Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

भारत का धार्मिक और सामुदायिक भूगोल: स्थान, समुदाय और राष्ट्र के लिए एक मायावी खोज

Author Image
21/11/2022
नाज़िमा परवीन

सरकारी प्राधिकारियों द्वारा जहाँगीरपुरी (नई दिल्ली), खारगोन (मध्य प्रदेश) और लखनऊ (उत्तर प्रदेश) के मुस्लिम-बहुल इलाकों में कथित तौर पर अनधिकृत संपत्तियों को गिराने की घटनाओं से समकालीन भारत में मुस्लिम पहचान और स्थान के संबंध में प्रशासनिक विमर्श के स्वरूप को रेखांकित किया जा सकता है. भले ही सरकारी प्रशासनिक विमर्श की दुनिया में मुस्लिम स्थान एक विवादग्रस्त मुद्दा रहा है, फिर भी बुलडोज़र की यह राजनीति अपेक्षाकृत नया मुद्दा है.  

एक समस्या के तौर पर मुस्लिम स्थान का मुद्दा गहन रूप में दुबारा परिभाषित किया जा रहा है. “मिनी-पाकिस्तान” और “आतंकियों की शरणस्थली”— जैसे नये प्रतीकों और मुहावरों का इस्तेमाल यह जताने के लिए किया जाता है कि धर्म स्थानिक सीमाओं की सोच का एक कानूनी ढाँचा बन गया है. मुस्लिम स्थान को विवादित पड़ोस के रूप में चिह्नित करना, इस अर्थ में, एक ऐसी प्रक्रिया को रेखांकित करता है जिसके द्वारा भारतीय स्थान की परिकल्पना खुले तौर पर हिंदू शब्दावली में की जाती है.

कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने तर्क दिया है कि धार्मिक तर्ज़ पर स्थानिक सीमाओं की यह नई परिभाषा 2014 में भाजपा की सफलता की स्पष्ट परिणति है. इस परिदृश्य में अज़ान, नमाज़, त्यौहारों, राजनीतिक बर्ताव और अन्य प्रकार की सामूहिक रूप में होने वाली प्रथाओं का लगातार तिरस्कार किया जाता है और इसे हिंदुत्व के दावे के अचानक विस्फोट के रूप में परिभाषित किया जाता है. परंतु, इस सरल निष्कर्ष के माध्यम से राजनीति के प्रबल साँचे के रूप में धर्मोदय की व्याख्या नहीं की जा सकती.

एक आधिकारिक श्रेणी के तौर पर धर्म के परिवर्तन का अपना हालिया इतिहास है, जिसका संबंध मुख्यधारा की राजनीति की प्रकृति में पक्के तौर पर धीरे-धीरे बदलाव से जुड़ा हुआ है.  सामाजिक न्याय का राज्य-केंद्रित धर्मनिरपेक्ष एजेंडा विभाजन के समय से ही एक सशक्त संदर्भ-बिंदु रहा है और यह एजेंडा अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से धार्मिक पहचान पर आधारित राजनीति के ढाँचे में धीरे-धीरे रूपांतरित हो रहा था. यह महत्वपूर्ण बदलाव एक नए राजनीतिक मानदंड के रूप में बहुसंख्यक-हिंदू राष्ट्रवादी विमर्श के रूप में विकसित हुआ है.

धर्म और नागरिकता
नागरिकता अधिनियम,1955 के अंतर्गत भारत द्वारा धर्म की श्रेणी को अस्वीकार करना और नागरिकता की धर्मनिरपेक्ष परिभाषा को स्वीकार करने का निर्णय खास तौर पर विभाजन से जुड़ी हिंसा के संदर्भ में एक क्रांतिकारी कदम था. परंतु, खास तौर पर 1985 से आरंभ होने वाले नागरिकता सुधार कानून के बाद होने वाली गतिविधियों के बाद नागरिकता के ढाँचे के अंतर्गत धार्मिक पहचान को धीरे-धीरे समाहित कर लिया गया था.

नागरिकता अधिनियम 2004 के अंतर्गत भारतीय नागरिकता के मानदंड में आए परिवर्तन को दर्शाया गया है. इसके अंतर्गत वंश-आधारित सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए भारतीय नागरिकता को जन्म तक सीमित कर दिया गया है. 1955 के अधिनियम में एक उपधारा [3(ii)] जोड़ी गई थी, जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि किसी भी बच्चे को जन्म से भारतीय नागरिक के रूप में मान्यता तभी मिलेगी जब “उसके माँ-बाप में से कोई एक भारतीय नागरिक होगा और दूसरा जन्म के समय गैर-कानूनी प्रवासी नहीं होगा.” इस अधिनियम ने अवैध प्रवासियों को पंजीकरण या समीकरण द्वारा नागरिकता के लिए अपात्र बना दिया और इस प्रकार उनके दर्जे को राज्यविहीन आबादी में शुमार कर दिया.
परवर्ती नियम में यह घोषणा कर दी गई कि नागरिकता के दर्जे के तकनीकी पक्ष में अवैध प्रवासियों की इस परिभाषा में पाकिस्तानी नागरिकता वाले अल्पसंख्यक श्रेणी के हिंदुओं को छूट दे दी गई है. 

इस व्याख्या के माध्यम से परोक्ष रूप में,खास तौर पर बांग्लादेशी प्रवासियों की पहचान को सीमित कर दिया गया. गैर कानूनी प्रवासियों को जेल में डालकर और विस्थापित करके उन्हें अपराधी सिद्ध करते हुए इस अधिनियम में सरकार को यह अधिकार दे दिया गया कि वे इस आबादी की हलचल पर और अधिक निगरानी रखने के लिए इस अधिनियम के संशोधित प्रावधानों का पालन करने के लिए नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का रख-रखाव करें.

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) में नागरिकता की इस नई धारणा का विस्तार करते हुए उपमहाद्वीप में भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के लिए एक योग्यता के रूप में धार्मिक पहचान को भी स्वीकार कर लिया गया. नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) में छह अनिर्दिष्ट गैर-मुस्लिम उत्पीड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई) को, जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्लादेश से चले गए थे, नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान कर दिया गया.

धर्म और अल्पसंख्यक
नेहरू राज्य में धर्म को इस वर्ग से खारिज कर दिया गया था और “अल्पसंख्यक” और  “बहुसंख्यक” की कहीं अधिक तटस्थ परिभाषा को अपना लिया गया था. हालाँकि, जिन कारणों से विभाजन हुआ, उन तमाम वास्तविकताओं को परिभाषा में निहित संदेहों और इसके निहितार्थों के अंतर्गत उजागर किया गया. हिंदू-बहुसंख्यक और मुस्लिम-अल्पसंख्यक जैसे समान विभाजनकारी शब्दों को एक "प्राकृतिक" सिद्धांत के रूप में दोहराने के खतरों के मद्देनज़र भारतीय संविधान में "अल्पसंख्यक" शब्द का इस्तेमाल किया गया और इसे अनिर्दिष्ट छोड़ दिया गया.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में "धार्मिक " शब्द को निर्दिष्ट नहीं किया गया है और इसे दो उपवर्गों में वर्गीकृत कर दिया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यक और भाषाई अल्पसंख्यक. यह खुलापन बुनियादी अधिकारों को व्यापक स्वरूप प्रदान करता है; यही कारण है कि किसी भी राज्य के अल्पसंख्यक समुदाय को इसके पुनर्गठन की प्रमुख भाषाई/सांस्कृतिक विशेषता के आधार पर चिह्नित किया जा सकता है.

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम (NCM),1992 के अंतर्गत किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में घोषित करने के लिए धर्म को प्रमुख मानदंड के रूप में स्वीकार किया गया है और पाँच समुदायों ( मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी) को राष्ट्रीय स्तर पर धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित कर दिया गया है. इस अधिनियम का उद्देश्य था, “केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के अंतर्गत अल्पसंख्यकों के विकास की प्रगति के मूल्यांकन के लिए” राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम की स्थापना करना.” परंतु इस अधिनियम ने सामाजिक वर्गों की पहचान और उनके हाशिये पर रहने के मानदंड को राष्ट्रीय स्तर पर आधिकारिक निर्धारक के रूप में स्थापित कर दिया. इसके कारण अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषा तय हो गई और पूरे भारत में केवल हिंदुओं को बहुसंख्यक समुदाय के रूप में घोषित कर दिया गया. सैक्शन 2 (सी) के अंतर्गत केंद्र सरकार को यह अधिकार दे दिया गया कि वह किसी भी समुदाय को धार्मिक और भाषाई आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा दे सकती है.

2004 के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग अधिनियम (NCMEI) के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा इसी रूप में अधिसूचित समुदाय को भी “अल्पसंख्यक” के रूप में परिभाषित करते हुए घोषित किया जा सकता है. इसका उद्देश्य था, संविधान के अनुच्छेद 30 में किये गए प्रावधान के अनुरूप धार्मिक अल्पसंख्यकों के इस अधिकार को सुनिश्चित करना कि वे अपनी पसंद के शिक्षा संस्थान स्थापित कर सकें और उनका संचालन भी कर सकें. परंतु राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग अधिनियम (NCMEI) के माध्यम से भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिनियम की परिधि से बाहर कर दिया गया. सन् 2006 में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से अलग कर दिया गया. इन गतिविधियों के दृष्टांतों से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार सामाजिक दलों को स्थायी तौर पर आधिकारिक पहचान प्रदान की जाती है और सामाजिक न्याय की भावना बहु-भाषाई/क्षेत्रीय, बहुजातीय और आर्थिक दृष्टि से हाशिये पर जीने वाली आबादी मात्र धार्मिक समुदाय बनकर रह जाती है. इसके अलावा, किसी धार्मिक समुदाय के आँकड़ों को किसी धार्मिक या भाषाई समुदाय को अल्पसंख्यक के रूप में घोषित करने का प्रमुख निर्धारक तत्व मान लिया गया था. इस वर्गीकरण के कारण हाशिये पर रहने वाली आबादी को उसी रूप में घोषित करने के लिए समरूपता के सिद्धांत को लागू कर दिया गया था.

भारत के मुस्लिम समुदाय को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दर्जे से संबंधित सच्चर आयोग रिपोर्ट, 2006 ने भी कानूनी विमर्श में बदलाव लाने में योगदान दिया था. इस रिपोर्ट में हाशिये पर आई आबादी के स्तर के बढ़ते अंतराल को उजागर करने के लिए मुस्लिम और अन्य सामाजिक धार्मिक समुदायों के बीच तुलनात्मक विश्लेषण भी किया गया था. यह विश्लेषण युक्तिसंगत और महत्वपूर्ण प्रविधिक दृष्टिकोण पर आधारित था और इसका मकसद खास तौर पर मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों के विकास के लिए रचनात्मक और व्यापक नीतिगत ढाँचे का विकास करना था. परंतु इस रिपोर्ट के आधार पर ही सार्वजनिक नीति और सामाजिक अनुसंधान के ढाँचे के अंतर्गत धार्मिक पहचान को स्थापित कर दिया गया था. इस रिपोर्ट के कारण ही सामाजिक न्याय और समानता के व्यापक विमर्श से क्रांतिकारी ढंग से श्रेणी को वर्ग में बदल दिया गया था.

परवर्ती राजनीति के अंतर्गत इस कानूनी-प्रशासनिक शब्दावली के कुछ स्पष्ट निहितार्थ खास तौर पर दो महत्वपूर्ण गतिविधियों के माध्यम से प्रतिबिंबित होते हैं. जब भाजपा के नेतृत्व में 2014 में एनडीए सत्ता में आई तो अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नज़मा हेपतुल्लाह ने एक विवादग्रस्त बयान दिया था कि “मुसलमानों को किसी भी रूप में अल्पसंख्यक नहीं माना जा सकता. ” केवल पारसी ही एकमात्र ऐसा समुदाय है, जिसकी संस्कृति और अस्तित्व को सचमुच खतरा है. उनके बयान के कारण सोशल मीडिया पर मुसलमानों को शर्मसार करने और बदनाम करने का अभियान शुरू हो गया और भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में अधिक योगदान देने वाले अन्य कम संख्या वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों- सिखों, पारसियों, ईसाइयों- की तुलना में विशेष अधिकारों की माँग होने लगी. इस्लामोफ़ोबिया के इस प्रदर्शन में, मुस्लिम समुदायों को एक ऐसे समुदाय के रूप में चित्रित किया जाने लगा, जिसकी आबादी तेज़ी से बढ़ने के कारण यह जल्द ही बहुसंख्यक समुदाय बन जाएगा और अगर इनकी आबादी को नियंत्रित नहीं किया गया तो यह हिंदुओं पर हावी हो जाएगा. दूसरी गतिविधि इससे कहीं अधिक घातक हो सकती थी. इस गतिविधि के कारण बहुसंख्यक की कानूनी परिभाषा पर संघर्ष हो सकता था और केंद्र सरकार अपनी शक्ति द्वारा अल्पसंख्यकों  के दर्जे की घोषणा कर सकती थी. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग (NCMEI) के अधिनियमों की वैधता को चुनौती देने के लिए उच्चतम न्यायालय में दो याचिकाएँ दायर कर दी गई हैं. इन याचिकाओं में यह तर्क दिया गया है कि छह राष्ट्रीय धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित करने से हिंदुओं के विरुद्ध भेदभाव की भावना बढ़ेगी, क्योंकि हिंदू समुदाय 2011 की जनगणना के अनुसार आठ राज्यों ( लक्षद्वीप,मिज़ोरम, नागालैंड, मेघालय, जम्मू व कश्मीर,अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब) में महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय है. इन याचिकाओं में यह माँग की गई है कि इन राज्यों में यहूदी धर्म, बहाई धर्म और हिंदू धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए.

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग (NCMEI) अधिनियम की वैधता पर भी सवालिया निशान है. इस पर यह दोष लगाया गया है कि इसके अंतर्गत केंद्र को असीमित अधिकार मिल गए हैं कि वह भारत में अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान करके उन्हें अधिसूचित भी कर सकता है. याचिकाकर्ता ने इस अधिनियम को संविधान के अतंर्गत अल्पसंख्यकों के लिए गारंटीकृत बुनियादी अधिकारों के लिए "स्पष्टतः मनमाना, तर्कहीन और अपमानजनक" करार दिया है. याचिकाकर्ताओं ने केंद्र से माँग की है कि वह “अल्पसंख्यक” शब्द को परिभाषित करे और राज्य और ज़िला स्तर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशा-निर्देश जारी करे. यद्यपि अल्पसंख्यक आयोग ने यह तय किया है कि राज्यों को यह अधिकार है कि वे किसी भी धार्मिक समुदाय को आबादी के आधार पर अल्पसंख्यक घोषित कर सकते हैं, लेकिन यह मामला अभी उच्चतम न्यायालय के पास विचाराधीन है.

धर्म और सामुदायिक भूगोल
आबादी के आधार पर नागरिकता और अल्पसंख्यकों के दर्जे को परिभाषित करने वाली न्यायसंगत श्रेणी के रूप में धर्म का उद्भव होने के कारण भारत के भौतिक स्थान के साथ-साथ राष्ट्रीय पहचान की कल्पनाएँ भी प्रभावित हुई हैं.

खास तौर पर नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) के बाद के कालखंड में नागरिकता पर हुई बहस ने भारतीय स्थान पर होने वाली बहस के स्वरूप को बढ़ा दिया है और इससे धर्म-क्षेत्र का एक रोचक विन्यास तैयार हो गया है. तीन मुस्लिम-बहुल पड़ोसी देशों के उत्पीड़ित गैर-मुस्लिम लोगों को भारत के संभावित नागरिक के रूप में मान्यता देकर भारतीय क्षेत्र को खास तौर पर दक्षिण एशिया के हिंदुओं के लिए वस्तुतः प्रामाणिक घर के रूप में देखा जाने लगा है. गैर-मुस्लिम/हिंदुओं के घर के तौर पर भारतीय क्षेत्र की संशोधित परिकल्पना के कारण विविधता में एकता की स्थापित मान्यता को भी झटका लगा है. सच्चे तौर पर यूरोपियन शैली में मुख्यतः एक राष्ट्र, एक संस्कृति और एक धर्म पर आधारित राष्ट्रमूलक देश न बन पाने के कारण भारतीय क्षेत्र का उदय एक समान स्थान के रूप में हो रहा है. मुसलमानों की स्थानिक उपस्थिति राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर इस स्वर्णिम लक्ष्य को प्राप्त करने में स्थायी बाधा बनी हुई है.

दूसरी ओर, धर्म-आधारित अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विमर्श के कारण धार्मिक समुदाय के संख्याबल का सवाल उठने लगा है. इस ढाँचे में राष्ट्रीय पहचान के दावेदार के रूप में हिंदू उभरकर सामने आएँगे, क्योंकि धार्मिक बहुसंख्यक के रूप में उनके पास संख्याबल है. दूसरी ओर, हमेशा खतरनाक इकाई के रूप में माने जाने वाले मुस्लिम दूसरे बहुसंख्यक समुदाय के रूप में सामने आएँगे. अंततः मुसलमानों द्वारा अपनाये जाने वाले भौतिक स्थान को इस अर्थ में विवादग्रस्त क्षेत्र ही माना जाएगा.

जनसंघ के ऊर्जावान् संस्करण के रूप में उदय होने वाली भाजपा निस्संदेह इस संबंध में एक प्रमुख कारक है. परंतु हिंदुत्व की राजनीति को इसकी विचारधारा की स्वीकार्यता के रूप में सीमित करके नहीं देखा जाना चाहिए. भाजपा ने धर्म के उभरते हुए विमर्श को अपनाया है और साथ ही उसने खुद को राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू भावनाओं के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में स्थापित किया है. इसलिए “हिंदू वोट बैक” , “हिंदू चुनाव क्षेत्र” और “हिंदू क्षेत्र”  जैसे शब्द अब समकालीन भारतीय राजनीति में नये तत्वों के रूप में उभरकर सामने आ गए हैं.

नाज़िमा परवीन पॉलिसी पर्सपेक्टिव फाउंडेशन में ऐसोसिएट रिसर्च फ़ैलो हैं और क्रिया विश्वविद्यालय में पोस्टडॉक्टरल फ़ैलो हैं. वह Contested Homelands: Politics of Space and Identity (Bloomsbury, 2020) की लेखिका हैं.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

<malhotravk@gmail.com> / Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365