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सामुदायिक जनसमूह और गणतंत्रः भारत की अनिश्चित धर्मनिरपेक्षता

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10/10/2022
स्वागतो गांगुली

भारत की धर्मनिरपेक्षता को गर्व के साथ सर्वधर्म समभाव के रूप में स्वीकार किया जाता है. इसे कुछ अंतर के साथ पश्चिमी देशों की धर्मनिरपेक्षता के समकक्ष रखा जा सकता है. इसके मूल सिद्धांत को भारतीय गणतंत्र के पूर्व दार्शनिक-राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने “भारतीय विचारधारा में ईश्वर और मानव के बीच सौहार्द्रपूर्ण सद्भाव के रूप में व्यक्त किया है जबकि पश्चिम में स्थिति इसके विपरीत है”. सर्वधर्म समभाव की परिणति व्यावहारिक रूप में भारत के सभी प्रमुख धर्मों को समान रूप से संरक्षण देने की रही है. इसके विपरीत पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का व्यापक अर्थ है, चर्च और शासन को अलग रखना.

राधाकृष्णन् जैसे भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समर्थकों ने इस अंतर को व्यापक रूप में स्पष्ट करते हुए यह स्वीकार किया था कि यह परिभाषा भारतीय परिस्थितियों के अधिक अनुकूल है. उदाहरण के लिए, राजनीतिक वैज्ञानिक राजीव भार्गव ने यह उल्लेख किया है कि "भारतीय धर्मनिरपेक्षता के अंतर्गत धर्म और शासन के बीच अलगाव की कोई सख्त दीवार निर्मित नहीं की गई है, बल्कि इसके बजाय इन दोनों के बीच एक ‘सैद्धांतिक दूरी' प्रस्तावित की गई है.

 इसके अलावा, व्यक्तियों और धार्मिक समुदायों के दावों को संतुलित करके, इसने कभी भी धर्म के निजीकरण पर प्रहार करने का विचार नहीं किया. “यह प्रासंगिक नैतिक तर्क के एक मॉडल को भी मूर्त रूप देता है.” यह “सैद्धांतिक दूरी” समय की कसौटी पर कितनी खरी उतरी है और इसका सैद्धांतिक आधार कितना मज़बूत है? या क्या धर्मनिरपेक्षता की न्यूनतम समझ की यह धूमिल स्थिति इसे अंततः कमज़ोर बना देती है? यह धर्मनिरपेक्षता की औपनिवेशिक परिभाषाओं से कितनी अलग है, या फिर कहीं बादशाह अकबर की दीन-ए-इलाही जैसे धार्मिक समन्वय की पूर्व-औपनिवेशिक किस्मों का ही यह एक स्वरूप है?

ये मुद्दे वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के मौजूदा विवाद में उजागर हो गए हैं. फिर से अयोध्या की बाबरी मस्जिद के लंबे समय तक चलने वाले विवाद की गूँज सुनाई देने लगी है, जिसकी परिणति देशव्यापी दंगों के बीच बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में हुई थी और एक बार फिर से भारत की धर्मनिरपेक्षता की उसी स्थिति पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं जिसे भारत के संविधान के आधारस्तंभ के रूप में स्वीकार किया गया है. 2019 में सर्वसम्मति से दिये गए अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने हिंदू राष्ट्रवादियों की राम मंदिर के निर्माण की माँग को स्वीकार करते हुए और अयोध्या में ही मस्जिद के निर्माण के लिए वैकल्पिक स्थान देने की व्यवस्था देकर बाबरी मस्जिद के विवाद को सुलझाने का प्रयास किया था. इस निर्णय के कारण पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम,1991 की सांविधिक पवित्रता भी बनी रही. इस अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि 15 अगस्त,1947 को भारत के स्वतंत्र होने के बाद विरासत में प्राप्त सभी पूजास्थलों के धार्मिक स्वरूप को भारत में धर्मनिरपेक्षता के लागू होने के बाद ज्यों का त्यों रखा जाएगा. बाबरी मस्जिद को इसका अपवाद माना गया था, क्योंकि यह विवाद 1947 से पहले का था.

अगर यह उम्मीद की गई थी कि 2019 के उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद एक लाइन अपने-आप ही खिंच जाएगी और धार्मिक स्थलों से संबंधित विवादों को रोका जा सकेगा, लेकिन जब ज्ञानव्यापी मस्जिद के कॉम्प्लेक्स में प्रच्छन्न रूप में मौजूद हिंदू मूर्ति की दैनिक पूजा के लिए वाराणसी की एक अदालत से अनुमति माँगी गई तो अदालत ने ज्ञानव्यापी मस्जिद के कॉम्प्लेक्स में प्रच्छन्न रूप में मौजूद हिंदू मूर्ति के सर्वेक्षण के लिए आदेश दे दिए. उनके वकील ने दावा किया कि मस्जिद के वजूखाने के अंदर शिवलिंग की मौजूदगी का साक्ष्य मिला है और अदालत ने वजूखाने को सीलबंद करने का आदेश जारी कर दिया. इसके कारण मानो भानुमती का पिटारा ही खुल गया और भारत-भर में फैली हुई मस्जिदों के लिए इसी तरह के दावों का एक सिलसिला शुरू हो गया. उच्चतम न्यायालय में सौ साल से अधिक सभी पुरानी प्रमुख मस्जिदों के इसी प्रकार के सर्वेक्षण के लिए याचिका दायर की गई है और साथ-साथ वज़ू के लिए प्रयोग में आने वाले तालाबों और कुँओं को बंद करने का भी अनुरोध किया गया है. अन्य याचिकाओं में पूजास्थल अधिनियम की वैधता को भी चुनौती दी गई है. इसके साथ-साथ मध्यकालीन मुस्लिम शासकों द्वारा बनवाये गए ताजमहल और कुतुब मीनार जैसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों की जाँच की भी माँग की गई है. इस प्रकार के कभी न खत्म न होने वाले धार्मिक विवादों की संभावनाओं को लेकर हिंदू राष्ट्रवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), जिनकी बाबरी मस्जिद को ढहाने में विशेष भूमिका थी, के प्रमुख संचालक मोहन भागवत भी अब चिंतित होने लगे हैं और उन्होंने कहा है, “ हर मस्जिद में शिवलिंग की तलाश करने का क्या मतलब है?”  

व्यावहारिक दृष्टि से भारतीय धर्मनिरपेक्षता से संबंधित विमर्श भारतीय धर्म पर होने वाले पूर्व के औपनिवेशिक विमर्श के साथ लगातार चलता रहता है. इसका असर दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवाद के समकालीन विचारों पर भी पड़ा है. इस तरह की अतिव्याप्ति का एक उदाहरण हिंदू सभ्यता का वह विमर्श है, जिसमें मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा हिंदू सभ्यता को लगातार उत्पीड़ित होने की गाथाओं का वर्णन होता है. जेम्स टॉड और हेनरी इलिएट जैसे प्राच्य विद्याविशारदों का यह एक पसंदीदा ट्रोप था कि वे ब्रिटिश राज को भारत के पुराने मुस्लिम शासकों से श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते थे. यही बात समकालीन हिंदू राष्ट्रवादी विमर्श में भी दिखाई देती है, जब वे मुसलमानों को लुटेरे आक्रांताओं के रूप में दिखाने का प्रयास करते हैं. भारत को धार्मिकता से व्याप्त भूमि इस हद माना जाता है कि चर्च और शासन के अलगाव के रूप में मान्य धर्मनिरपेक्षता के मानक अर्थ को भी भारत के लिए अनुपयुक्त माना जाता है मैंने अपनी पुस्तक Idolatry and the Colonial Idea of India: Visions of Horror, Allegories of Enlightenment (Routledge, 2018) में इस बात को विस्तार से स्पष्ट किया है कि भावातीत आध्यात्मिकता के मूल भारतीय भाव में भौतिक पदार्थों की भी अनदेखी कर दी जाती है और यह बात जर्मन भारतविद फ्रैडरिक मैक्समूलर, जिन्होंने औद्योगिक सभ्यता की रोमांटिक आलोचना के लिए भारत के उदाहरण लेने का प्रयास किया था, की कृतियों में जबरन प्रदर्शित की गई है. उनके एक आक्रामक लेख India: What Can It Teach Us?  ने भारतीय राष्ट्रवाद को उसके धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप के साथ बेहद प्रभावित किया है.

चर्च और शासन को अलग करने की संकल्पना को इस तरह के प्राच्यवादी विमर्श में एक "पश्चिमी" विचार के रूप में देखा जाता है. भारतीय धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना मुगल सम्राट अकबर की दीन-ए-इलाही की अवधारणा के अधिक नज़दीक हो सकती है. यह एक ऐसा पंथ था, जिसमें उनके राज्य में मौजूदा सभी धर्मों को समकालिक रूप में समन्वित करने का प्रयास किया गया था. इनमें न केवल हिंदू धर्म और इस्लाम, बल्कि ईसाई धर्म, जैन धर्म और पारसी धर्म के तत्व भी शामिल थे. स्वतंत्र भारत में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा हज यात्राओं, सिखों के धार्मिक स्थलों, मुसलमानों के वक्फ बोर्डों और हिंदुओं के धार्मिक स्थलों के रख-रखाव की लागत का खर्च देने का इतिहास रहा है. चर्च और शासन को अलग करने की "पश्चिमी" धारणा के स्थान पर, सभी धर्मों को समान संरक्षण प्रदान करने की भावना से, भारतीय धर्मनिरपेक्षता के अंतर्गत किये जाने वाले प्रयासों के कारण कई दरारें भी आने लगी हैं और इस प्रक्रिया में कुछ खास धर्मावलंबियों के तुष्टीकरण के आरोप शासन तंत्र पर लगते रहे हैं और इसके कारण अन्य धर्मावलंबी इस तथाकथित पक्षपात से नाखुश भी नज़र आते हैं. यही कारण है कि धर्मनिरपेक्षता राजनीति के दलदल में फँस जाती है. बहुसंख्यकवादी तर्क के लिए यही बात खतरनाक है और यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और संघ परिवार इसे सामान्यतः पसंद करते हैः यदि शासन को वास्तव में धर्मों का पक्ष लेना है, तो बहुसंख्यकों के धर्म हिंदू धर्म का पक्ष लेना उसके लिए ज़्यादा उचित होगा.

धर्म-आधारित पर्सनल लॉ का मुद्दा भारत की अनिश्चित धर्मनिरपेक्षता की दुविधाओं को उजागर करता है. यह दुनिया-भर की धर्मनिरपेक्ष प्रथाओं से अलग हटकर है और पड़ोसी पाकिस्तान के साथ इसमें कुछ समानता है, जहाँ धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बजाय धर्म-आधारित राजनीतिक व्यवस्था है जिसमें शासन विभिन्न धर्मों के लिए विवाह, तलाक, उत्तराधिकार या विरासत से संबंधित मामलों पर अलग-अलग पर्सनल कानूनों का समर्थन करता है.

असल में धर्मनिरपेक्ष भारत और इस्लामी पाकिस्तान दोनों को पर्सनल लॉ ब्रिटिश राज से विरासत में मिले हैं, जिनकी कानूनी व्यवस्था ऐसे मामलों में धार्मिक कानून पर निर्भर थी. इससे भारत संबंधी ब्रिटिश दृष्टिकोण का पता चलता है. अंग्रेज़ भारत को विभिन्न धार्मिक समुदायों का एक संग्रह मानते थे, जिसमें राष्ट्रीयता की भावना नहीं थी. आधुनिक नागरिकता, स्तरित मॉडल के बजाय समतल मॉडल पर निर्भर करती है, जहाँ राष्ट्र-आधारित शासन नागरिकों को औपनिवेशिक मॉडल के रूप में अधिकार प्राप्त समूहों और सामुदायिक नेताओं की मध्यस्थता के माध्यम के बजाय सशक्त बनाने के बजाय सीधे ही संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की योजना के माध्यम से सशक्त बनाता है.

धर्मनिरपेक्षता को धर्मों के प्रति शासन की तटस्थता के बजाय बहु-धार्मिकता के रूप में परिभाषित करने के बाद, भारतीय राजनीति खुद को चरम सीमाओं के बीच भटकते हुए पाती है और आराम से पैर फैलाने में भी विफल रही है. धर्मनिरपेक्षता की इस भावना की समस्या यह है कि इसमें विभिन्न समुदाय अपने-आपको दीवारबंद बगीचे में घिरा पाते हैं और व्यक्ति अपने-आपको अपनी निश्चित पहचान के बंदी पाते हैं, जो न तो नागरिकता के आधुनिक विचारों के अनुकूल है और न ही किसी व्यक्ति की ऐसी उदार धारणा के साथ मेल खाता है, जिसके अनुसार वह अपनी नियति को गढ़ने में सक्षम हो. हाल ही में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मनीष तिवारी ने अपने एक इंटरव्यू में भारत की धर्मनिरपेक्षता को अल्पसंख्यक यहूदी बस्ती की तरह मानते हुए यह स्वीकार किया था कि धर्मनिरपेक्षता का सवाल कुछ समय से कांग्रेस पार्टी को भ्रमित कर रहा है. क्या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सर्वधर्म समभाव है या फिर समय आ गया है जब हमें नेहरू द्वारा दी गई धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा की ओर लौटना होगा, जिसमें चर्च और शासन को पूरी तरह अलग-अलग रखने की बात की गई थी?

वस्तुतः यह परिभाषा वही होगी जिसे नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता के रूप में जाना और समझा होगा. लेकिन भारत के पहले प्रधानमंत्री को या उनको उत्तराधिकारियों को इसे कार्यान्वित करने का मौका कभी नहीं मिला था. हालाँकि भारत की धार्मिक दरारों को भरने के अनेक विकल्प आज़माये गए होंगे, लेकिन सर्वधर्म समभाव के बजाय शासन की तटस्थता के आधार पर धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा कहीं अधिक उदार, आधुनिक और साम्राज्यवादोत्तरी नागरिकता के दृष्टिकोण के अनुकूल होगी. यही एक विकल्प बचा है जिसे अभी तक आज़माया नहीं गया है.

स्वागतो गांगुली CASI के अनिवासी विज़िटिंग फ़ैलो रहे हैं और 2022 के वसंत में विज़िटिंग फ़ैलो थे. वे The Times of India (2009-21) के संपादकीय पृष्ठ के संपादक थे.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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