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संक्रमण के दौर में भारत (India in Transition)

ऐर्न्ट माइकल
09/03/2015

26 मई, 2014 को नरेंद्र मोदी ने सार्क देशों के सभी प्रमुख अध्यक्षों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया था. यह एक ऐसा महत्वपू्र्ण संकेत हो सकता था जिससे कि दक्षिण एशिया में खास तौर पर द्विपक्षीय स्तर पर क्षेत्रीय सहयोग की नई शुरूआत हो सके. सन् 1985 से भारत ने चार क्षेत्रीय पहल करने में संस्थापक सदस्य की भूमिका का निर्वाह किया था, लेकिन इनमें से किसी भी पहल का कोई ठोस परिणाम नहीं निकला.

कार्तिक नचियप्पन
23/02/2015

राष्ट्रपति ओबामा ने हाल ही में अपनी भारत यात्रा के अंतिम दिन प्रधानमंत्री मोदी के साथ एक रेडियो प्रसारण की रिकॉर्डिंग की थी. अपने इस रेडियो प्रसारण में ओबामा ने इच्छा व्यक्त की थी कि वह राष्ट्रपति के रूप में अपना कार्यकाल समाप्त करने के बाद भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर काम करना चाहेंगे. इस संदर्भ में उन्होंने मोटापे का खास तौर पर उल्लेख किया, क्योंकि यह एक ऐसी चुनौती है जो दुनिया-भर में तेज़ी से फैल रही है.

राधिका खोसला
09/02/2015

जलवायु परिवर्तन के संबंध में दिसंबर 2015 में प्रस्तावित संयुक्त राष्ट्रसंघ की शिखर वार्ता के संभावित परिणामों को लेकर सारी दुनिया में और भारत में भी अनेक अनुमान लगाये जा रहे हैं. उसकी तैयारी के लिए प्रत्येक देश को इस वर्ष के अंत तक शिखर वार्ता से काफ़ी पहले INDC अर्थात् राष्ट्रीय तौर पर अपेक्षित निर्धारित योगदानपर अपना पक्ष प्रस्तुत करना होगा. अमरीका-भारत के वर्तमान संबंधों के महत्व को देखते हुए जलवायु परिवर्तन के संबंध में भारत की प्रतिक्रिया को इसमें प्राथमिकता मिल सकती है.

शिबानी घोष
26/01/2015

भारत में पर्यावरण को व्यवस्थित करने का काम लगातार बेहद मुश्किल और पेचीदा होता जा रहा है. वायु, जल और वन का आच्छादन कुछ ऐसे महत्वपूर्ण संकेतक हैं जिनमें पर्यावरण की गुणवत्ता में तेज़ी से गिरावट आ रही है. साथ ही “विकास के एजेंडा” को सुगम बनाने के लिए विनियामक लचीलेपन की भी ज़रूरत महसूस की जा रही है.  अनेक हितधारकों ने अक्सर विनियामक और संस्थागत सुधारों की बात उठाई है, हालाँकि इसमें उनके व्यापक और अलग-अलग हित भी हो सकते हैं. पर्यावरण संबंधी विनियामकों की असफलता का एक अंतर्निहित कारण सरकार की तदर्थ नीतियाँ भी हो सकती हैं.

स्वप्ना कोना नायुडु
12/01/2015

सन् 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद भारत में रूसी हितों की वृद्धि होती रही है. सन् 1955 में ही ख्रुश्चेव और बुल्गानिन ने तीसरी वैश्विक नीति की शुरुआत की जिसके कारण ये दोनों नेता भारत आए और नेहरू भी मास्को पहुँचे. इसी वर्ष में एशियाई और अफ्रीकी देशों का इंडोनेशिया में बांडुंग सम्मेलन हुआ, जिसे रूसी समाचार पत्रों ने “इस युग की एक विशेष घटना”  बताया.  भारतीय पक्ष इस बात को लेकर बहुत उत्साहित था कि स्टालिन के उत्तराधिकारियों ने उसके “भारत के धूमिल चित्र” को नकार दिया है. शीत युद्ध के दौरान, इन संबंधों में गिरावट आने के बजाय निरंतरता ही बनी रही.

अभिरूप मुखोपाध्याय
29/12/2014

क्या नरेगा पर संकट गहरा रहा है या यह मरणासन्न स्थिति में अंतिम साँसें गिन रहा है? वर्ष 2010-11 में इसका बजट 401बिलियन रुपये था, जो 2013-2014 में घटकर 330 बिलियन रुपये रह गया. हाल ही में कामगारों के लिए घोषित अधिक मज़दूरी के कारण नरेगा पर मामूली-सा असर पड़ा है. सरकारी अधिकारियों (और अनेक अर्थशास्त्रियों) को लगता है कि नरेगा में अब कामगारों की सामान्यतः रुचि नहीं रह गई है.

ऋषिका चौहान
15/12/2014

पिछले सप्ताह रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतीन और मीडिया को संबोधित करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “वैश्विक राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का चरित्र बदल रहा है, लेकिन इस रिश्ते का विशेष महत्व है और भारत की विदेश नीति में इसके विशिष्ट स्थान में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता.

अक्षय मंगला
01/12/2014

भारतीय संघ में जवाबदेही के एहसास को बढ़ाने की कोशिश के रूप में प्रधान मंत्री मोदी ने सरकारी कर्मचारियों की उपस्थिति की निगरानी के लिए एक नई निगरानी प्रणाली की शुरुआत की है. बायोमैट्रिक उपस्थिति प्रणाली सरकार के “डिजिटल भारत” प्रोग्राम का ही एक हिस्सा है. इसके अंतर्गत कर्मचारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे दफ़्तर में आने और बाहर जाने के समय को रिकॉर्ड करने के लिए अपनी उंगलियों के निशान और “आधार” से जुड़े हुए अपने विशिष्ट पहचान नं. को इस पर अंकित कर दें.

रोहन मुखर्जी
17/11/2014

हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित लेख में पंकज मिश्र ने आधुनिक हिंदू भारतीय मानसिकता को “उत्पीड़न और अंधराष्ट्रीयता” के रंग भरकर दिखाने की कोशिश की है और यह तर्क दिया है कि “बहुत बड़े इलाके में फैले हुए और पूरी तरह से वैश्विक मध्यमवर्गीय हिंदू समुदाय के अनेक महत्वाकांक्षी सदस्य गोरे पश्चिमी लोगों की तुलना में ऊँची हैसियत की अपनी माँग को लेकर कुंठित महसूस करने लगे हैं.” मिश्र का यह विवादित बयान न केवल समकालीन राजनीति को समझने के लिए बहुत उपयुक्त है बल्कि इसमें भारतीय मानसिकता के उन तत्वों को भी उजागर किया गया है जो भारतीय मानस में रचे-बसे हैं.

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अदनान फ़ारूक़ी और ईश्वरन श्रीधरन
03/11/2014

सन् 2014 से पूर्व भारत में लगातार (1989 से 2009 तक ) सात ऐसे चुनाव हुए, जिनमें किसी भी एक दल को लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिला. इसके फलस्वरूप अल्पसंख्यक सरकारें बनीं. इनमें वे ढुलमुल अल्पसंख्यक सरकारें भी थीं, जो बाहरी समर्थन पर निर्भर थीं.