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परंपरागत खेती-बाड़ी का कायाकल्पः डिजिटल नवाचार की भूमिका

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14/01/2019
मार्शल एम. बाउटन

मार्च, 2016 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की कृषि-नीति में ऐतिहासिक परिवर्तन लाने की घोषणा की थीः इस घोषणा के अनुसार भारत की कृषि-नीति का मुख्य लक्ष्य 2022 तक अनाज का उत्पादन बढ़ाकर किसानों की आमदनी दुगुनी करना था. अनेक विशेषज्ञों ने इस घोषणा की यह कहते हुए आलोचना की थी कि इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता, फिर भी प्राथमिकताओं में परिवर्तन लाने की घोषणा का उन्होंने स्वागत किया. कई दशक पुरानी नीति में परिवर्तन लाने के पीछे मोदी की मंशा क्या है और आज इस पहल का मतलब क्या  है?

साठ के दशक के उत्तरार्ध में आई हरित क्रांति के आरंभ से ही भारत का लक्ष्य राष्ट्रीय सुरक्षा को पूरी तरह सुनिश्चित करना रहा है. इससे आगे बढ़कर अनाज का उत्पादन बढ़ाने का एक लक्ष्य यह भी रहा है कि देश अपने नागरिकों का पूरी तरह से पेट भर सके और राष्ट्रीय स्तर पर आत्म-निर्भर हो जाए. 2000 के दशक के आरंभ में गेहूँ और चावल की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में स्थिरता आ गई और कुल उत्पादन बढ़कर दुगुने से अधिक हो गया.

लेकिन हरित क्रांति की नीतियों में एक बड़ी खामी यह रह गई कि उत्पादकता और उत्पादन में वृद्धि के बावजूद खास तौर पर छोटे और सीमांत किसानों की आमदनी में उसके अनुरूप वृद्धि नहीं हुई. कुल किसानों में इनकी संख्या 80 प्रतिशत है. पिछले दो दशकों में खेती के लिए आवश्यक साधनों की लागत में आई तीव्र वृद्धि, बदलते मौसम के कारण उपज में आई कमी, बढ़ती मूल्य-वृद्धि और प्रौद्योगिकी, आर्थिक साधनों और बाज़ार तक उनकी पहुँच न होने के कारण छोटे और सीमांत किसानों की आमदनी में 30 प्रतिशत की कमी आई है.

भारत के नये कृषि संकट के कारण उसकी सामाजिक-आर्थिक लागत बहुत बढ़ गई है. किसानों की ऋणग्रस्तता में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जिसके कारण 1995 से लेकर अब तक 300,000 किसानों ने आत्महत्या कर ली है और देश के अनेक क्षेत्रों में किसानों के असंतोष में वृद्धि हुई है. मार्च, 2018 में 40,000 खेतिहर किसानों ने पूरे महराष्ट्र में विरोध स्वरूप मार्च निकाला. कई राज्यों में अनेक किसान-दलों ने कर्ज़-माफ़ी की माँग की है. किसानों की समस्याएँ एक बड़ा राजनैतिक मुद्दा बन गया है और अप्रैल-मार्च 2019 में होने वाले आम चुनाव में निश्चय ही यह मुद्दा छाया रहेगा.

किसानों की आमदनी बढ़ाने का सरकार का नया नीतिगत निर्णय स्पष्टतः सही समय को ध्यान में रखते हुए किया गया है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इस लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाएगा. सरकार की अनेक नीतिगत पहलों की घोषणा की जा चुकी है. कई नीतिगत पहलें तो डिजिटल नवाचार पर आधारित हैं ताकि छोटे और सीमांत किसानों को वित्तीय सहायता, प्रौद्योगिकी, विपणन और जोखिम प्रबंधन के साधन उपलब्ध कराए जा सकें.

अक्तूबर, 2018 में उच्च भारतीय अध्ययन केंद्र (CASI) ने भारत के नये कृषि संकट और उसकी प्रतिक्रियाओं के मूल्यांकन के लिए विश्व खाद्य पुरस्कार प्रतिष्ठान, मैककिन्सले ऐंड कंपनी और शिकागो काउंसिल ऑफ़ ग्रोबल अफ़ेयर्स के साथ भागीदारी की है. दे मॉइन्स, आयोवा में आयोजित वार्षिक बॉरलॉग संवाद के दौरान इस प्रतिष्ठान के आयोजकों ने एक पैनल चर्चा का आयोजन किया, जिसमें चर्चा की गई कि चार महत्वपूर्ण क्षेत्रों में डिजिटल नवाचार और नीतिगत सुधारों के माध्यम से भारतीय खेती-बाड़ी का कायाकल्प कैसे किया जाए.

उत्पादकता
हरित क्रांति से संबंधित नीतियों और प्रोत्साहनों की पकड़ में बँधकर भारत की खेती-बाड़ी खास तौर पर और विडंबना के रूप में अधिकाधिक सिंचित और बाज़ार से संबद्ध क्षेत्रों में गेहूँ और चावल तक ही सिमटकर रह गई. वर्षा-सिचित क्षेत्रों में धान और चावल की इकहरी फसलों की बुआई करने वाले किसानों को इन नीतियों के कारण सबसे अधिक नुक्सान झेलना पड़ा.

आज किसानों को अधिक लाभ तभी मिल पाता है जब वे विभिन्न प्रकार की फसलों की बुआई करते हैं. खास तौर पर छोटे और सीमांत किसान सब्ज़ियाँ बोकर और पशुधन बढ़ाकर अपनी आमदनी में इजाफ़ा कर लेते हैं. ओड़िसा जैसे अपेक्षाकृत गरीब राज्यों में पशुधन बढ़ने से नाटकीय प्रगति हुई है.

विभिन्न प्रकार की फसलें उगाने के लिए किसानों का खर्चा भी कम आता है और उन्हें वित्त,प्रौद्योगिकी और इनपुट की मदद भी आसानी से मिल जाती है और बहुत जल्दी खराब होने वाले उनके उत्पादों की बिक्री, भंडारण और ढुलाई के लिए उन्हें कम रुकावटों का सामना करना पड़ता है. डिजिटल नवाचार और सरकार द्वारा जारी किये गए मृदा स्वास्थ्य कार्डों से यह मदद पहुँचाई जा सकती है. डिजिटल चैनलों से अपेक्षाकृत कम जोखिम उठाते हुए कम लागत पर ऋण-सुविधा प्रदान की जा सकती है. डिजिटल विस्तार सेवाओं से किसानों को नई फसलों के संक्रमण में मदद के लिए रियल टाइम सलाह दी जा सकती है.  मोबाइल फ़ोन और खास तौर पर व्हाट्सऐप की मदद से किसान अपनी फसलों को बेचने के लिए कीमत और समय तय कर सकते हैं और कदाचित् बिक्री के लिए करार भी कर सकते हैं.

उपज होने के बाद
भारत के कृषि संक्रमण की एकमात्र सबसे बड़ी चुनौती है किसानों को अपनी उपज के लिए अच्छे दाम मिलना. इसके लिए आवश्यक है कि उत्पादन के बजाय बाज़ार को केंद्रित करते हुए प्रोत्साहन-योजनाएँ बनाई जाएँ. भारत के किसानों का उनकी उपज पर मूल्य का मौजूदा शेयर है, लगभग 20 प्रतिशत. यह वही मूल्य है, जो उपभोक्ताओं को दिया जाता है. इससे स्पष्ट है कि वे केवल किसानी से अपने परिवार का निर्वाह नहीं कर सकते और अब वे खेती से इतर कामों में मज़दूरी करके अपनी आमदनी का औसतन एक तिहाई भाग कमा लेते हैं.

अधिकांश किसान उपज के बेहतर दाम पाने के लिए अनेक बाधाएँ झेलते हैं. ये बाधाएँ हैं, घर से बाज़ार तक की दूरी, बुआई के मौसम के पहले और बाद में पूँजी जुटाने के लिए स्थानीय सूदखोरों और व्यापारियों से कर्ज़ लेने की विवशता और कीमतों की घट-बढ़ की जानकारी का अभाव, फसल काटने के लिए नकदी की आवश्यकता, मंडियों तक ढुलाई का खर्च, बाज़ार पर व्यापारियों का कब्ज़ा (भारत के खेतों में होने वाली 70% उपज बिचौलियों के हाथ बेच दी जाती है) और नज़दीकी इलाकों में भंडारण की किफ़ायती सुविधाओं का अभाव.

आजकल अधिकाधिक ध्यान इसी बात पर दिया जा रहा है कि किसान किस तरह से अपनी उपज के बेहतर दाम पा सकें और तमाम बाधाओं को दूर करने के लिए डिजिटल समाधान के उपाय खोजे जा रहे हैं. डिजिटल ऋण-पद्धति से उत्पादन ऋण (और अन्य प्रकार के ऋण) के स्थानीय स्रोतों और बेहतर दाम पर उपज बेचने की किसान की क्षमता के बीच के लिंक को तोड़ने में मदद मिल सकती है. ऑनलाइन मूल्य डिस्कवरी और मार्केटिंग प्लेटफ़ॉर्म के कारण किसानों को पारदर्शिता के साथ-साथ बिना बिचौलियों के बाज़ार तक पहुँच मिल जाती है.

मोदी सरकार इलैक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय मंडी (eNAM) स्थापित करने पर काम कर रही है और इस योजना के अंतर्गत देश की एक-तिहाई विनियमित थोक मंडियों को सूचीबद्ध कर लिया गया है, लेकिन यह व्यवस्था तभी कारगर हो सकती है जब दाम तय करने वाली और बाधाओं को झेल पाने में समर्थ मंडियों के व्यापारियों की इसमें भागीदारी हो. अभी तक यह भागीदारी अधूरी है.  

इसे और अधिक संभव बनाने के लिए आवश्यकता है स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर कृषक उत्पादक संगठनों (FPOs) के गठन की, ताकि एक हज़ार से भी अधिक किसान, मंडियों तक अपनी पहुँच बना सकें और बेहतर दाम पा सकें. कृषक उत्पादक संगठनों (FPOs) को प्रभावी बनाने के लिए उत्पादकों को खुद पहल करनी होगी और जब वे कोई लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे तो व्यावसायिक स्तर पर प्रबंधन भी कर सकेंगे. यह एक ऐसा प्रकरण बन सकता है, जिससे सरकार विनियामक परिवेश बना सकेगी और कदाचित् आरंभिक वित्तीय सहायता भी प्रदान कर सकेगी.

जोखिम प्रबंधन
हाल ही के वर्षों में भारत में अधिकांशतः जोखिम में रहने वाली खेती-बाड़ी जोखिम-बहुल हो गई है.  पिछले पाँच वर्षों में से तीन वर्षों में आए सूखे, अतिवृष्टि या अत्यधिक तापमान के कारण देश के कई भागों में उपज कम होने लगी है. 2018 के भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण में मौसम की मार से सीधे प्रभावित उन स्थलों की खोजबीन की गई है, जिसकी भविष्यवाणी जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतःसरकारी पैनल द्वारा जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों के रूप में की गई थी.

अनेक भारतीय किसान अब कुछ फसलों के फसल-चक्र में आई तेज़ी और मंदी के कारण मूल्यों की अस्थिरता का जोखिम झेल रहे हैं. माँग और पूर्ति के इसी असंतुलन और मूल्यों में हुई घट-बढ़ के कारण भारत के किसान अंशतः सफलता की एक ऐसी समस्या से जूझ रहे हैं जो कई फसलों के कुल उत्पादन में हुई वृद्धि के कारण पैदा हुई है. मौसम और उत्पादन में होने वाले परिवर्तन की पूर्व-सूचना न मिल पाने के कारण छोटे और सीमांत किसानों के जोखिम बहुत बढ़ जाते हैं. यह जोखिम उन किसानों के लिए और भी बढ़ जाता है जो फल और सब्ज़ियाँ जैसी जल्दी खराब होने वाली फसलें उगाते हैं. ये किसान अपनी उपज को तब तक भी तरो-ताज़ा नहीं रख पाते हैं जब तक कि मूल्यों में वृद्धि न हो जाए. इनमें से बहुत-से किसान तो ऐसे होते हैं जिनका फसल की आकस्मिक हानि और कभी-कभी फसल की पूरी तरह बर्बादी की क्षतिपूर्ति के लिए किसी प्रकार का फसल बीमा भी नहीं होता.

डिजिटल नवाचार से मौसम की मार और मूल्यों की घट-बढ़ से बचाव की उम्मीद बढ़ने लगी है. भारत सरकार ने बड़े स्तर पर मौसम की भविष्यवाणी करने की क्षमता विकसित कर ली है, जिसका सीमित उपयोग 5 से 10 प्रतिशत तक नुक्सान कम करने के लिए किया जा रहा है और इसके ज़रिये कीमत की भविष्यवाणी करने के मॉडल विकसित करने का प्रस्ताव है. इसका अगला महत्वपूर्ण चरण यही होगा कि यह भविष्यवाणी बड़े पैमाने पर किसानों तक पहुँचाई जाए ताकि उसकी जानकारी पाकर उनके खेतों और फसलों को समय पर बचाया जा सके. इसके अलावा, भारत सरकार ने 2016 में फसल बीमा योजना की भी घोषणा कर दी थी, जिसके अंतर्गत अंशतः सरकारी सब्सिडी की गारंटी भी दी गई थी और फसल के नुक्सान के आकलन करने और छोटे व सीमांत किसानों को बीमाकर्ताओं से जोड़ने की व्यवस्था भी की गई थी. लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इन डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों का व्यापक उपयोग हो रहा है या नहीं.

सबसे अधिक आशाजनक प्रतिक्रिया ऐसी है जो डिजिटल नहीं है. इसके अनुसार गारंटियों का वित्तपोषण करते हुए और / या करों के रूप में प्रोत्साहन देकर स्थानीय रूप में और सस्ती दरों पर फसलों के भंडारण की सुविधाओं के निर्माण और संचालन को प्रोत्साहित किया जाता है.

डिजिटल संभावनाएँ
किसानों की आमदनी को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के डिजिटल अनुप्रयोग करने की संभावनाएँ हैं. लेकिन ज़ाहिर है कि अधिकांश भारतीय किसानों तक इसका लाभ पहुँचाने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है. भले ही सरकार डिजिटल नवाचार लाने के लिए कितनी भी प्रयत्नशील हो, लेकिन सबसे ज़रूरी तो यही है कि सरकार को मौजूदा सरकारी नीतियों में सुधार करके उन्हें अधिक बाज़ारोन्मुख बनाना होगा. उदाहरण के लिए, सरकार को चाहिए कि वह सीधे बाज़ार में दखल देने के बजाय सोच-समझकर नीतियाँ बनाए ताकि एजेंसियों और राज्यों की सीमाओं के आर-पार डिजिटल प्रणाली के संचालन में आने वाली बाधाओं को दूर किया जा सके, स्थानीय स्तर पर भंडारण-सुविधाओं और सिंचाई जैसी बुनियादी ढाँचे की सुविधाओं का विकास किया जा सके और डिजिटल नवाचार की वृद्धि के कारण आने वाली कानूनी और नौकरशाही से संबंधित अड़चनों को दूर किया जा सके.

मार्शल एम. बाउटन उच्च भारतीय अध्ययन केंद्र (CASI) में कार्यकारी निदेशक और विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919