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कोयले में निवेश न करने का निर्णय एक कुंद औजार है

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25/02/2019
रोहित चंद्र

पिछले पाँच वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में कोयला उद्योग से वित्तीय पूँजी की वापसी को लेकर धीरे-धीरे आम सहमति बनने लगी है. विशाल और स्वायत्त समृद्धि निधि और पेंशन निधि एवं विश्व बैंक जैसी बहुराष्ट्रीय सहायता एजेंसियों ने कोयले के वित्तपोषण से बाहर निकलने की घोषणा करते हुए इसका संकेत दे दिया है. बढ़ती विनियामक लागत के कारण जहाँ एक ओर पश्चिम के कोयला-आधारित उत्पादकों ने पहले ही अपने पैर समेट लिये हैं, वहीं एशिया के, खास तौर पर भारत और चीन के उत्पादकों ने कोयला क्षेत्र के अधिकांश विस्तार के लिए 2010 के दशक में वित्तपोषण किया है. कोयला उद्योग से वित्तीय सपोर्ट वापस लेने के विचार के पीछे नीयत भी बुरी नहीं है; कोयला-उत्पादन में तेज़ी से आती कमी और उसके स्थान पर अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छ विकल्पों को प्रोत्साहित करना ही कदाचित् इस विचार के पीछे कारण रहे हैं. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वैश्विक उपायों को लागू करना और आम लोगों के स्वास्थ्य में सुधार लाने के स्थानीय उपायों का लाभ आम लोगों तक पहुँचाना भी इसका उद्देश्य रहा है. लेकिन समस्या यह है कि कोयले में निवेश न करने का निर्णय एक कुंद औजार है. इसके कारण भारी मात्रा में कोयले का उत्पादन करने वाले देशों में संक्रमण की समस्या असल में और भी बदतर हो गई है. 

कई एशियाई देशों ने नवीकरणीय ऊर्जा की बढ़ती लागत के बावजूद अपने थर्मल कोयला आधारित बिजली उत्पादन बेड़े का विस्तार करना जारी रखा है. भारत इसका अपवाद नहीं है.  कोयला-आधारित बिजली के उत्पादन में कमी लाने वाले कुछ देशों ने कोयले (ऑस्ट्रेलिया) या कोयला-उत्पादन के लिए बिजली के उपकरण (चीन) का भारी मात्रा में निर्यात करना जारी रखा है. कोयला-आधारित बिजली का उत्पादन इकहरा उद्योग नहीं है. यह अपस्ट्रीम खनिकों, मशीन निर्माताओं, परिवहन चालकों, इंजीनियरी सलाहकारों, प्लांट ऑपरेटरों और उपभोग्य सुविधाओं (इसमें उप-ठेकेदारों का उल्लेख नहीं किया गया है) का एक नैटवर्क है. ये उद्योग न केवल अनेक लोगों को सामूहिक रूप में रोज़गार देते हैं, बल्कि एक ऐसे ईको-सिस्टम का हिस्सा हैं, जो कई दशकों से सुचारू रूप में चल रहा है. हाइड्रॉलिक रूप से खंडित गैस के भूवैज्ञानिक उपहारों से वंचित या भारी गैस या नवीकरणीय ऊर्जा (RE) की कीमतों को अक्सर सही ठहराने वाले देशों को अभी भी कोयला आधारित बिजली अधिक किफ़ायती और लागू करने में आसान लगती है.

कोयला-आधारित बिजली संयंत्र उन नवीकरणीय संयंत्रों की तरह नहीं होते, जहाँ अधिकांश निवेश सामने होता है और फिर संचालन और रख-रखाव (O&M) की लागत अपेक्षाकृत बहुत कम रह जाती है. कोयले के संयंत्र की रुक-रुक कर आने वाली संचालन और रख-रखाव (O&M) की लागत बहुत अधिक पड़ती है और विनियमों के अनुसार, विशेष रूप से फ्लाई ऐश निपटान, स्टैक उत्सर्जन और रिसने वाले अपशिष्ट जल का उपचार पिछले कुछ दशकों में अपेक्षाकृत अधिक सख्त हो गया है, जिसके कारण उसके संचालन और रख-रखाव (O&M) की लागत बढ़ गई है. भारत में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (PCBs) इन विनियमों की निगरानी या उनका अनुपालन कराने में खास प्रभावी नहीं रहे हैं. इसलिए इन क्षेत्रों में लागत को कम करने में परंपरागत तौर पर कोयला संयंत्रों की भी भूमिका रही है. तेज़ी से बढ़ते शत्रुतापूर्ण निवेश के माहौल के कारण प्रतिस्पर्धी व विनियमित पावर मार्केट और बढ़ते वित्तीय दबावों के कारण, भारतीय उत्पादकों को नियमों का पालन कराने के लिए कुछ प्रोत्साहन दिये जाते हैं, ताकि वे अल्पकालिक तरलता की अपनी स्थायी समस्याओं से जूझ सकें. विद्युत मंत्रालय थर्मल प्लांट से उत्सर्जन मानकों का अनुपालन कराने के लिए समय-सीमा बढ़ा रहा है. इससे पता चलता है कि विनियामक अनुपालन के लिए सिस्टम में कितनी कम गति है.

समस्या का एक अंश यह है कि विनियमन के कारण परिचालन लागत में इस प्रकार की वृद्धि को समायोजित करने के लिए भारत के बिजली विनियामक नियमित रूप से कीमतों को अच्छी तरह से अद्यतन नहीं कर पाते हैं. इन लागतों को लागू करने के लिए काफ़ी पहले से ही अनुमति दी जानी चाहिए और अगर बिजली संयंत्र को उसके पूरे जीवन काल में उत्पादन करते रहना है तो बिजली विनियामकों को चाहिए कि वे CO2 स्क्रबर्स, फ्ल्यू-गैस डीसल्फराइज़ेशन टैक्नोलॉजी (FGD) और फ़्लाई-ऐश प्रबंधन और अन्य में निवेश करने के लिए बिजली उत्पादकों को सही संकेत देते रहें. अन्यथा बिजली की कीमतों में कमी लाने की होड़ में बिजली संयंत्र निश्चय ही विनियमों की अवहेलना करने लगेंगे. 

भारत में बिजली उत्पादन में विस्तार का कारण मुख्यतः सरकारी वित्तपोषण रहा है. भारत के लगभग सभी कोयला बिजली संयंत्रों का निर्माण सरकारी बैंकों से भारी मात्रा में ऋण लेकर ही किया गया है, भले ही प्रमोटर सरकारी उद्यम हो या निजी कंपनी. भारत में कोयला उत्पादन परिसंपत्तियों में अंतर्राष्ट्रीय निवेश न्यूनतम रहा है, इसलिए भारत में कोयले में निवेश न करने की घोषणा व्यापक रूप से बड़े पैमाने पर पूँजी की वापसी के बजाय एक कॉस्मेटिक घोषणा ही रही है. कोयला उत्पादन के क्षेत्र में वित्तीय संकट कोयला ईको-सिस्टम को लगातार झटके देने से हुआ है: उच्चतम न्यायालय द्वारा कोयला ब्लॉक को रद्द करना, डिस्कॉम का दिवालियापन, कोयले के भंडार में कमी का कारण लॉजिस्टिक समस्याएँ और दूरदर्शिता की कमी के कारण कोयले के आयात पर लगा प्रतिबंध. उन बिजली उत्पादकों की संख्या को देखते हुए जिन्हें गैर-निष्पादित के रूप में वर्गीकृत किया गया है या जो दिवालिया हो गए हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि यह उद्योग पूँजी पाने के लिए बेकरार है, लेकिन सरकारी बैंक इस समय किसी भी तरह की मदद करने की स्थिति में नहीं हैं.

ठीक यही समय है जब बिजली क्षेत्र की बढ़ती समस्याओं के समाधान के लिए एक रचनात्मक, लक्षित वित्तपोषण का प्रस्ताव भारत में लाया जाना चाहिए. प्लांट मशीनरी के निर्माता बड़े उत्पादकों से संपर्क कर रहे होंगे और उन्हें बड़े पैमाने पर दक्षता लाभ दिखा रहे होंगे, जिन्हें पुराने संयंत्रों पर एकीकृत नियंत्रण प्रणाली लागू करके हासिल किया जा सकता है. अक्सर, इन प्रणालियों की स्थापना, लागत बचत के भुगतान से ही अकेले की जा सकती है. बहुराष्ट्रीय इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश बैंक को भारतीय इंजीनियरिंग के सलाहकारों के साथ मिलकर काम करना चाहिए ताकि CO2 स्क्रबर्स, FGD सिस्टम और अन्य प्रकार के बिजली संयंत्रों में स्टैक उत्सर्जन प्रबंधन के प्रस्तावों को इस शर्त पर फ्लोट किया जा सके कि लाभकारी संयंत्रों से सभी प्रकार के स्टैक उत्सर्जन की लगातार सार्वजनिक रिपोर्टिंग होती रहे. इस अकेले कदम से ही विशेष रूप से उत्तर भारत में आम लोगों को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य का लाभ मिल सकता है. इससे राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों (PCBs) का जीवन भी आसान हो जाएगा. FGDs पर NTPC और GE पावर के बीच हालिया सहयोग इस दिशा में एक स्वागत योग्य कदम है. इस प्रकार के बहुत से आसान उपाय हैं, जो ज़रूरी नहीं कि नए कोयले के संयंत्रों का वित्तपोषण करते हों, बल्कि उनके उन हिस्सों का वित्तपोषण करते हैं जो दक्षता (कम कोयला जला) और उत्सर्जन (कम CO2 और PM2.5) में सुधार की संभावना रखते हैं.

स्वच्छ कोयला एक ऐसा विचार है, जिसकी हमारे कुछ संयंत्रों की आयु और अकुशलता के कारण भारत में भारी संभावना है. कोयला-निर्भरता के लिए अल्प से मध्यम अवधि की अनिवार्यता को देखते हुए, स्वच्छ कोयले के विचार को लागू करने के संभावित लाभ बड़े पैमाने पर हैं. ये कदम होंगे, अधिक सावधानी से सामग्री प्रबंधन, कोयले की धूल और स्टैक के उत्सर्जन का प्रबंधन और यह सुनिश्चित करना कि संयंत्र का अपशिष्ट स्थानीय पानी की आपूर्ति के साथ मिश्रण न होने पाए. इसका एक अच्छा उदाहरण यह है कि स्टॉकहोम शहर को आंशिक रूप से किस तरह से वेस्टरस नामक एक शहरी बिजली संयंत्र द्वारा बिजली की सप्लाई की गई थी. इसमें पनबिजली की पूरक व्यवस्था की गई थी और जरूरत पड़ने पर स्टैंडबाई और पीकिंग क्षमता प्रदान की जाती थी. इस संयंत्र का न केवल शहरी वायु प्रदूषण पर नगण्य प्रभाव था, बल्कि, वास्तव में जब तक इसे धीरे-धीरे बंद नहीं कर दिया गया, यह संयंत्र आधी सदी से भी अधिक समय तक अच्छी तरह चलता रहा. अपने ही देश में, टोरेंट पावर का साबरमती संयंत्र अस्सी वर्षों से अहमदाबाद में चल रहा है और गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (GPCB) के उत्सर्जन के मानदंडों के भीतर अच्छी तरह से काम भी कर रहा है.

इस सबके पीछे मुद्दा यह है कि कोयला सुधार निवेश को कोयले में निवेश न करने के व्यापक लक्ष्यों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. निवेश न करने के अधिकांश आंदोलनों की तरह, कोयले में निवेश न करने का यह निर्णय भी मूल रूप से प्रौद्योगिकी प्रणालियों को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है और अब देखें कि वे समय के साथ कैसे बदलते हैं. आगामी दशकों में कोयले के युग का अंत हो ही जाएगा, लेकिन फिलहाल तो यह यहाँ रहने वाला है और इसे खत्म करने के बजाय, इसे एक ऐसी दिशा दी जानी चाहिए ताकि यह उन तमाम लक्ष्यों को हासिल कर सके जो आज सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किए जाते हैं अर्थात् वायु प्रदूषण में कमी लाकर और जलवायु परिवर्तन का शमन करके.

रोहित चंद्रा कोयला और पावर उद्योगों पर काम करने वाले राजनीति विज्ञान के विशेषज्ञ हैं और साथ ही आर्थिक इतिहासवेत्ता भी हैं. हाल ही में उन्होंने हार्वर्ड कैनेडी विवि से सार्वजनिक नीति पर अपनी पीएच.डी पूरी की है.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919