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भारत में भूमि बाज़ार में उतार-चढ़ाव

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12/09/2022
आराध्या सूद

भारत के बीमार भूमि बाजारों की आर्थिक लागत क्या है? भूमि से जुड़े समाचार और सार्वजनिक नीति संबंधी विमर्श अक्सर सरकारों द्वारा भूमि अधिग्रहण के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं, जैसे टाटा नैनो सिंगूर मामला या भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनःस्थापन (LARR) अधिनियम, 2013. लेकिन अपने उपयोग या अनुपयोग के कारण ही कोई भी मशहूर कार्यक्षेत्र भारत की भूमि बाज़ार को बीमार करने वाली बुनियादी समस्याओं से उबरकर सामने आता है.

भूमि के उतार-चढ़ाव के स्रोत
भूमि बाज़ार को बीमार करने वाले या उसमें उतार-चढ़ाव पैदा करने वाले अनेक स्रोत हैं. दक्षिण और दक्षिण-पूर्वेशिया के अनेक देशों की तरह, भारत की जटिल उत्तराधिकार प्रणाली के परिणामस्वरूप भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े हो गए हैं और समय के साथ-साथ भूमि का विखंडन भी बढ़ता जा रहा है. 2015 में कृषि उद्देश्यों के लिए भूमि के बीच औसत जोत का आकार 1.1 हेक्टेयर (2.7 एकड़) था, जबकि 1971 में 2.3 हेक्टेयर (5.7 एकड़) से कम था. छोटे-छोटे भूमि-खंडों के अलावा, भूमि के अस्पष्ट मालिकाना हक और धीमी गति से चलने वाली अदालतें भारत में ज़मीन खरीदने की प्रक्रिया को स्वभावतः जोखिम भरा बना देती हैं. इसके अलावा, भूमि पुनर्क्षेत्रीकरण के विनियम, खास तौर पर कृषि उपयोग के लिए ऐतिहासिक रूप से ज़ोन की गई भूमि को खरीदने के लिए लंबी नौकरशाही और कानूनी बाधाओं को पार करना पड़ता है. 

भूमि बाज़ार के उतार-चढ़ाव से भारत की अर्थव्यवस्था के कई पहलुओं पर असर पड़ता है. उदाहरण के लिए, बीमारू भूमि बाज़ार, भारतीय शहरों के विकास और आकार के अलावा, आंतरिक प्रवासन, बुनियादी ढाँचे के विकास, फसल के विकल्प, किसानों की आय, निर्माण उत्पादकता और विकास और अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक परिवर्तन को भी प्रभावित करते हैं.

कृषि और निर्माण पर भूमि के उतार-चढ़ाव के दुष्परिणाम
भारत में 68 प्रतिशत कृषि जोत को सीमांत खेत माना जाता है - 1 हेक्टेयर से कम (या आकार में 2.5 एकड़). इसके विपरीत, पाकिस्तान और अमरीका में सीमांत खेतों का प्रतिशत क्रमशः 36 प्रतिशत और 0 प्रतिशत है. नीतियाँ और विनियम मिलकर, छोटे खेत के आकार की भूमि चकबंदी को कठिन बनाते हैं और कृषि उत्पादकता पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं. उदाहरण के लिए, शोध से पता चला है कि स्वतंत्रता के बाद अपनाए गए कठोर भूमि काश्तकारी कानूनों के परिणामस्वरूप बाज़ार में भागीदारी का स्तर कम हो गया है और इस प्रकार, कृषि उत्पादकता में औसतन 38 प्रतिशत की कमी आई है. इसका एक परिणाम और हुआ कि ये सीमांत खेत पर्याप्त रूप से मशीनीकरण नहीं कर सकते हैं, कुशलता से नकदी फसलें उगा सकते हैं, और रिटर्न से स्केल तक लाभ उठा सकते हैं.

भारत में निर्माण फ़र्म का विकास केंद्रीय स्तर पर विकास के लिए चुनौती है. मैक्सिको और अमरीका में क्रमशः 8 प्रतिशत और 40 प्रतिशत फ़र्मों की तुलना में भारत की 2 प्रतिशत निर्माण फर्मों में कामगारों की संख्या दस या उससे अधिक है. इसके कारण समस्याएँ पैदा होती हैं, क्योंकि अपेक्षाकृत बड़ी फ़र्मों में खास तौर पर कम पढ़े-लिखे कामगारों को काम पर रखा जाता है. अपेक्षाकृत बड़ी फ़र्में (10 या उससे अधिक कामगारों को काम पर रखती हैं) अर्थात् 78 प्रतिशत मैक्सिकन निर्माण कामगारों की तुलना में 35 प्रतिशत भारतीय निर्माण कामगारों को रोज़गार देती हैं. अन्य पहलुओं के अलावा, भारत में निर्माण फ़र्मों के बढ़ने का एक संभावित कारण भूमि बाजार में उतार-चढ़ाव है. एक नई फ़ैक्ट्री का विस्तार करने या खोलने की कोशिश करने वाली एक फ़र्म को अपने कारखानों के लिए पर्याप्त भूमि प्राप्त करने के लिए अस्पष्ट भूमि स्वामित्व वाले सैकड़ों भूस्वामियों से बातचीत करनी पड़ती है. यह स्थिति विशेष रूप से परिवहन उपकरण और रसायन निर्माण जैसे भूमि-गहन उद्योगों में फर्मों के मामलों से संबंधित है.

आइए हम अमरीका और भारत में एक ऑटोमोबाइल प्लांट के लिए भूमि प्राप्त करने वाले सचित्र उदाहरण पर विचार करते हैं. इंडियाना में अपने फ़ोर्ट वेन ऑटो प्लांट के लिए, जीएम ने दो महीनों में ज़मीन के 29 मालिकों से 379 हेक्टेयर (936 एकड़) भूमि का अधिग्रहण किया. इसके विपरीत, टाटा नैनो प्लांट के बदनाम मामले पर विचार करें, जहाँ पश्चिम बंगाल सरकार ने 12,000 भूमिधारकों के स्वामित्व वाले 13,970 से अधिक भूमिखंडों को मिलाकर 404 हेक्टेयर (997 एकड़) भूमि को जोड़ दिया.

मेरे शोधकार्य से पता चलता है कि भूमि के इस प्रकार के उतार-चढ़ाव के जवाब में, निर्माण कार्य करने वाली फर्में भूमि को एकत्र करती हैं, जिसे मैं छोटी भूमि काटने की रणनीति कहती हूँ. वे समय के साथ धीरे-धीरे छोटे-छोटे भूमिखंडों के टुकड़े जमा करते हैं और कभी-कभी निर्माण के लिए पर्याप्त भूमि जुटाने के लिए उन्हें वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है. सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त फर्मों की तुलना में निजी फर्में अधिक छोटे टुकड़ों में भूमिखंडों को जमा करती हैं. इसके अलावा, उन्हें निर्माण कार्य शुरू करने से पहले कुछ वर्षों में अधिक से अधिक भूमि के छोटे खंडों का अधिग्रहण कर लेना चाहिए. पंजाब और गुजरात जैसे कम भूमि विखंडन वाले राज्यों की फ़र्मों के विपरीत, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे छोटे भूखंड वाले राज्यों की फ़र्में भी छोटी भूमि काटने की रणनीति अपनाती हैं.

इसके अलावा, इन फ़र्मों को भूमि बिक्री मूल्य से अधिक तो भूमि जुटाने की लागत ही वहन करनी पड़ती है. यह लागत खोज के खर्च, समझौतों के प्रयास और वकीलों की फ़ीस के कारण होती है. भूमि के एकत्रीकरण की लागत के दो प्रकार होते हैं: निश्चित लागत और घटती-बढ़ती लागत. अगर मात्र भूमि के एकत्रीकरण की लागत ही इतनी अधिक है तो उसे कितनी ही भूमि क्यों न मिल जाए, उसकी निश्चित लागत तो बहुत ऊँची होगी ही. दूसरी ओर, घटती-बढ़ती लागत भूमि के आकार के अनुसार बढ़ती जाती है.

दो दशकों से निर्माण फ़र्मों द्वारा की गई भूमि खरीद के आँकड़ों के आधार पर, निर्माण फ़र्मों की भूमि एकत्रीकरण की लागतों को हम माप सकते हैं. भारतीय भूमि एकत्रीकरण के मामले में निश्चित लागत की तुलना में घटती-बढ़ती लागत का अधिक महत्व होता है. प्रति हैक्टेयर भूमि एकत्रीकरण की घटती-बढ़ती लागत भूमि के आकार के साथ-साथ बढ़ती जाती है. इसलिए बड़ी फ़र्मों की लागत अधिक होती है. यह वृद्धि भूमि विखंडन और अस्पष्ट भूमि के मालिकाना हक- दोनों के कारण ही होती है.

निजी फ़र्मों को सरकारी मान्यताप्राप्त फ़र्मों की तुलना में तीन गुना अधिक लागत का भुगतान करना पड़ता है. औसतन छोटे भूमिखंडों और भूमि संबंधी अधिक अदालती मामलों वाले राज्यों की फ़र्मों को भूमि एकत्रीकरण की अधिक कीमत चुकानी पड़ती है. कुछ राज्यों में ये फ़र्में भूमि एकत्रीकरण की लगभग दुगुनी लागत चुकाती हैं. मेरे शोधकार्य में केवल उद्योगों के लिए भूमि एकत्रीकरण की लागतों को निर्धारित किया गया है, लेकिन किसान और शहरों के विकासकर्ता भी उसी तरह भूमि एकत्रीकरण की लागत चुकाते हैं.

नीतिगत प्रयास
आगे का क्या मार्ग है? हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि सीमांत कृषि भूमि पर वास्तविक खेती आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है और यह लाखों परिवारों के लिए आय का एकमात्र स्रोत है, भले ही उस भूमि का उत्पादक रूप से उपयोग न किया गया हो. हालाँकि, भले ही हम सीमांत किसानों के लाभ को अधिकतम करने की ही परवाह करते रहे हैं, फिर भी इसका कोई औचित्य नहीं है कि कृषि के अंतर्गत भूमि समेकन में सहायता करने वाली नीतियाँ आज भी भारत में गैर-कानूनी हैं.

फिर भी मान लीजिए कि एक काल्पनिक सामाजिक योजनाकार को विभिन्न संभावित भूमि उपयोगों में भूमि पर सकल लाभ को अधिकतम करना है. ऐसे मामले में, यह पहचानना आवश्यक है कि कई सीमांत खेत उतार-चढ़ाव के सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में से एक हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि हम भूमि अधिग्रहण के दिनों में लौट आएँ, जो अनुचित और राजनीतिक रूप से चुनौतीपूर्ण दोनों ही था, लेकिन भूमि एकत्रीकरण की लागत को दरकिनार करने का एक शॉर्टकट ही था. एक समाधान बाज़ार का है,जहाँ एजेंट सौदेबाजी करते हैं और व्यापार से अधिक लाभ नहीं होने तक भूमि का आदान-प्रदान करते रहते हैं. भूमि एकत्रीकरण के उतार-चढ़ाव के व्यापक पैमाने को देखते हुए, यह भारत में अधिक कारगर नहीं हो सकता. अब दो संभावनाएँ रह जाती हैं.

पहली संभावना लैंड पूलिंग नीतियों को आज़माने की है, जिन्हें कई राज्य सरकारें मौजूदा दौर में विभिन्न स्तरों पर आज़माने का प्रयास कर रही हैं. भूमि पूलिंग नीतियों को अपनाकर छोटी निर्माण कंपनियों की समग्र लागत कम हो सकती है और वृद्धि की दर बढ़ सकती है. लेकिन इस नीति के अंतर्गत राज्य सरकारें निर्माण फ़र्मों द्वारा पहले भुगतान की गई भूमि एकत्रीकरण की लागत को वहन करेंगी. यह लागत केवल तभी सार्थक होती है जब उन निर्माण फ़र्मों का पर्याप्त विकास होता है और वे रोज़गार के पर्याप्त अवसर प्रदान करते हैं, जिन्हें पूल की गई भूमि पट्टे पर दी जाती है. यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि भूमि की पूलिंग प्रक्रियाएँ विवेकाधिकार प्रदान करती हैं और वे क्रोनी खरीद के नुक्सान के लिए तैयार रहती  हैं.

दूसरी संभावना भूमि एकत्रीकरण की लागत को कम करने और सरकारी एवं निजी भूमि एग्रीगेटरों के लिए समान रूप से समग्र लागत को कम करने की है. इसके लिए सरकार ने पुराने दस्तावेज़ी रिकॉर्डों का डिजिटलीकरण करके पहला कदम तो यही उठा लिया है. पंजीकरण के 302 मिलियन रिकॉर्डों (ROR) में से 94 प्रतिशत रिकॉर्डों का डिजिटलीकरण पहले ही किया जा चुका है. इसके अलावा, 13.5 प्रतिशत ग्रामीण भूमि मानचित्रों का पुन: सर्वेक्षण किया गया है, हालाँकि ये मानचित्र रिकॉर्ड ROR और अदालत प्रणालियों से जुड़े हैं या नहीं, इसकी स्थिति सभी राज्यों में अलग-अलग है. एक बार जब डिजिटलीकरण और पुनर्सर्वेक्षण की इन मूलभूत बाधाओं को दूर कर दिया जाता है, तो भूमि एकत्रीकरण से संबंधित भूमि विखंडन की महत्वपूर्ण चुनौतियाँ तो जारी रहेंगी, लेकिन उनमें कुछ हद तक कमी ज़रूर आ जाएगी.

आराध्या सूद स्कारबरो में स्थित टोरंटो विश्वविद्यालय के प्रबंधन विभाग में और टोरंटो विश्वविद्यालय के रॉटमैन प्रबंधन स्कूल में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

 

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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