भारतीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया में संविधान के बुनियादी अधिकारों के एक भाग के रूप में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित प्रावधानों को अंतिम रूप देने के लिए संविधान सभा के 29 सदस्यों ने दो दिनों तक चलने वाली बहस में भाग लिया था. अनुच्छेद 29 के अंतर्गत विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति के “संरक्षण” के लिए अधिकार दिये गए हैं. अनुच्छेद 30 के अंतर्गत “धर्म”, या “भाषा” पर आधारित सभी अल्पसंख्यकों को अपनी “पसंद” के शिक्षा संस्थानों को स्थापित करने और उन्हें चलाने का अधिकार है. इन महत्वपूर्ण चर्चाओं के दौरान कुछ सदस्यों ने “सामुदायिक” आधार पर यह अधिकार देने की वकालत की थी. कुछ कानून-निर्माता तो अपनी विशिष्ट भाषा के मात्र “संरक्षण” से भी संतुष्ट नहीं थे, वे यहाँ पर “विकास” शब्द को भी जोड़ना चाहते थे. लेकिन “समुदाय” या “विकास” ये दोनों शब्द ही आधिकारिक रूप से स्वीकृत संविधान में स्थान न पा सके.
अल्पसंख्यकों की समकालीन राजनीति में, खास तौर पर तब जब इसकी माँग के आधार पर केंद्र सरकार उन कुछ राज्यों में हिंदुओं को “अल्पसंख्यक” के रूप में घोषित करने जा रही हो, जहाँ उनकी संख्या कम है, इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना बहुत आवश्यक है. इस तथ्य के आलोक में कि भारत की आबादी में हिंदुओं की संख्या 85 प्रतिशत है, उनका यह दावा हिंदू अल्पसंख्यकों के लिए आम तौर पर स्वीकृत परिभाषा और बहुसंख्यावाद से अल्पसंख्यकों के संरक्षण के अंतर्निहित सिद्धातों के विरुद्ध है.
साथ ही साथ 2002 में टीएमए पई के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए अल्पसंख्यकों से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय के अनुसार इस दावे का कुछ कानूनी आधार भी है. पई के मामले में यह इंगित किया गया था कि भारत में राज्यों के गठन का आधार भाषा रहा है, इसलिए अनुच्छेद 30 के प्रयोजनों के लिए “भाषाई अल्पसंख्यक ” का निर्धारण राज्य के संदर्भ में होना चाहिए.
“भाषाई अल्पसंख्यकों” की स्थिति का वर्णन भी इसी आधार पर किया गया था; सभी नागरिकों को दिये गए सामान्यतः गारंटीकृत अधिकारों के अलावा अल्पसंख्यकों के अधिकारों को समुचित रूप में स्वीकार नहीं किया गया था. पई मामले की सुनवाई करने वाले एक न्यायाधीश ने यह भी उल्लेख किया है कि संविधान में उस राजनैतिक संदर्भ को भी उजागर किया गया है, जिसके अंतर्गत इसका निर्माण किया गया था और विशेष अधिकारों की राजनैतिक सामग्री “अल्पसंख्यकों को दी गई थी”. संविधान के अंतर्गत “भाषाई अल्पसंख्यकों” के अधिकार संविधान के मूल ढाँचे के ही भाग हैं और उनमें न तो कोई संशोधन किया जा सकता है और न ही उन्हें अलग किया जा सकता है. इसलिए हिंदुओं के इस दावे की अनदेखी नहीं की जा सकती कि उनकी गणना का आधार राज्य स्तर पर होना चाहिए.
इस स्तर पर एक रोचक मुद्दा यह है कि पई के मामले में दिया गया निर्णय भारत की बहुस्तरीय विविधता की स्वीकार्यता है. इस निर्णय से इस तथ्य की स्थापना होती है कि प्रत्येक व्यक्ति की भले ही कोई भी भाषा, जाति या धर्म हो, उसकी अपनी एक व्यक्तिगत पहचान होती है, उसका संरक्षण किया जाना चाहिए ताकि समरूप होने पर यह भारत की विभिन्न भौगोलिक विशेषताओं को प्रतिबिंबित करती रहे.
दूसरी ओर, हमारी एक बहुसंख्यावादी सरकार है, जिसने यह सुनिश्चित कर दिया है कि अधिकांशतः मुस्लिम अल्पसंख्यकों को सार्वजनिक निकायों से अलग रखा जाए और रोज़गार की ऐसी शर्तें थोप दी हैं जिसके कारण मुसलमानों और ईसाइयों को सिस्टम के अंदर प्रवेश न मिलने पाए. इन गतिविधियों से प्रशासनिक और संस्थागत मदद से उनकी पोशाक, खान-पान की आदतों, रहन-सहन के तरीकों पर प्रहार होता रहा है.
मौजूदा सरकार ने हिंदुत्व पर आधारित “राष्ट्रवाद” की अपनी पसंद की परिभाषा को सिद्ध करने के लिए “समरूपता” के सिद्धांत का समर्थन किया है. इसके कारण विविधता की बात का कोई मतलब नहीं रह जाता. इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने देश के सामाजिक-धार्मिक चरित्र को “राष्ट्रीय” बताकर मुखौटे के रूप में एक ऐसा विमर्श खड़ा कर दिया है ताकि मुसलमानों और ईसाइयों की सांस्कृतिक प्रथाओं, भाषाओं और आस्था प्रणालियों को अभारतीय सिद्ध किया जा सके और उन्हें भारत से बाहर किया जा सके. इस प्रकार की राष्ट्रीयता निश्चय ही समावेशी समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
हिंदुओं को अल्पसंख्यकों के रूप में सूचीबद्ध करने से दो रोचक सवाल पैदा होते हैं. पहला सवाल तो यह है कि कौन हिंदू है? दूसरा सवाल यह है कि क्या संसद के पास इस संबंध में कोई विशिष्ट अधिकार है या राज्य की विधानसभाएँ यह घोषित करने के लिए सक्षम हैं कि कौन अल्पसंख्यक है?
सन् 1966 में भारत के उच्चतम न्यायालय की पाँच-सदस्यीय पीठ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश पी.बी.गजेंद्र गड़कर के माध्यम से अपने फ़ैसले में यह लिखा था कि हिंदू लोग किसी एक भगवान् की पूजा नहीं करते हैं ; किसी एक निश्चित सिद्धांत को भी नहीं मानते हैं; किसी एक दार्शनिक अवधारणा को भी नहीं मानते हैं; किसी एक धार्मिक प्रथा या परंपरा का अनुसरण नहीं करते हैं; वस्तुतः यह लगता है कि वे किसी एक धर्म या पंथ की संकीर्ण परंपराओं को नहीं मानते हैं. व्यापक रूप में इसे जीवन शैली कहा जा सकता है और कुछ नहीं.” उसके बाद सन् 1995 में न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने इसी परिभाषा को “हिंदुत्व” नामक राजनैतिक शब्द के साथ पढ़ा था. 1995 में दी गई उच्चतम न्यायालय की इस परिभाषा के बाद डिफ़ॉल्ट रूप में ही अधिकांश नागरिकों के लिए “हिंदू” शब्द का प्रयोग किया जाने लगा.
हिंदू विवाह अधिनियम जैसे कानूनी विधानों में उल्लेख किया गया है कि मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों, या यहूदियों को छोड़कर सभी नागरिक हिंदू कानून के दायरे में आएँगे. यहाँ भी “हिंदू” की अवधारणा यही है कि वे सभी नागरिक जो इन चार धर्मों के अंतर्गत नहीं आते हैं. अब सवाल यही उठता है कि क्या हम किसी समुदाय के लिए ऐसी शिथिल परिभाषा को स्वीकार कर सकते हैं जिसका दावा है कि उसे “अल्पसंख्यक” की ऐसी परिभाषा के अंतर्गत शामिल कर लिया जाए जिसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के अंतर्गत संरक्षण के लिए जोड़ा जाना हो. उसी समय अल्पसंख्यक आयोग को दिए गए उच्चतम न्यायालय के ये निर्देश भी हमारे सामने हैं जिसमें कहा गया है कि वह विभिन्न समुदायों से प्राप्त होने वाले दावों को अधिसूचित अल्पसंख्यकों की सूची में शामिल करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित न करे और ऐसे सामाजिक हालात पैदा करने के उपाय भी करे जिससे अधिसूचित अल्पसंख्यकों की सूची में धीरे-धीरे कमी आए और वह सूची पूरी तरह खत्म ही हो जाए.
दूसरे सवाल के बारे में यह कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार के अलावा संविधान का अर्ध-संघीय ढाँचा होने के कारण राज्य के पास यह अधिकार है कि वह अपने क्षेत्र के गैर-प्रबल समुदायों की भाषाई और धार्मिक विविधता को मान्यता प्रदान करे. सरकार की भूमिका बहुत अस्पष्ट और अवसरवादी लगती है; आरंभ में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सामने यह पक्ष रखा कि संसद और विधान सभाओं के पास इस संबंध में समवर्ती शक्तियाँ हैं. परंतु बाद के शपथपत्र में उसी अभियोग के विचाराधीन रहने के दौरान केंद्र ने कहा कि अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने की शक्ति केंद्र सरकार के पास निहित है. केंद्र का यह पक्ष संघीय संवैधानिक ढाँचे में खलबली पैदा कर सकता है. यह कहना अनावश्यक है कि केंद्रीय शक्तियों के अलावा क्षेत्रीय भाषाएँ राज्य की विधान सभाओं के विनियमन के अध्यधीन हैं.
धार्मिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले सभी कानून सार्वजनिक व्यवस्था और स्वास्थ्य की विषय वस्तु हैं और राज्य की विधायी शक्तियों के अंतर्गत हैं. “अल्पसंख्यक”—भाषा और धर्म के ये दो मूलभूत निर्धारक बिंदु राज्य और केंद्र के समवर्ती क्षेत्राधिकार के अंतर्गत हैं. इसके परिणामस्वरूप क्या हम राज्य को “अल्पसंख्यक” घोषित करने की शक्ति से बाहर कर सकते हैं?
केंद्र द्वारा किये गए इस उलटफेर के कारण शक्तियाँ केंद्र के अंतर्गत ही केंद्रित हो जाएँगी. इसके कारण निर्णय लेने की प्रक्रिया में विभिन्न क्षेत्रों में केंद्र सरकार के प्रतिनिधित्व न होने जैसे बहुविध मुद्दे उठ खड़े होंगे. हम यह तथ्य नहीं भूल सकते कि हमारे संविधान की मूलभूत विशेषताओं में से एक है, “संघीय” ढाँचा, जिसमें संशोधन नहीं किया जा सकता. इसलिए इस प्रकार के निर्धारण का सबसे अच्छा उपाय यही है कि भारत की आबादी की विविधता को मान्यता देने का काम स्थानीय स्तर पर किया जाए.
विधान सभाओं द्वारा बनाये गए मौजूदा विनियामक प्रावधानों पर अगर फिर से लौटा जाए तो संसद ने 1992 में एक कानून बनाया था जिसके माध्यम से अल्पसंख्यकों की प्रगति के आकलन और विकास के साथ-साथ अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण के लिए संविधान में किये गए सुरक्षा उपायों की निगरानी के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की गई थी.
जैसे-जैसे समय बीतता गया, यह संस्था घोषित अल्पसंख्यकों के हितों का प्रभावी संरक्षण करने के बजाय सजावट की वस्तु बनकर रह गई. इसकी गहन कार्यप्रणाली राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से भिन्न नहीं रह गई, जिसकी अध्यक्षता पहले भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश करते थे और अब उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश करते हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि एक बार जब समग्र रूप में देश का सबसे बड़ा समुदाय अल्पसंख्यक समुदायों की सूची में आ जाएगा तो यह आयोग अपनी कार्यप्रणाली कैसे बदलेगा. सन् 2004 में केंद्र सरकार को यह शक्ति देने के साथ कि कौन “अल्पसंख्यक” है, यह अधिसूचित करने के लिए शिक्षा संस्थाओं को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाओं के रूप में मान्यता प्रदान करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग की स्थापना की गई थी. अल्पसंख्यकों का निर्धारण उनके व्यक्तिनिष्ठ विवेकाधिकार पर ही छोड़ दिया गया. तदनुसार केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यकों के रूप में छह धार्मिक और भाषाई समुदायों की घोषणा कर दी (पई सिद्धांत के प्रभाव के बिना)
अनुच्छेद 29 और 30 धार्मिक बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए एक करार की तरह है. खास तौर पर मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यक बहुत बड़े बहुसंख्यक समुदाय के संभावित भेदभाव से बचने के लिए आश्वासन चाहते थे. यह प्रावधान अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए किये गए सार्वभौमिक संवैधानिक प्रावधान के अनुरूप होने के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs), और अनुसूचित जनजाति (SCs और STs) के समकक्ष है, जिन्हें उसी संविधान में विभिन्न स्थलों पर संरक्षण प्रदान किया गया है. अगर यह दावा कामयाब हो जाता है तो यह एक वैश्विक उदाहरण बन जाएगा कि सर्वाधिक प्रबल धार्मिक और राजनैतिक समुदाय को भी अधिकार संपन्न राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने के बाद सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से सबसे अधिक कमज़ोर समुदायों के लिए किये गए सुरक्षा-उपायों की ज़रूरत पड़ सकती है.
नई दिल्ली के निवासी एम.आर.शमशाद भारत के उच्चतम न्यायालय और भारत के विभिन्न उच्च न्यायालयों के प्रैक्टिसिंग वकील हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365