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मुझे फ़ोन करें, हो भी सकता है? अमरीका की तालिबान हॉटलाइन और भारत की अफ़गानिस्तान में वापसी

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11/03/2019
चयनिका सक्सेना

अफ़गानिस्तान के संघर्ष को समाप्त करने के प्रयोजन से तालिबान के साथ समझौते को अंतिम रूप देने के लिए नियुक्त अमरीका के विशेष प्रतिनिधि ज़ल्मय खलीलज़ाद द्वारा की गई पहल अनेक प्रकार की पहलों में से एक महत्वपूर्ण पहल है, क्योंकि उन्होंने तालिबान को अमरीका के साथ संपर्क साधने के लिए सीधी हॉटलाइन दे दी है. असल में बात यह है कि अमरीका ने तालिबान को जो सुविधा अब प्रदान की है, वह सुविधा उसने तालिबान को तब भी देने से साफ़ इंकार कर दिया था, जब तालिबान ने अमरीका को यह आश्वासन दिया था कि यदि अमरीका अफ़गानिस्तान में बमबारी रोक दे तो वह ‘ओसामा बिन लादेन की स्थिति में बदलाव लाने के लिए चर्चा में भाग ले सकता है’. सत्रह साल बीतने के बाद तो हालात और भी बिगड़ गए हैं. अब तो कहा जाता है कि तालिबान अफ़गानिस्तान के 70 प्रतिशत हिस्से पर खुले आम आतंकी गतिविधियों में संलग्न है. बस उसने अमरीका को दिया गया एक ही आश्वासन पूरा किया है कि अमरीकी सैनिकों की वापसी सुनिश्चित करने के लिए उसने ‘अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट को अफ़गानिस्तान की धरती पर कदम नहीं रखने दिया है’. अमरीका जितनी जल्दबाज़ी में अपने ‘सैनिकों को वापस बुलाना चाहता है’ उससे यह बात अमरीका (जिम मैटिस के सार्वजनिक इस्तीफ़े को याद करें) और अन्य विदेशी ताकतों से जुड़े हितधारकों की मौजूदा गतिविधियों से मेल नहीं खाती.

अफ़गानिस्तान के संघर्ष को समाप्त करने के प्रयोजन से अफ़गानिस्तान के साथ प्रत्यावर्तन के समझौते को अंतिम रूप देने के लिए नियुक्त अमरीका के विशेष प्रतिनिधि ज़ल्मय खलीलज़ाद द्वारा की गई पहल अनेक प्रकार की पहलों में से एक महत्वपूर्ण पहल है, क्योंकि उन्होंने तालिबान को अमरीका के साथ संपर्क साधने के लिए सीधी हॉटलाइन दे दी है. असल में बात यह है कि अमरीका ने तालिबान को जो सुविधा अब प्रदान की है, वह सुविधा उसने तालिबान को तब भी देने से साफ़ इंकार कर दिया था, जब तालिबान ने अमरीका को यह आश्वासन दिया था कि यदि अमरीका अफ़गानिस्तान में बमबारी रोक दे तो वह ‘ओसामा बिन लादेन की स्थिति में बदलाव लाने के लिए चर्चा में भाग ले सकता है’. सत्रह साल बीतने के बाद तो हालात और भी बिगड़ गए हैं. अब तो कहा जाता है कि तालिबान अफ़गानिस्तान के 70 प्रतिशत हिस्से पर खुले आम आतंकी गतिविधियों में संलग्न है. बस उसने अमरीका को दिया गया एक ही आश्वासन पूरा किया है कि अमरीकी सैनिकों की वापसी सुनिश्चित करने के लिए उसने ‘अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट को अफ़गानिस्तान की धरती पर कदम नहीं रखने दिया है’. अमरीका जितनी जल्दबाज़ी में अपने ‘सैनिकों का प्रत्यावर्तन करना चाहता है’ उससे यह बात अमरीका (जिम मैटिस के सार्वजनिक इस्तीफ़े को याद करें) और अन्य विदेशी ताकतों से जुड़े हितधारकों की मौजूदा गतिविधियों से मेल नहीं खाती.

सबसे पहले तो इन समझौता-वार्ताओं पर सहमति बनानी होगी. खालिज़ाद ने यह स्पष्ट करने के लिए चार महीने लगा दिए कि उसका यह शांति समझौता वापसी के समझौते जैसा नहीं है. यह तालिबान द्वारा खींची गई लाल रेखा से ठीक विपरीत है और इससे यही प्रकट होता है कि ये वार्ताएँ अंतिम नहीं हैं. द स्टेट ऑफ़ द यूनियन को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ट्रम्प हमेशा ही अफ़गानिस्तान से अमरीकी सैनिकों की वापसी की बात करते रहे हैं, लेकिन अपने इस संबोधन में उन्होंने अफ़गानिस्तान में अमरीकी सैनिकों की संख्या को कम करने की बात ही कही है और साथ ही अफ़गानिस्तान में आतंकवाद को खत्म करने पर ज़ोर देने की बात भी उठाई है. इसका अर्थ सचमुच यही है कि अफ़गानिस्तान में अमरीका की मौजूदगी लंबे समय तक रह सकती है.  कार्यकारी रक्षा सचिव पैट्रिक शनाहन ने काबुल के अपने दौरे में कहा कि अफ़गानिस्तान में अमरीकी सैनिकों की संख्या कम करने का कोई आदेश उन्हें राष्ट्रपति ट्रम्प से नहीं मिला है.

इन समझौता-वार्ताओं का दूसरा पहलू है अफ़गानिस्तान की सरकार से विश्वासघात. जहाँ एक ओर शनाहन ने अमरीका के नेतृत्व में चलने वाली वार्ताओं में सभी इरादों और प्रयोजनों के संबंध में काबुल की संभावित भूमिका को लेकर उन्हें फिर से आश्वस्त किया है, वहीं अफ़गानिस्तान की सरकार की भूमिका मात्र एक दर्शक की रह गई है. क्रिकेट स्टेडियम में उसकी भूमिका मैदान में खेलने वाले खिलाड़ी की नहीं, बल्कि भीड़ के बीच खेल देखने वाले उस दर्शक की है, जो कभी-कभी केवल तालियाँ बजाकर खेल में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है. मास्को में इंट्रा अफ़गान संवाद में उसकी गैर-हाज़िरी से इस बात की पुष्टि भी हो गई है.

अपनी ओर से अफ़गान सरकार राष्ट्रवादी तेवर दिखा रही हैं और स्वयं अपने विकल्प सामने रखकर अपनी भूमिका का दावा करने की कोशिश कर रही है. सरकार ने मंत्रिमंडल में अपने पक्ष को स्पष्ट करने के लिए राजनीतिक नियुक्तियों (तालिबान के दो कट्टर विरोधियों को लाकर) का इस्तेमाल किया है. इसी तरह, मैंने सरकार के, विशेष रूप से गनी के वक्तव्य में भी बदलाव देखा है. उन्होंने न केवल तालिबान की विश्वसनीयता पर बल्कि उसकी भूमिका पर भी सवाल उठाया है. उन्होंने यह पूछकर वार्ता की दिशा ही बदलने की कोशिश की है: " अगर (अफ़गान) सरकार वैध नहीं है, तो तालिबान की वैधता कैसे सिद्ध हो गई? " वे नजीबुल्ला की सरकार के साथ अपने अनुभवों की तुलना करने के लिए अतीत का भी खुलकर हवाला दे रहे हैं. उस समय उनसे शांति का वादा किया गया था लेकिन इसके बदले उन्हें बड़े पैमाने पर संघर्ष झेलना पड़ा. अफ़गान सरकार ने लोया जिरगा आयोजित करने की अपनी इच्छा भी व्यक्त की है. ऐसा लगता है कि अपने इस प्रयास से वे देश की वैधता को फिर से हसिल करना चाहते हैं.

इन कोशिशों का नतीजा क्या निकलता है, देखना अभी बाकी है. ऊपर से देखने पर तो लगता है कि इससे अमरीकी खेमे में कोई हलचल दिखाई नहीं दी. इसके बजाय ऐसी हरकतों को कड़वी और क्रुद्ध प्रतिक्रियाओं और शांति के मार्ग में बाधाओं के रूप में ही देखा गया. ऐसे हालात में तालिबान बहुत होशियारी से जोड़-तोड़ में लगा है. उन्होंने 25 फ़रवरी, 2019 को दोहा में अमरीकी वार्ताकारों के साथ हुई आधिकारिक वार्ता में यह घोषणा भी कर दी थी कि मारे गए आतंकी नेता जलालुद्दीन हक्कानी के बेटे और इस समय अफ़गानिस्तान की जेल में कैद अनास हक्कान को आधिकारिक वार्ता-दल में शामिल किया जाएगा. लेकिन अंतिम वार्ता में उसे शामिल नहीं किया जा सका, क्योंकि हक्कानी के बेटे को “शांति बहाल करने की आड़ में” भी अफ़गान सरकार ने जेल से रिहा करने से इंकार कर दिया. लेकिन सरकार अपने इस इंकार को भी किसी के गले नहीं उतार पाई, फिर भी अपनी मंशा के अनुसार वार्ता की मेज़ पर भारी दबाव तो बना ही दिया. जहाँ तक तालिबान का प्रश्न है, उसने तो मात्र हालात को भाँपने के लिए चारा डाला था और अब वह घानी की टीम की नज़रों के सामने ही अमरीका से सीधी वार्ता कर रहा है.

भारत की अफ़गानी मामलों में वापसी
हाल ही में अफ़गानिस्तान में भारत की भूमिका को ट्रम्प ने न केवल स्वयं नकार दिया, बल्कि उसके योगदान की भी अनदेखी की. यह उल्लेखनीय है कि भारत अफ़गानिस्तान में दक्षिण एशिया का सबसे अधिक योगदान करने वाला देश है. भारत ने अब तक अफ़गानिस्तान में $3 बिलियन डॉलर का योगदान किया है. अफ़गानिस्तान के विकास के लिए इतनी बड़ी सहायता देने के बाद भी अफ़गानिस्तान के निर्माण में क्षेत्रीय सहमति बनाने में उसकी कोई भूमिका नहीं है.

जनवरी, 2019 में खलीलज़ाद कई बार नई दिल्ली आते-जाते रहे, लेकिन इन तमाम दौरों का कोई ठोस नतीज़ा नहीं निकला. अफ़गानिस्तान में ‘स्थायी शांति बहाल करने के लिए भारत-अमरीकी दीर्घकालीन प्रतिबद्धता’ पर उनके बार-बार ट्वीट करने का भी कोई खास मतलब नहीं था. वस्तुतः फ़रवरी, 2019 के अंत में वार्ता-प्रक्रिया की शुरुआत और उसके बाद उस क्षेत्र में खलीलज़ाद के अनेक दौरों के बावजूद भी भारत को फिर से कोई महत्व मिलने की संभावना नहीं है. लेकिन लगता है कि इससे कई हितधारकों (या किसी एक हितधारक?) को भी कोई खास फ़र्क नहीं पड़ेगा.

पाकिस्तान लगातार दावा करता रहता है कि अफ़गानिस्तान में भारत की कोई भूमिका नहीं है; लगता है, नैटो की भी सोच यही हो गई है. नैटो के राजनीतिक मामलों और सुरक्षा नीति के महासचिव एलेजांद्रो अल्वारगोंज़ ने कहा था कि अगर भारत की अफ़गानिस्तान में कोई खास भूमिका है तो ‘हज़ारों और भी देश’ हैं, जो अपनी भूमिका का दावा कर सकते हैं. लगता है अल्वारगोंज़ का कहना यही है कि चूँकि पाकिस्तान वार्ता में शामिल है, इसलिए भारत को उसमें शामिल करने का कोई मतलब नहीं है.

भारत के लिए अफ़गानिस्तान से जुड़ी दुविधा का पूरा चक्र घूम चुका है. अतीत में भी उसकी अनदेखी हुई, फिर भी वह अफ़गान सरकार के साथ सहयोग करता रहा. अफ़गानिस्तान के संबंध में भारत की नीति अफ़गानी नेतृत्व, अफ़गानी स्वामित्व और अफ़गानियों की निगरानी में ही वहाँ शांति प्रक्रिया चलाने की रही है. भारत के इस आग्रह का रणनीतिक मतलब यही रहा है कि सभी वार्ताओं में उसकी अनदेखी की जाती रही है और प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में उसे अक्सर बताया जाता रहा है कि ‘शामिल बाजे’ में ढपली बजाने जैसी ही भारत की भूमिका हो सकती है. लेकिन अब भारत में भी इस नीति के बाबत कुछ हलचल होने लगी है और अब यह देखना बाकी है कि भारत अफ़गानिस्तान के संदर्भ में, खास तौर पर पाकिस्तान के साथ बढ़ते तनाव को देखते हुए अपनी नीति में क्या संशोधन करता है.

एक तरह से मास्को की परामर्श-वार्ता में भारत के भाग लेने और अनधिकृत रूप में तालिबान के साथ मेज़ साझा करने का निर्णय लूप में बने रहने का उसका प्रयास ही लगता है. फिर भी “समावेशी” शांति समझौते में उसकी दिलचस्पी से पता चलता है कि भारत को तालिबान के साथ आधिकारिक रूप में संवाद करने में इस कारण से भी संकोच होता है क्योंकि वह मानता है कि इस प्रकार का संवाद तब तक निरर्थक रहेगा, जब तक अफ़गानिस्तान सरकार स्वयं आगे बढ़कर इस दिशा में पहल नहीं करती. अंततः वह हमेशा किसी ऐसे समझौते का ही समर्थन करता रहा है जो पूरी तरह से अफ़गानी हो. यही कारण है कि इस वार्ता में भारत की रणनीतिक पहल अनिवार्यतः इस बात पर निर्भर है कि अफ़गानिस्तान क्या करता है और क्या नहीं करता है.  

भारत की इस दुविधा को भाँपते हुए ही अफ़गानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हमीद करज़ई ने इस जटिल समस्या से निकलने का एक रास्ता सुझाया है. उन्होंने कहा कि अगर भारत अफ़गानी लोगों की ओर से तालिबान से बातचीत करना चाहता है और मध्यस्थता करना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है, क्योंकि भारत अफ़गानिस्तान और अफ़गानी लोगों का दोस्त है. तालिबानी भी अफ़गानी हैं और चूँकि भारत पहले से ही अन्य अफ़गानी लोगों और सामाजिक समुदायों के साथ संपर्क में है तो तालिबान के साथ संपर्क क्यों नहीं कर सकता? “भारत को चाहिए कि वह अफ़गानिस्तान को उसकी समग्रता में देखे और उसका समर्थन करे.” और तालिबान भी आखिर अफ़गानी ही हैं. उन्हें पीछे नहीं छोड़ा जा सकता. असल में तेहरान ने तो आगे बढ़कर बयान भी दिया है कि अगर भारत तालिबान से बात करना चाहता है तो वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकता है.

भारत यह बात मानकर उस रास्ते पर चलता है या नहीं, यह अनेक पहलुओं पर निर्भर करता है, क्योंकि दुर्भाग्यवश इनमें से अधिकांश पहलू उसके बस में नहीं हैं. व्यावहारिक राजनीति कहती है कि भारत को सभी विकल्प खुले रखने में संकोच नहीं करना चाहिए. इसका मतलब यह नहीं है कि भारत अपनी नैतिक प्रतिबद्धताओं से पीछे हटे या अपनी अन्य रणनीतिक अपेक्षाओं में फेर-बदल करे. यह समय है अपनी सोच और भाषा को बदलने का. करज़ई ने इसे बहुत ही नपे-तुले ढंग से कहा है, “भारत को चाहिए कि वह अफ़गानिस्तान को उसकी समग्रता में देखे और उसका समर्थन करे.” और तालिबान भी आखिर अफ़गानी ही हैं. उन्हें पीछे नहीं छोड़ा जा सकता.

चयनिका सक्सेना प्रैज़िडेट की ग्रैजुएट फ़ैलो हैं और नैशनल युनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर (NUS) के भूगोल विभाग में डॉक्टरेट की प्रत्याशी हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919