1980-99 के बीच जन्मे इस सहस्राब्दी के बच्चों (Millennials) को लगातार ‘मैं पीढ़ी’ (Generation Me) के रूप में वर्णित किया जाता है. उनका न तो सही तौर पर प्रतिनिधित्व होता है और न ही उन्हें सराहा जाता है और उन्हें स्टीरियोटाइप बना दिया जाता है. उन्हें अक्सर गैर-ज़िम्मेदार और आलसी किस्म के युवाओं के रूप में पेश किया जाता है, लेकिन हाल ही में सहस्राब्दी की पीढ़ी (Millennials) के रूप में वर्णित इन युवाओं पर मीडिया का काफ़ी ध्यान आकर्षित हुआ है. उनके बारे में यह अनुमान लगाया जाता है कि उनमें पैसा उड़ाने की गंदी लत पड़ जाती है और यह एक ऐसी पीढ़ी है, जो अन्य पीढ़ियों की तुलना में सबसे अधिक अवसाद से ग्रस्त है. इस पीढ़ी के बच्चे बहुत तेज़ी से बदलते वैश्विक समाज में ही पलकर बड़े हुए हैं और अपने माँ-बाप और दादा-दादियों के विपरीत स्वयं वयस्क होने के संक्रमण काल से गुज़रते हुए विकास की अनेक चुनौतियों से जूझने के साथ-साथ आधुनिक काल की बढ़ती माँगों के अनुरूप वे अपने-आपको ढालते भी रहे हैं. बीस साल की आयु के ये युवा, मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के ऐसे महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहे हैं, जिसमें उनका उपहास करने के बजाय उन्हें सपोर्ट देने की अधिक आवश्यकता है.
इस सहस्राब्दी के आरंभ में जीवन-काल (lifespan) के मनोविज्ञान में अनेक प्रकार के आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं. वयस्क होने की प्रक्रिया के विकास क्रम पर शोध करने की आवश्यकता को समझने को लेकर कुछ प्रगति भी हुई है. इस प्रकार के एक प्रयास के फलस्वरूप अमरीका में उभरती वयस्क पीढ़ी के संबंध में एक ऐसा सिद्धांत सामने आया है, जिसके आधार पर 18-29 वर्ष की आयु के वयस्कों की इस अवस्था को जीवन की नयी अवस्था के रूप में प्रस्तावित किया गया है. सांस्कृतिक भूदृश्य में होने वाले परिवर्तनों अर्थात् यौन क्रांति, महिला आंदोलनों और ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के कारण हाई स्कूल पास करने के समय और वयस्क की भूमिका में आने के समय के बीच का अंतराल बढ़ता रहा है. वयस्क अवस्था (आर्थिक स्वतंत्रता, स्थायी नौकरी मिलना और विवाहित होना) को चिह्नित करने के ये मानदंड सभी संस्कृतियों में अलग-अलग हैं. जहाँ एक ओर विकसित देशों में इसका व्यापक अध्ययन पहले से ही होता रहा है, वहीं भारत में इस पर शोध कार्य अभी आरंभ ही हो रहा है.
भारत में 90 के दशक में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आई तेज़ी की शुरुआत से ही सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में भी तेज़ी से बदलाव आने लगे हैं. औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण की आँधी के कारण अधिकांश लोगों पर भी इसका खासा असर पड़ता रहा है. अमरीका के समान भारत में भी यह प्रवृत्ति मुख्यतः शहरी भारत की आबादी के मध्यम और उच्च वर्ग के सहस्राब्दी लोगों में दिखाई देने लगी है. भारत में उभरती यह वयस्क प्रवृत्ति शिक्षा, ऊँचे वेतन वाली नौकरियों और प्रेम और विवाह में अधिक आज़ादी के कारण अधिक मुखर रूप में दिखाई देने लगी है. इसके अलावा, इसका एक कारण यह भी रहा है कि इस पीढ़ी के युवा बेहतर अवसरों की तलाश में भारी तादाद में गाँवों से शहरी इलाकों में आते रहे हैं और इसके फलस्वरूप सामाजिक आवाजाही बढ़ने लगी है. सामाजिक और सांस्कृतिक प्रवाह में परिवर्तन के कारण जाति-व्यवस्था की पकड़ भी धीरे-धीरे कमज़ोर होने लगी है और भारत में नया अध्याय आरंभ होने लगा है,
पिछले दशक में, मध्यम शहरी वर्ग के भारतीय परिवारों में अनेक बदलावों का एक सिलसिला शुरू हुआ है. वैश्वीकरण, बढ़ते शहरीकरण और बदलते सामाजिक परिवेश की बढती माँगों के कारण भारत में उभरती वयस्क पीढ़ी अनेक तरह की कठिन चुनौतियों का सामना कर रही है. इसके कारण वयस्क अवस्था में संक्रमण के दौर से गुज़रने के अनुभवों में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया है. विभिन्न संस्कृतियों में वयस्क अवस्था का सबसे बड़ा मानदंड तो यही है कि वयस्क होते-होते ये युवा स्वतंत्र निर्णय लेने लगे हैं और जीवन के इस दौर में व्यक्तिगत स्तर पर अपनी पसंद के आधार पर अनेक महत्वपूर्ण फैसले करने लगे हैं. इस तरह के फैसलों का स्थायी प्रभाव आर्थिक कामयाबी, सुखों और अंततः उम्र बढ़ने के साथ-साथ अच्छी तरह से सफल जीवन जीने के रूप में उनके भावी जीवन पर पड़ने लगा है. अपनी पसंद के कारण किये गए फैसलों में अक्सर अनेक प्रकार के कारक जुड़े रहते हैं. खास तौर पर भारत के संदर्भ में पारिवारिक दायित्व और समाज की अपेक्षाएँ उनके जीवन पर अधिक हावी रहती हैं, क्योंकि यहाँ उभरती वयस्क अवस्था में भी ये युवा सामान्यतः स्वतंत्र निर्णय नहीं लेते.
उत्तर साम्राज्यवादी योरोप-केंद्रित संस्कृति के कारण इस बदलते भूदृश्य के बीच भारतीय युवा अपने लिए नई सोच को परिभाषित करने के साथ-साथ अपनी पहचान और अस्मिता को भी तलाश रहे हैं. भारत में एकल परिवारों की तादाद बढ़ने के कारण परिवारों की विचारधारा में भी अंतर आने लगा है और वयस्क युवाओं की उभरती पीढ़ी के निर्णय लेने की प्रक्रिया में माँ-बाप और बच्चों के रिश्तों के बीच अधिक दूरियाँ बढ़ने लगी हैं. यह वृद्धावस्था की रूढ़ियों से उत्पन्न जड़ता और परिवर्तन के अनेक दबावों के बीच की अन्योन्य क्रिया को चित्रित करता है. इन सामाजिक-सांस्कृतिक माँगों को पूरा करने के उद्देश्य से सुचारू रूप से जीवन-यात्रा को चलाने के लिए लागत और लाभ के बीच संतुलन बनाने के लिए खास तरह के कौशल विकसित करने की आवश्यकता है.
मेरे हाल ही के शोध-कार्य से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में उभरती वयस्क अवस्था के युवा, ज़िंदगी के इस दौर में परिवार से अलग होकर स्वतंत्र और स्वायत्त होते हुए भी माँ-बाप के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को गंभीरता से समझते हैं और इन दायित्वों को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानकर उनका निर्वाह करते हैं. मेरे शोध परिणामों से पता चलता है कि ये युवा अपने माँ-बाप के प्रति भारी जिम्मेदारी का वहन करते हैं और अपनी पसंद का जीवन जीते हुए भी अपने माँ-बाप की देखभाल की ज़िम्मेदारी से कतराते नहीं हैं. भारत में उभरती वयस्क पीढ़ी के युवा खुद अपनी पहचान बनाने और आत्मनिर्भर बनने को प्राथमिकता देते हैं. स्वायत्तता की ओर बढ़ते हुए भी अपनी परंपरागत भूमिका के साथ सामंजस्य बनाये रखने की यह प्रवृत्ति भारतीय लोगों के बदलते भूदृश्य को बहुत सही ढंग से निरूपित करती हैं.
उसके बाद वे आर्थिक सुरक्षा, शिक्षा और कैरियर को अधिक महत्वदेने लगे हैं. ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था, बड़ी से बड़ी उन्नत डिग्रियों, वैयक्तिक आदर्शों और बेहतर भविष्य के लिए बड़े शहरों की ओर पलायन की ओर बढ़ते भारत का रुझान बहुत गंभीर और सुविचारित लगता है. रोमांटिक संबंधों की प्रवृत्ति भी काफ़ी महत्वपूर्ण समझी जाती है. इससे भारतीय विवाहों में पश्चिमी और भारतीय प्रथाओं की बढ़ती मिश्रित प्रवृत्ति का पता चलता है और स्वायत्तता के कारण ही ऐसे रिश्ते बनाने में वयस्कों की अपनी मर्जी चल पाती है. सक्रिय रूप में खुले तौर पर सामाजिक परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं का अनुसरण करने की अपेक्षा वयस्क पीढ़ी के युवा माँ-बाप के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाने, आर्थिक सुरक्षा, शिक्षा और कैरियर को अधिक महत्व देने लगे हैं. इन शोध-परिणामों से वैश्वीकृत उत्तर-साम्राज्यवादी युग, जिसमें ये लोग रहते हैं, का स्पष्टतः संकेत मिलता है. तथापि इन शोध-परिणामों को सही संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह शोध खास तौर पर भारतीय शहरों में रहने वाले 18-29 वर्ष की आयु के मध्यम व उच्च वर्ग के शिक्षित युवाओं पर ही केंद्रित है. इन शोध-परिणामों में अभी-भी ग्रामीण और खेती-बाड़ी करने वाले गाँवों में रहने वाले अनेक भारतीय युवाओं के विचार प्रतिबिंबित नहीं होते. जिस सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में यह पीढ़ी पली-बड़ी है और जिस तरह से उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और वैश्वीकरण की सुविधा प्राप्त हुई है, ये कारण ही उन्हें पिछली पीढ़ियों से और अपने अधिकांश ग्रामीण साथियों से काफ़ी अलग बना देते हैं.
इस पीढ़ी के लोगों के लिए इन सब बातों का क्या मतलब है? पश्चिम की तुलना में भारत में उभरती वयस्क पीढ़ी कुछ अलग दिखाई दे सकती है और कुछ अलग किस्म की भी हो सकती है. हम यह नहीं मान सकते कि हम इन लोगों के बारे में पश्चिमी लोगों द्वारा किये गए शोध-कार्यों से जो कुछ जानते हैं, वह वैश्विक स्तर पर भी लागू होता है. लोकप्रिय मीडिया में आज की इस उभरती वयस्क पीढ़ी को जिस तरह से आलसी और लापरवाह बताया जाता है, उसके ठीक विपरीत भारत की यह सहस्राब्दी पीढ़ी न केवल अपने माँ-बाप के महत्व को समझती है, बल्कि अपने जीवन-काल में अपनी जीवन-शैली में परिवार के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह को भी महत्व प्रदान करती है.
इन लोगों के लिए और क्या महत्वपूर्ण हो सकता है? हम इस पीढ़ी के सफल वयस्क बनने की प्रक्रिया को कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं? इस पीढ़ी के युवा अलग-अलग मोड़ पर जीवन की कठोर वास्तविकता का सामना करते हैं, जिसके लिए आवश्यक है कि वे सोच-समझकर और पूरी जानकारी के साथ निर्णय लें. जीवन के ये निर्णय भी अनेक प्रकार के होते हैं. कुछ निर्णय तो उनके अपने अस्तित्व से जुड़े होते हैं और कुछ निर्णय अधिक व्यावहारिक होते हैं, जिसके लिए उन्हें बार-बार अपने मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करना पड़ता है. कौन-सा व्यवहार अनुकूल है या प्रतिकूल, इसका आधार तय करने के लिए सांस्कृतिक रूप से सामान्य जीवन-लक्ष्यों को स्थापित करना ज़रूरी है. हालाँकि, आज जिसे "सामान्य" या विशिष्ट समझा जाता है, हो सकता है कि वह कई महत्वपूर्ण तरीकों से पिछले दशकों में "सामान्य" माने जाने वाले व्यवहार से भिन्न हो. इसके अलावा, जिसे पश्चिमी विचारधारा में या पिछली पीढ़ी के भारतीयों द्वारा सामान्य माना जाता हो, हो सकता है वे मानदंड आज के भारत की उभरती वयस्क पीढ़ी पर लागू ही नहीं होते हों.
अनुकूल परिणाम पाने के लिए भारत में उभरती वयस्क पीढ़ी के निर्णय लेने की प्रक्रिया को समझना ज़रूरी है और यह कार्य अक्सर सर्वेक्षण के समय मात्र एक चैकमार्क लगाकर संभव नहीं होता. खास तौर पर भारत जैसे समुदाय-केंद्रित समाज के लिए हमें उस एजेंसी को पहचानना होगा जो अपने जीवन-लक्ष्यों के लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया से संबद्ध हो. इस शोध-कार्य के नतीजों से वैश्वीकरण के वे तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव प्रकाश में आते हैं जो सांस्कृतिक मानदंडों को पुनर्गठित करते हैं. इसके कारण सफलता के आकलन के पैमाने में बदलाव भी आवश्यक हो जाता है. हालाँकि इस वर्ग के लोगों की क्षमता की पहचान अच्छी तरह से हो पाई है या नहीं, इस सवाल का जवाब अभी-भी नहीं मिल पाया है. ये वयस्क सभी संभावित भावी विकल्पों की तलाश में भी लगे रहते हैं. तथापि मीडिया में उन्हें कैसे पेश किया जाता है और उनके आदर्शों और लक्ष्यों की हकीकत क्या होती है इसके बीच कुछ विसंगति अभी-भी बनी हुई है. इसलिए मुख्य धारा के मीडिया में सही और साक्ष्य पर आधारित लक्ष्यों के निरूपण पर ज़ोर देना बेहद ज़रूरी है. यह विशेष रूप से आवश्यक है क्योंकि इस शोध-कार्य से यह बात स्पष्ट हो गई है कि भारतीय परंपराओं की ताकत को बरकरार रखते हुए भारत ने भावी विश्व में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए आज की उभरती वयस्क-पीढ़ी की क्षमता को पहचान लिया है.
दीया मित्रा क्लार्क विवि, मैसाचुसेट्स में मनोविज्ञान में डॉक्टरेट की प्रत्याशी हैं. उनके शोध का विषय भारत में उभरती वयस्क पीढ़ी में ज़िंदगी में अपनी पसंद से निर्णय लेने की प्रक्रिया पर केंद्रित है.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919