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संक्रमण के दौर में भारत (India in Transition)

स्कॉट मूर
27/08/2018
लगभग पंद्रह साल पहले भारत के केंद्रीय जल आयोग ने चेतावनी दी थी कि विश्व के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश में “जलीय राजनीति, संघवाद के मूलभूत ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने पर तुली हुई है”. वास्तव में सिंधु और ब्रह्मपुत्र सहित सभी नदियों के साथ-साथ उपमहाद्वीप की सभी प्रमुख नदियाँ भी किसी न किसी स्तर पर विवादास्पद ही हैं. वस्तुतः जहाँ अनेक देशों की सीमाओं से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय जलमार्ग अधिकाधिक चर्चा में रहते हैं, वहीं भारत की आंतरिक नदियों के
गौतम मेहता
13/08/2018
सन् 2018 में डेवोस में विश्व आर्थिक मंच पर एकत्रित विश्व भर के विशिष्ट कारोबारियों को संबोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने वैश्वीकरण की तो खुलकर प्रशंसा की, लेकिन व्यापारिक संरक्षणवाद की आलोचना की थी. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के “कट्टरवादी उदारीकरण” की चर्चा करते हुए सन् 2006 में श्री मोदी ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि आज विश्व में “भारत की अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के लिए सबसे अधिक
शौमित्रो चटर्जी
30/07/2018
भारत के किसानों से बहुत ही कम राजस्व की वसूली होती है. राजस्व की कमी का एक कारण तो यह है कि उनकी उपज ही नहीं होती और /या उन्हें अपनी उपज का बहुत कम दाम मिलता है. जहाँ एक ओर उत्पादकता का संबंध अधिकांशतः कृषि के तकनीकी पक्षों से होता है, वहीं मूल्य का निर्धारण कृषि की अर्थव्यवस्था के हालात पर निर्भर करता है और इसका निदान आर्थिक नीति में बदलाव लाकर ही किया जा सकता है. इस लेख में मैं मूल्य के दो आयामों पर चर्चा करना चाहूँगा
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सूज़न ऑस्टरमैन व अमित आहुजा
16/07/2018
विकासशील देशों में संस्थाओं के विद्वत्तापूर्ण और लोकप्रिय लेखों में दो ही बातें मुख्यतः हावी रहती हैं, संस्थागत वर्चस्व और पतन, तो भी भारतीय चुनाव आयोग (EC) सत्यनिष्ठा की भावना से काम करता है और सक्षम होकर उसने अपने अधिकारों का विस्तार भी कर लिया है. भारतीय
देवेश कपूर
29/06/2018
भारत की स्वाधीनता से पहले अमेरिका में भारत का जितना अध्ययन होता था, उसके मुकाबले अब यह अध्ययन कुछ कम हो गया है. सन् 1939 में महान् संस्कृतविद डब्ल्यू नॉर्मन ब्राउन ने विचार व्यक्त किये थे कि “किसी दैविक वरदान के बिना भी यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि [बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में] सशक्त भारत, संभवतः स्वाधीन होकर विश्व की बिरादरी में शामिल हो जाएगा और संभवतः एक प्रमुख और महत्वपूर्ण प्राच्यदेश होगा. और निश्चय ही बौद्धिक रूप में संपन्न और उत्पादक
रविंदर कौर
18/06/2018

भारतीयइतिहासकारों ने भारत में भारतीय महिलाओं और लैंगिक संबंधों की साम्राज्यवादी व्याख्याओं में निहित दृष्टि को विश्लेषित करने के लिए बहुत मेहनत की है. कन्याओं की भ्रूण हत्याओं की बात यदि छोड़ भी दी जाए तो भी ब्रिटिश इतिहासकारों ने पर्दा प्रथा,सती-प्रथा, बाल-विवाह और दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों का उल्लेख करते हुए भारतीय महिलाओं को “नीचे पायदान”पर रखने का प्रयास किया है.

अदनान नसीमुल्लाह
04/06/2018
आज से चार साल पहले नरेंद्र मोदी के चुनाव के कारण भारत की अर्थव्यवस्था के अनेक प्रेक्षकों में जबर्दस्त आशा का संचार हुआ था. अंततः लोगों को लगा था कि एक ऐसा शख़्स जिसने गुजरात में आर्थिक चमत्कार करके दिखाये थे, भारत की बागडोर सँभालने के बाद उसी अनुशासन से घरेलू और विदेशी निवेश में चार चाँद लगा देगा और बाज़ार की पूरी क्षमता का उपयोग करते हुए भारत में आर्थिक कायाकल्प ले आएगा, लेकिन चार साल के बाद मोदी
रश्मि शर्मा
21/05/2018
2014 के आम चुनाव के बाद ऐसा लगा कि एक महत्वाकांक्षी भारत उभर रहा है। एक नये भारत की कल्पना की जाने लगी है। एक ऐसा भारत, जो मैन्युफ़ैक्चरिंग का हब होगा और जिसके शहर और गाँव स्वच्छ होंगे, जहाँ किसान की आमदनी दुगुनी हो गई होगी, सबका अपना घर होगा और बैंक में सबका अपना खाता होगा। इस नज़रिये में छुपी पर स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं, एक मान्यता थी कि एक प्रभावी प्रशासन तंत्र इस कल्पना को वास्तविकता में बदलेगा। परंतु अब, किसानों के बढ़ते आंदोलन
तनुश्री भान
07/05/2018
वर्ष 2018 की शुरुआत उस समय एक ऐसी निराशाजनक घटना से हुई जब केप टाउन (दक्षिण अफ्रीका) में पानी की सप्लाई ठप्प होने की खबर ने पूरी दुनिया के समाचार जगत् को झकझोर कर रख दिया. संपूर्णघटना क्रम में एक और भी तथ्य था, जिसपर मीडिया ने अधिक ध्यान नहीं दिया कि कच्ची बस्तियों में रहने वाले शहर के एक चौथाई लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं और “डे-ज़ीरो” अर्थात पानी न होने की
रुमेला सेन
23/04/2018
आखिर क्रांतिकारी सशस्त्र गुट को छोड़कर उसी राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए कैसे लौट आते हैं, जिसे पहले वे उखाड़ फेंकने की बात करते थे? इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि पुरुष और स्त्रियाँ विद्रोह क्यों करते हैं? लेकिन इस बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है कि विद्रोह का रास्ता छोड़कर वे सामान्य जीवन में क्यों और कैसे लौट आते हैं. परंतु नेपाल से लेकर कोलंबिया तक नीति-निर्माता अभी भी