की परिवर्तनशीलता के प्रबंधन के संबंध में आरंभिक उल्लेख चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में लिखे गए कौटिल्य के प्राचीन ग्रंथ अर्थशास्त्र में मिलता है.
पिछले तीन दशकों से भारत में होने वाले तीव्र आर्थिक विकास, घटती उर्वरता और महिलाओं की बढ़ती शिक्षा के बावजूद देश में महिला कार्यबल भागीदारी (FWFP) की दर (कामकाजी महिलाओं का अनुपात) लगातार घटती जा रही है. वास्तव में, 1987 के बाद से इसमें तेज़ी से लगातार गिरावट देखी गई है. चित्र 1, 1987-2017 से भारत के ग्रामीण (पैनल ए) और शहरी (पैनल बी) क्षेत्रों में 25-60 आयु वर्ग की महिलाओं और पुरुषों की कार्यबल भागीदारी दर को दर्शाता है.


भारत के बकाया ऋणों की राशि में 2020 में अप्रत्याशित वृद्धि हुई. इसके आंशिक कारण तो कोविड-19 के कारण लिये गए नीतिगत निर्णय थे, लेकिन कम वृद्धि और ब्याज की अधिक दरें भी इसके कारण थे. कुछ लोगों का तर्क यह था कि ऋण का अधिक स्तर कम ब्याज की दरों के परिवेश से कम जुड़ा होने के कारण हो सकता है. लेकिन साक्ष्य का एक महत्वपूर्ण भाग ऐसे विभिन्न तंत्रों की ओर इंगित करता है जिनके माध्यम से अर्थव्यवस्था पर बकाया ऋण की उच्च दरों का नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.
चित्र 1.भारत के सामान्य सार्वजनिक सरकारी ऋणों में बढ़ोतरी अप्रत्याशित है. इसका आंशिक कारण घाटे में हुई अप्रत्याशित वृदधि है.