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विदेश नीति का “ हिंदुत्व चेहरा” ? भारत की 2014-19 की विदेश नीति पर प्रतिबिंब

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08/04/2019
अर्ड्न्ट माइकल

2014 के चुनावों के कुछ समय पहले, नरेंद्र मोदी विदेशी मामलों में पूरी तरह से कोरे थे. उस समय उन्होंने अपने एक इंरटरव्यू में कहा था, “ अन्य देशों के साथ विदेशी मामलों में व्यवहार करते समय मेरा हिंदुत्व का चेहरा बहुत उपयोगी सिद्ध होगा.” उनका यह बयान एक सख्त वैचारिक और मुखर विदेश नीति का संकेत हो सकता था, जिसने भारत को उसकी सभी भावी गतिविधियों में प्रथम बनाये रखा. फिर भी, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की विदेश नीति के पाँच वर्षों के विश्लेषण से केवल दिशा और परिधि में बदलाव का तो पता चलता है, लेकिन वास्तविक हिंदुत्व विचारधारा, या तत्संबंधी किसी भी विचारधारा के सख्त अनुपालन का कोई संकेत नहीं मिलता.

हिंदुत्व शब्द का पहली बार प्रयोग सन् 1923 में वी.डी. सावरकर ने किया था. यह शब्द हिंदू राष्ट्र की शुद्ध विचारधारा का प्रतीक था. इसका उद्देश्य हिंदुओं में राजनैतिक और सांस्कृतिक एकता स्थापित करना था. इसमें मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी माना जाता था. उसके दो वर्ष के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) नामक एक उग्र स्वयंसेवी संगठन की स्थापना की गई. इसका मुख्य उद्देश्य था, हिंदुओं में राष्ट्रभक्ति की भावना का संचार करना और हिंदू राष्ट्र की स्थापना. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) हिंदू और मुसलमान – दोनों बुनियादी तौर पर दो अलग-अलग परस्पर विरोधी राष्ट्रीयता की विचारधाराएँ हैं. भारतीय जनता पार्टी (BJP) राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) का राजनैतिक चेहरा है और नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के एक सदस्य. 2014 के चुनावों के कुछ समय पहले प्रकाशित भारतीय जनता पार्टी (BJP) के 2014 के चुनावी घोषणापत्र में पार्टी ने “हिंदुत्व पर आधारित विदेश नीति” का कोई उल्लेख नहीं किया था और अंतर्राष्ट्रीय मामलों को केवल तीन पृष्ठों में ही समेट लिया था. विदेश नीति को नया स्वरूप देने की इच्छा ज़रूर व्यक्त की गई थी और अन्य बातों के साथ-साथ, भारत की सॉफ्ट पावर को मज़बूत करने या नये ढंग से गठबंधनों के अंतर्जाल की स्थापना करने की इच्छा भी प्रकट की गई थी.

2014-19 से द्विपक्षीय और बहुपक्षीय विदेश नीति की कतिपय विशिष्ट गतिविधियों पर विहंगम दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रधान मंत्री मोदी बहुत अधिक सक्रिय और मुखर रहे हैं और उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में अधिक यात्राएँ भी की हैं. उन्होंने अनेक ऐसे देशों की यात्राएँ भी कीं, जहाँ दशकों से कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था; उदाहरण के लिए सन् 2015 में कनाडा और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) की यात्राएँ. जहाँ तक दक्षिण एशिया के सबसे नज़दीकी पड़ोसी देशों का संबंध है, मई, 2014 में अपने शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के अपने समकक्ष राष्ट्रनेताओं को आमंत्रित करके उन्होंने द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहयोग का मज़बूत संकेत दिया था. सन् 2015 में मोदी ने सबसे पहले श्रीलंका की यात्रा की, मानो इस यात्रा से उन्होंने भावी गतिविधियों अर्थात् भावी सहयोग और सांस्कृतिक एकता पर बल देने का सफलता पूर्वक संकेत दिया. हालाँकि उसके कुछ समय के बाद ही दोनों देशों के संबंध बिगड़ने शुरू हो गए, खास तौर पर तब जब श्रीलंका ने अपना हंबनटोटा बंदरगाह चीन को पट्टे पर देने का फैसले किया. इसके कारण इस द्वीप पर 99 साल तक चीन को मौजूद रहने की पक्की अनुमति मिल गई. मालदीव ने भी भारत के प्रस्ताव के बावजूद, चीन (जैसा पाकिस्तान ने किया था) के साथ मुक्त व्यापार समझौते की पुष्टि कर दी और 2015 में भूकंप के बाद मोदी के शुरुआती प्रयासों और समर्थन के बावजूद नेपाल ने भी चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते की पुष्टि कर दी, जिसके कारण 2015 में नेपाल के नए संघीय संविधान के कारण दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में नाटकीय तौर पर गिरावट आई. कुल मिलाकर भारत के सभी नज़दीकी पड़ोसी देशों को चीन की वन बेल्ट वन रोड (OBOR) परियोजना में सफलतापूर्वक शामिल कर लिया गया है, जिसके संबंध में भारत की प्रतिक्रिया अभी भी स्पष्ट नहीं है.

जहाँ तक पाकिस्तान के साथ रिश्तों का संबंध है, इसमें काफ़ी उतार-चढ़ाव आये हैं. शुरू में पाकिस्तान के साथ काफ़ी गर्मजोशी दिखाई पड़ी (खास तौर पर जब दिसंबर, 2015 में मोदी ने लाहौर की आकस्मिक यात्रा की थी), लेकिन बाद में पिछली सरकार की तरह इस सरकार के भी पाकिस्तान के साथ रिश्ते बिगड़ते चले गए (खास तौर पर जब पाकिस्तान के समर्थन से आतंकवादियों ने कश्मीर पर आतंकी हमले शुरू कर दिये और नियंत्रण-रेखा पर लगातार और घातक झड़पें होने लगीं). सन् 2019 में पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध बेहद खराब हो गए और भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक करके और उसके बाद भारतीय वायुसेना द्वारा पाकिस्तान की सीमा में घुसकर आतंकी शिविरों पर एयर स्ट्राइक करके पाकिस्तान के साथ आक्रामक विदेश नीति अपना ली.

कुल मिलाकर, मोदी सरकार ने पाकिस्तान को छोड़कर शेष सभी नज़दीकी पड़ोसी देशों के साथ समान नीति का निरंतर अनुसरण किया है. पिछले पाँच वर्षों में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (SAARC) की केवल एक शिखर बैठक का ही आयोजन किया जा सका है और खास तौर पर भारत-पाक दुश्मनी के कारण इस दिशा में कोई प्रगति भी नहीं हो पा रही है.

मोदी सरकार ने पिछली सरकारों की तुलना में मॉरीशस और सेशेल्स की यात्रा करके हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में कहीं अधिक प्रगति की. इसके अलावा वे हिंद महासागर रिम संगठन (IROA) के साथ अधिकाधिक गतिविधियों में भी संलग्न रहे. मोदी ने दक्षिण पूर्वेशिया की भारतीय विदेश नीति में और भी संशोधन किये, जिसकी परिणति पूर्वोन्मुखी कार्यनीति अर्थात् Act East-Policy (AEP) के रूप में हुई. यह नब्बे के दशक में अपनाई गई पूर्व की ओर देखने की नीति अर्थात् Look East-Policy का ही नया संस्करण था.

पाकिस्तान से आगे बढ़कर यदि चीन से संबंधित भारतीय विदेश नीति को देखें तो उसमें भी सबसे अधिक नाटकीय परिवर्तन देखे गए हैं. आरंभ में बेहद सकारात्मक सहयोग के बावजूद भी द्विपक्षीय राजनैतिक संबंधों में कोई सुधार नहीं हुआ. भारत-चीनी सीमा-विवाद के संबंध में भी भारत की विदेश नीति बहुत मुखर रही है, लेकिन कुछ समय तक डोकलम गतिरोध बने रहने के कारण भारत-चीन के संबंध बहुत बिगड़ गए थे. उसके बाद भारत ने बैल्ट ऐंड रोड फ़ोरम की बैठक में भी भाग नहीं लिया और चीनी-पाकिस्तानी आर्थिक गलियारे के निर्माण को लेकर  भारत ने गंभीर चिंता प्रकट की लेकिन मोदी ने चीन के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए वूहान 2018 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अनौपचारिक शिखर वार्ता की.

इसके विपरीत, 2016 से अमरीकी-भारत संबंध खास तौर पर उस समय और भी प्रगाढ़ हो गए जब दोनों देशों के बीच लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मैमोरेंडम ऑफ़ ऐग्रीमेंट (LEMOA) नामक करार हुआ, जिसका उद्देश्य दोनों देशों की सेनाओं के बीच लॉजिस्टिक सपोर्ट और सेवाओं को सुगम बनाना था. इसके बाद दोनों देशों के बीच सन् 2018 में संचार अनुकूलता और सुरक्षा समझौता (COMCASA) हुआ, जिसका उद्देश्य रक्षा प्रणालियों को उन्नत बनाना था. इसी कारण दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदारी और भी बढ़ गई है.

जिस समय रूस के साथ भारत के संबंधों में गिरावट आ रही थी, उसी समय जापान के साथ संबंधों में गर्मजोशी दिखाई दी. सन् 2014 में, जापान और भारत के बीच "विशेष रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी" के युग की शुरुआत हुई और बुनियादी ढाँचे से संबंधित सहयोग या परमाणु ऊर्जा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति हुई. खाड़ी के देशों के साथ भारत के संबंध और भी सुदृढ़ हो गए और इज़राइल के साथ उसके द्विपक्षीय संबंध पूरी तरह से सामान्य हो गए. भारत की मज़बूत स्थिति को दर्शाने के लिए पहला और स्पष्ट संकेत यही है कि भारत को मार्च, 2019 में इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) के उद्घाटन सत्र को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया और सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के साथ भारत के संबंधों ने नई ऊँचाइयों को छुआ, जिसके कारण खाड़ी के तेल के प्रमुख ग्राहक के रूप में भारत को राजनीतिक और आर्थिक लाभ मिलना आवश्यक है.

बहुपक्षीय परिवेश में, भारत ने क्वाड्रिलेटरल (क्वाड) के साथ संबंध बढ़ाने शुरू कर दिए. यह एक ऐसा समूह है, जिसमें अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं. बार-बार के प्रयासों के बावजूद, भारत को परमाणु सप्लायर समूह या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) जैसे वैश्विक शासन मंचों में अंततः प्रवेश नहीं मिला. परंतु भारत की अपील पर संयुक्त राष्ट्र ने विश्वव्यापी स्तर पर 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाना शुरू कर दिया. वैश्विक पटल पर भारत की इस पहल के कारण उसे नई पहचान मिली और अंततः एनडीए सरकार का यह प्रमुख उद्देश्य रहा है कि विश्व-भर के उन तमाम देशों को कनैक्ट किया जाए, जहाँ प्रवासी भारतीय रहते हैं.

भारत की विदेश नीति में हिंदुत्व पर आधारित “नई” विदेश नीति के तौर पर पूरी तरह कायाकल्प या क्रांतिकारी परिवर्तन कहीं दिखाई नहीं देता. मोदी ने भारत की विदेश नीति को भारतीय मूल्यों के साथ समन्वित करने का प्रयास ज़रूर किया और साझी सभ्यता और धार्मिक संबंधों के आधार पर दक्षिण और दक्षिण पूर्वेशिया के साथ संबंधों को बढ़ाने पर बल दिया, योग को प्रमुखता प्रदान की और खास तौर पर प्रवासी भारतीयों के साथ अपने संबंध मज़बूत किये.     यह भी सच है कि भारत ने महाशक्तियों के साथ-साथ अपने विस्तारित पड़ोसियों के साथ भी अपने संबंधों को मज़बूत करना जारी रखा. पाकिस्तान और चीन के प्रति नये आक्रामक रुख के साथ-साथ सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे देशों के साथ नई रणनीतिक साझेदारी करते हुए भारत ने नई विदेश नीति को व्यवहारवाद पर आधारित करके वस्तुतः नया संकेत दिया है. तब हिंदुत्व पर आधारित विदेश नीति के सामने अनेक प्रकार की भू-राजनैतिक और भू-आर्थिक ज़रूरतें आईं और यह सब पिछले पाँच वर्षों में हुआ, लेकिन अगर वाक् पटुता को छोड़ भी दिया जाए तो भी भारत की नई विदेश नीति ने न तो नया स्वरूप धारण किया और न ही भव्य रणनीति अपनाई. इसके बजाय व्यवहारवाद ने स्पष्ट रूप में हिंदुत्व पर ग्रहण लगा दिया.

अर्ड्न्ट माइकल फ्राईबर्ग विवि (जर्मनी) के राजनीति विभाग में हैं. उनके द्वारा लिखित पुस्तक भारतीय विदेश नीति और क्षेत्रीय बहुपक्षवाद (पैलग्रेव मैकमिलन 2013) को अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए और वह इंडियन वर्स्टेहेन (अंडरस्टैडिंग इंडिया, स्प्रिंगर 2016) के सह-संपादक हैं. अन्य विषयों के अलावा उनके लेख हार्वर्ड एशिया क्वार्टर्ली, इंडिया  क्वार्टर्ली, इंडिया रिव्यू और एशियन सिक्योरिटी में प्रकाशित हुए हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919