आज भारत की आबादी 1.35 अरब हो गई है. संयुक्त राष्ट्र के वर्ष 2017 के जनसंख्या-अनुमान के अनुसार वर्ष 2024 तक भारत की कुल आबादी चीन की कुल आबादी से भी अधिक हो जाएगी और वर्ष 2030 तक यह आँकड़ा 1.5 अरब तक पहुँच जाएगा और भारत इस भूमंडल का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा. लगभग दो-तिहाई भारतीयों की आयु 35 वर्ष से कम है. पिछले दो दशकों से भारत की सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) लगभग 7 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रही है और इसी दर से कम से कम एक और दशक तक बढ़ते रहने की संभावना है. जिस प्रकार जनसंख्या वृद्धि दर धीरे-धीरे घटकर अब 1.1 प्रतिशत हो गई है और इसी क्रम से आगे भी कम होती रहेगी, उसे देखते हुए भारत में प्रति व्यक्ति आय अगले दशक तक लगभग 6 प्रतिशत सालाना बढ़ने की संभावना है।. राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) द्वारा किये गए वर्ष 2011 के खपत व्यय सर्वेक्षण के अनुसार औसतन भारतीय परिवारों ने अपने कुल मासिक व्यय का लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा खाने-पीने पर खर्च किया है. इसका अर्थ यह है कि आगामी वर्षों में भारत में खाद्य पदार्थों की माँग तेज़ी से बढ़ती जाएगी.
इससे एक बुनियादी सवाल यह पैदा होता है कि क्या भारत खाद्य-पदार्थों की अपनी माँग पूरी कर पाएगा या खाद्य-पदार्थों का एक बड़ा आयातक देश बन जाएगा? यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि भारत में खेती योग्य भूमि (शुद्ध बोया गया क्षेत्र 14 करोड़ हेक्टेयर के आसपास है) और इसकी भूजल तालिका पर भी भारी दबाव है. कुछ स्थानों पर तो यह तालिका हर साल लगभग एक मीटर की दर से घट रही है! जलवायु परिवर्तन के एक अनुमान के अनुसार तापमान बढ़ने और अधिक तीव्रता के साथ बार-बार सूखा पड़ने के संकेत भी मिल रहे हैं.
इतिहास के एक दौर में अपनी आबादी का पेट भरने के लिए भारत को कठिन दौर से गुज़रना पड़ा था. सन् 1943 में, भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान बंगाल में अकाल के कारण 15 लाख से 30 लाख लोगों ने अपनी जानें गँवाई थीं, लेकिन सन् 1947 में, भारत की आज़ादी के बाद, हालाँकि भुखमरी के कारण भारी मात्रा में मौत की खबरों की सूचना नहीं मिली है, फिर भी साठ के दशक के मध्य में लगातार आए दो सूखों के कारण भारत को एक ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा था, जिसमें “सीधे जहाज से लोगों के मुँह तक खाना पहुँचाने” की नौबत आ गई थी. भारत में सूखे के शिकार लोगों को बचाने के लिए अमरीका से पी.एल.480 के अंतर्गत भारी मात्रा में गेहूँ (लगभग 110 लाख टन प्रति वर्ष) का आयात किया गया था, लेकिन इससे भारत को सीख भी मिली थी कि “हर किसी चीज़ का इंतज़ार किया जा सकता है, लेकिन खेती का नहीं.” साठ के दशक के उत्तरार्ध में नॉर्मन बॉर्लोग द्वारा विकसित चमत्कारी बीज के ज़रिये आई प्रसिद्ध “हरित क्रांति” इसकी ही परिणति थी. आज भारत न केवल मूल खाद्यान के संबंध में आत्मनिर्भर है, बल्कि एक शुद्ध निर्यातक देश भी बन गया है. वित्तीय वर्ष 2012-13 से वित्तीय वर्ष 2014-15 तक भारत ने कुल 630 लाख टन अनाज का निर्यात किया और आज भारत चावल का सबसे बड़ा निर्यातक देश है.
दूध भारत का सबसे बड़ा कृषि-पदार्थ है. मूल्य की दृष्टि से इसका उत्पादन, (वित्तीय वर्ष 2017-18 में लगभग 1.8 करोड़ टन) चावल और गेहूँ दोनों के उत्पादन मूल्य से भी अधिक हो गया है. जिस प्रसिद्ध “श्वेत क्रांति” का सूत्रपात सत्तर के दशक के उत्तरार्ध से अस्सी के दशक तक वर्गीज़ कुरियन के नेतृत्व में किया गया था. उनके द्वारा की गयी ऐसी नवोन्मेषी विधि का उपयोग किया गया था, जिसके माध्यम से छोटे-छोटे धारकों से दूध का संग्रह किया जा सके. तत्पश्चात, उस संगृहीत दूध को होमोजेनाइज़ और पॉस्चुराइज़ किया जाता था. उसके पश्चात् दूध को 39 डिग्री फॉरेनहाइट पर डिजाईन करके, 1,200 मील दूर, शहरी क्षेत्रों तक दूध के टैंकरों तक पहुँचाया जाता था और फिर उसका वितरण एक संगठित फुटकर नैटवर्क के माध्यम से किया जाता था.
उसके बाद भारत ने कृषि के अन्य अनेक क्षेत्रों में भी क्रांतियाँ की हैं जैसे नीली क्रांति (मछली पालन), लाल क्रांति (मांस, विशेष रूप से मुर्गी पालन), स्वर्ण क्रांति (फल और सब्जियाँ), और जीन क्रांति (कपास). प्रौद्योगिकी और संस्थाओं द्वारा की गई नवोन्मेषी गतिविधियों के कारण कृषि के क्षेत्र में इन तमाम कृषि-क्रांतियों का सूत्रपात हुआ और इनके कारण ही भारत कृषि-पदार्थों के मामले में शुद्ध निर्यातक देश बन गया, लेकिन विकास की इस प्रक्रिया में जिस बात की कमी रह गई, वह है किसानों के प्रोत्साहन का मुद्दा. जहाँ तक “टनेज” के मुद्दे का सवाल है, इसे फ़िलहाल सुलझा लिया गया है, लेकिन किसानों की आमदनी का सवाल, 90 करोड़ मतदाताओं वाले इस भूमंडल के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश, भारत के मौजूदा चुनाव के सामने मुँह बाये खड़ा है. सत्ता पर आसीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने 2019 के घोषणा पत्र में 2022-23 तक किसानों की आमदनी को दुगुना करने का वायदा किया है. 2018-19 में इन्होंने लगभग 23 प्रमुख खाद्य-पदार्थों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों (MSPs) में वृद्धि की घोषणा करके किसानों की परेशानियों को कम करने का प्रयास किया था, लेकिन अधिकांश खाद्य-पदार्थों के बाज़ार मूल्य, घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्यों (MSPs) से 10-30 प्रतिशत कम ही रहे.
किसानों के असंतोष को भाँपते हुए भाजपा ने उन्हें आश्वासन दिया है कि किसानों के खाते में सीधे आमदनी अंतरित कर दी जाएगी, जिसकी लागत 87,600 करोड़ रुपये ($12.5 बिलियन डॉलर) आएगी, लेकिन यह भी किसानों की आमदनी का मात्र 5 प्रतिशत ही होगा. 2022-23 तक किसानों की आमदनी दुगुनी करने के लिए कृषि-विपणन (agri-marketing) के क्षेत्र में और भी अधिक भारी सुधार करने होंगे.
भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का संचालन कुछ इस तरह से होता है कि जब भी घरेलू बाज़ार में प्याज, गेहूँ या चावल जैसी कृषि-उपज की कीमत में तेज़ी आती है तो उनका निर्यात सीमित हो जाता है. निजी क्षेत्र को भारी मात्रा में इनका भण्डार रखने की अनुमति नहीं है और कभी-कभी तो अनिवार्य वस्तु अधिनियम (ECA), 1955 के ज़रिये अंतर्राज्यीय आवाजाही पर भी रोक लगा दी जाती है. यही कारण है कि निजी क्षेत्र के निवेश के अभाव में कुशल अखिल भारतीय मूल्य श्रृंखला का निर्माण नहीं हो सका है. कृषि उपज व विपणन समिति (APMC) के ज़रिये कृषि-विपणन में और भी प्रतिबंध लग जाते हैं, जिनके कारण किसान अपनी उपज को केवल मंडियों में ही बेच पाते हैं. इन मंडियों पर कमीशन एजेंटों का दखल रहता है और वे अनुचित रूप में मूल्य श्रृंखला के अंतर्गत उपभोक्ता रुपये में अधिक हिस्सा ले लेते हैं. इस प्रकार के प्रतिबंधित व्यापार और विपणन नीतियों के चलते भारत के किसान भारी मात्रा में इनपुट सब्सिडी के बावजूद “शुद्ध कर” के जाल में उलझते रहे हैं. भारत की कृषि नीति से संबंधित 2018 की ओईसीडी-इक्रियर जॉइंट रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया था कि वित्तीय वर्ष 2000-01 से वित्तीय वर्ष 2016-17 के लिए उत्पादक समर्थन अनुमान (PSEs) सकल कृषि-क्षेत्र की प्राप्तियों के मूल्य का माइनस (-) 14.4 प्रतिशत था. यह किसानों के लिए सालाना लगभग 2.65 लाख करोड़ रुपये ($38 बिलियन डॉलर) मूल्य का अंतर्निहित "शुद्ध कर" होता है. इसकी तुलना में चीन ने अपने किसानों को वर्ष 2016 में $212 बिलियन डॉलर की सहायता प्रदान की और ओईसीडी ने एक समूह के रूप में अपने किसानों को प्रति वर्ष $235 बिलियन डॉलर की सहायता प्रदान की. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत की खाद्य और कृषि-नीतियों का भारी झुकाव अपने उपभोक्ताओं के प्रति है और अपने किसानों से वह प्रच्छन्न रूप में अधिक टैक्स वसूल करता है.
इन शोध-परिणामों से यही सबक मिलता है कि अगर भारत अपने नीतिगत ढाँचे में इस तरह से सुधार कर लेता है जिससे कम से कम यह तो सुनिश्चित हो जायेगा कि उपभोक्ताओं के साथ वह “बराबरी का खिलाड़ी” है. तभी भारत के किसानों को अधिक प्रोत्साहन-राशि और अधिक मुनाफ़ा मिल सकेगा. इससे प्रेरित होकर वे बेहतर प्रौद्योगिकी अपना सकेंगे, उनकी उपज में इजाफ़ा होगा और भारत अधिक प्रतिस्पर्धी बन जाएगा. इसके लिए अनिवार्य वस्तु अधिनियम (ECA), कृषि उपज व विपणन समिति (APMC) के अधिनियम और निर्यात नीति आदि में बुनियादी सुधार करने होंगे. अगर भारत इन उपायों को अपनाता है तभी वह न केवल अपनी आबादी का पेट भर सकेगा बल्कि निर्यात के लिए अधिक अन्न भी पैदा कर सकेगा, लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो भारत को जल्द ही समग्र रूप में अनाज आयात करने का जोखिम उठाना पड़ सकता है.
अप्रैल-मई 2019 के बीच हो रहे मौजूदा चुनाव के शोर-गुल में मुख्य विरोधी दल कांग्रेस ने ज़ाहिर तौर पर आश्वासन दिया है कि वे गरीबी-रेखा से नीचे रहने वाली 20 प्रतिशत आबादी (जिसमें से कई छोटे और सीमांत किसान, पट्टेदार और भूमिहीन खेतिहर-मजदूर होंगे) को सीधे आय के रूप में सहायता देने के साथ-साथ कृषि-विपणन संबंधी सुधार भी लागू कर देंगे. इसकी लागत हर साल 3.6 लाख करोड़ रुपये ($51 बिलियन डॉलर) आ सकती है, लेकिन कृषि-विपणन संबंधी सुधार लागू करने के बारे में भाजपा की नीति कुछ ढुल-मुल ही लगती है, लेकिन उसने भी किसानों को लगभग $12.5 बिलियन डॉलर की सहायता देने का आश्वासन दिया है.
एक बात तो स्पष्ट है कि मई के अंत तक जो भी पार्टी सत्ता में आती है, वह भारत के किसानों को सीधी आय के रूप में सहायता प्रदान करने के लिए कृत-संकल्प है, जिसके कारण भारत कम से कम वर्ष 2030 तक अपनी आबादी का पेट अच्छी तरह से भर सकेगा.
अशोक गुलाटी भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (ICRIER) में कृषि के इनफ़ोसिस चेयर प्रोफ़ेसर हैं और CASI के 2019 के विशिष्ट अंतर्राष्ट्रीय फ़ैलो हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919