UNFCCC अर्थात् जलवायु परिवर्तन संबंधी संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के पक्षकार सम्मेलन (COP) में अपने देश के कोयले के उपयोग की गहन समीक्षा लगातार बढ़ती जा रही है. पिछले कुछ वर्षों में पक्षकारों के सम्मेलनों में बढ़ा-चढ़ाकर और शब्दाडंबर से पूर्ण और उम्मीद से कहीं कम नतीजे रहे हैं. ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट नहीं है कि नतीजे ज़मीनी हकीकत से कितने जुड़े होंगे. भारत के ऊर्जा-मिश्रण का निर्धारण मुख्यतः घरेलू कारणों से ही होता है, लेकिन इस प्रकार के वार्षिक बहुपक्षीय सम्मेलनों से आत्मनिरीक्षण का अवसर ज़रूर मिलता है.
नकारात्मक दीर्घकालीन परिणामों (स्थानीय और वैश्विक) के प्रमाणित होने के बाद वस्तुतः भारत अपने कोला उद्योग की सफ़ाई के लिए कर क्या रहा है ? भारत अपने कोयला क्षेत्र को सुधारने और कोयले के उपयोग से संबंधित उत्सर्जन को सीमित करने की अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट करने के लिए क्या उपाय कर रहा है और कौन-सी पहल कर रहा है ?
कुछ दुष्प्रचार भी हो रहा है, जिससे निपटने की नितांत आवश्यकता है. सबसे पहली बात तो यह है कि भारत उन थोड़े-से देशों में नहीं है जिनके यहाँ कोयले की खपत में लगातार वृद्धि हो रही है. अधिकांश बड़े और विकासशील एवं कुछ विकसित देश ऐसे भी हैं जहाँ बीसवीं सदी के आरंभ से ही कोयले का उपयोग एक बार फिर से होना शुरू हो गया है. दूसरी बात यह है कि कार्बन अवशोषण और पृथक्करण (CCS) संबंधी प्रौद्योगिकियाँ अभी प्रामाणिक सिद्ध नहीं हो पाई हैं और वित्तीय रूप में सक्षम होने में अभी उन्हें कई दशक लग सकते हैं. भारत में अभी कार्बन अवशोषण और पृथक्करण (CCS) की कोई योजना भी नहीं चल रही है, लेकिन व्यापक प्रौद्योगिकी हस्तांतरण या वित्तीय विकल्प न होने के कारण इस बात की भी संभावना नहीं है कि कार्बन अवशोषण और पृथक्करण (CCS) भारत में जल्द ही किसी ऊँचाई तक पहुँच पाएगा और इसमें समझदारी से रणनीतिक निवेश करने की भी आवश्यकता है. अंततः भारत का ऊर्जा मिश्रण 15-20 वर्ष के समय-मान में गत्यात्मक रूप में गैर-कोयला विकल्प की ओर भी बढ़ने में सक्षम नहीं है. भारत को अपनी ऊर्जा-प्रणाली की अधिकतर ऊर्जा के लिए दीर्घकालीन योजना के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा और गैर जीवाश्म ईंधन के संक्रमण की ओर बढ़ना चाहिए, लेकिन नवीकरणीय ऊर्जा के स्वर्णिम युग में पहुँचने के लिए हमें कई दशक लग सकते हैं. भारत के प्राथमिक ऊर्जा मिश्रण की कुल प्रवृत्तियों को देखते हुए पिछले 10-15 वर्षों में प्राकृतिक गैस की खपत की वृद्धि में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात कदाचित् यही है, लेकिन अभी-भी भारत की कुल प्राथमिक खपत में प्राकृतिक गैस का अंश 10 प्रतिशत से भी कम है. इस प्रकार बिजली और अन्य उद्योगों में कोयला निवेश के स्टॉक को देखते हुए भारत में मध्यावधि में कोयला ही ऊर्जा का प्रमुख स्रोत रहेगा, भले ही वह अन्य स्रोतों की ओर संक्रमण करने के लिए कितना भी निवेश क्यों न करे.
ऐसी स्थिति में भारत के कोयला क्षेत्र को समझने और उसकी आपूर्ति श्रृंखला को और कोयले के डाउनस्ट्रीम उपयोग की कुशलताओं में सुधार लाने के लिए और अधिक अनुसंधान करना होगा. सौभाग्यवश इस मोर्चे पर कुछ आकर्षक विकल्प भी मौजूद हैं.
पहला विकल्प है कोयले की वाशिंग. कोयले की वाशिंग, बैनिफ़िशिएशन या तैयारी एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें भौतिक पृथक्करण के माध्यम से ऐश कॉन्टेंट को घटाया जाता है. औसतन भारतीय कोयले में 40 प्रतिशत ऐश होती है, जो कोयला ताप विद्युत घरों में कोयले को कुशलता से जलाने के लिए उपयुक्त 25-30 प्रतिशत से कहीं अधिक है. ऐश को जलाने से ज्वलन अधूरा ही हो पाता है, जिसके कारण आवश्यकता से बहुत अधिक मात्रा में हवाई अपशिष्ट रिलीज़ होता है. इसके अलावा, चूँकि भारत के अधिकांश कोयले की वाशिंग नहीं हो पाती, इसलिए अनावश्यक रूप में बहुत अधिक मात्रा में ऐश (लगभग 30-40 प्रतिशत अतिरिक्त वजन के साथ) की ढुलाई की जाती है, जिसे टाला जा सकता था, अगर परिवहन से पहले खदान निकास के नज़दीक ही कोयले की वाशिंग कर ली जाती.
यद्यपि इस्पात उद्योग के लिए कोयले की वाशिंग बहुत ज़रूरी है, फिर भी भारत के विद्युत संयंत्रों के लिए मध्यवर्ती गतिविधि के रूप में अभी तक इसकी शुरुआत भी नहीं हुई है. इसका कारण है कानूनी और कीमतों की मिली-जुली बाधाएँ जिनके कारण कोयले की वाशिंग का कारोबार बहुत आकर्षक नहीं रह गया है. चूँकि कोयले की वाशिंग कोयला खनन राष्ट्रीयकरण अधिनियम में अंतिम उपयोग के रूप में निर्दिष्ट नहीं थी,इसलिए 1993 से पूर्व केवल कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) को ही कोयले की वाशिंग की अनुमति प्राप्त थी. कोयले के अलग-अलग ग्रेड के बीच कीमत की भिन्नता वाशिंग की आर्थिक लागत से कम थी. यही कारण है कि कोयले के वाशिंग कारोबार में प्रवेश के लिए कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) का अधिकतम लाभ वाला भाग कभी-भी इच्छुक नहीं था. परंतु इस अनिच्छा के बावजूद भी कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) भारतीय कोयले की खराब गुणवत्ता के कारण अपने उत्पाद के 10-15 प्रतिशत कोयले की वाशिंग कर ही लेता था और अभी हाल ही में पर्यावरण व वन मंत्रालय (MoEF) के दिशा-निर्देशों में प्रावधान किया गया है कि 1000 कि.मी. से अधिक ढुलाई करने पर ऐश कॉन्टेंट के 34 प्रतिशत भाग की वाशिंग करना अनिवार्य होगा. हाल ही में कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) निजी ठेकेदारों के लिए वाशरीज़ की बोली लगाता रहा है, जिसके फलस्वरूप वाशिंग उद्योग में निजी ठेकेदारों का थोड़ा-बहुत प्रवेश होने लगा है. दुर्भाग्यवश कोयले की निजी वाशिंग की अब तक कोई खास प्रतिष्ठा नहीं रही है. कोयले के अंतिम उपयोगकर्ता अच्छी तरह से जानते हैं कि कई निजी कोयला वाशिंग कंपनियाँ अपने संबंधों के बल पर ही खानों से बढ़िया कोयला निकाल पाती हैं (अर्थात् कोयले की वाशिंग का काम खुद नहीं करतीं) और कुछ कंपनियों की ख्याति तो इसी बात की है कि वे अपने मकसद को पूरा करने के लिए कोयले को कहीं और भिजवा देते हैं. इसके परिणामस्वरूप कोयले की वाशिंग निचले स्तर के संतुलन में ही फँसकर रह गई है. विद्युत् संय़ंत्र की कुशलता, उत्सर्जन और ढुलाई की लागत में कमी जैसे अनेक फ़ायदों के बावजूद कोयले की वाशिंग में बहुत-सी बाधाएँ आती हैं. फिर भी इसे प्रोत्साहन दिये जाने की बेहद आवश्यकता है.
जिस दूसरे विषय पर बहुत ध्यान देने की ज़रूरत है, वह है, घरेलू सुपर क्रिटिकल ब्रॉयलर डिज़ाइन. राष्ट्रीय स्वच्छ कोयला मिशन के तहत ऐसे ब्रॉयलर बनाने की क्षमता विकसित करने के लिए भारतीय और विदेशी कंपनियों के बीच कुछ सहयोगकर्ताओं को नियोजित किया गया था, ताकि सुपर क्रिटिकल अवस्थाओं में भी वे कार्य कर सकें. सुपर क्रिटिकल ब्रॉयलर परंपरागत ब्रॉयलरों की तुलना में कहीं बेहतर हैं, कुशलतापूर्वक ज्वलन के नतीजे देते हैं और अपशिष्ट ऊष्मा भी कम निकलती है. सुपर क्रिटिकल ब्रॉयलरों का उत्सर्जन भी कम होता है और संयंत्र के जीवन-काल में उसके संचालन की लागत भी कम आती है. यही कारण है कि इसका प्रस्ताव आकर्षक लगता है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें खरीदना सस्ता नहीं पड़ता. भारत के पहले चालू किये गये सुपर क्रिटिकल ब्रॉयलर का निर्माण मुंध्रा में अडानी ने किया था, जिसने अपने सुपर क्रिटिकल ब्रॉयलर चीनी सप्लायरों से खरीदे थे. जहाँ एक ओर भेल ने हाल ही में बिहार में लगने वाले एनटीपीसी के अपने एक संयंत्र के लिए सुपर क्रिटिकल ब्रॉयलर का निर्माण किया था, वहीं वर्तमान में नियोजित बहुत-से विद्युत् संयंत्र अपने संयंत्रों मॆं सुपर क्रिटिकल ब्रॉयलर लगाते ही नहीं. कुछ हद तक समस्या यह भी है कि कम गुणवत्ता वाले भारतीय कोयले के साथ सुपर क्रिटिकल ऑपरेशन के लिए अपेक्षित उच्च ताप की दरों का रख-रखाव बहुत मुश्किल पड़ता है. कोयले की वाशिंग से इस समस्या से निबटने में मदद मिल सकती है, लेकिन यह भी आवश्यक है कि भारतीय कोयले के अनुरूप बॉयलर के डिज़ाइन को भी अनुकूलित किया जाए. इसे साकार करने के लिए भेल और अन्य निर्माताओं को आगे आना होगा.
अंततः कोयले की ढुलाई और कोयले के संयंत्रों का स्थान-चयन करने की शाश्वत समस्या अभी-भी मुँह बाये खड़ी है. स्थान-चयन करने के लिए शुरुआती तर्क तो यही है कि ढुलाई के खर्च को कम करने के लिए इसे कोयले के भंडार के पास ही लगाया जाए, लेकिन कई कारणों से यह हमेशा संभव नहीं हो पाता. इनमें एक कारण तो यही है कि कोयले वाले राज्य भारी निवेश का वातावरण नहीं बना पाते, उनके राज्य बिजली बोर्ड (जो राज्य स्तर पर भी बिजनी उत्पादन की परिसंपत्तियों का निर्माण करने में अक्षम होते हैं) अपेक्षाकृत निष्प्रभावी होते हैं और इस प्रकार भाड़ा समीकरण संबंधी नीतियों का लाभ नहीं उठा पाते. बिहार, झारखंड और प. बंगाल में चलने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश संयंत्र वही हैं, जिनका संचालन केंद्रीय स्तर के पीएसयू द्वारा किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप गाडगिल फ़ॉर्मले के अनुसार गृहराज्यों को बिजली का कम आबंटन हो पाता है.
राष्ट्रीय स्तर के बिजली के संयंत्रों के परिणामी भूगोल के कारण कोयले की ढुलाई के बेहद निष्प्रभावी उपाय सामने आये हैं. भारत में बिजली के संयंत्रों तक कोयले की 20 प्रतिशत ढुलाई सड़क-मार्ग से की जाती है, जिसकी कुशलता रेलवे के संचलन की तुलना में बहुत कम होती है. कोयला-क्षेत्र और बिजली के संयंत्रों के बीच कोयले की ढुलाई करने वाले माल डिब्बों की निर्बाध आवाजाही का सबसे आदर्श तरीका तो बॉटम-ओपनिंग टैक्नोलॉजी पर ही आधारित है, ताकि कोयले को उतारने के लिए उन्हें रुकने की ज़रूरत ही न पड़े, लेकिन अभी तक भारतीय रेलवे में यात्री और भाड़ा यातायात के समानांतर भीड़-भाड़ के कारण यह अभी तक संभव नहीं हो पाया है. कुछ स्थानों पर खदान-निकास और बिजली के संयंत्रों के बीच सुचारू रूप में होने वाली विशेष आवाजाही भी होती है, लेकिन ऐसी आवाजाही बहुत-ही कम होती है. वस्तुतः प्रभावी बिजली की अवसंरचना के लिए भारत को चाहिए कि वह कोयले की कम, लेकिन बिजली की आवाजाही अधिक करे. बीस वर्ष पहले तो यह सचमुच कठिन था, क्योंकि क्षेत्रीय बिजली के बाज़ार आपस में संबद्ध नहीं थे, लेकिन अब अंतरक्षेत्रीय पारेषण नैटवर्क बन जाने और बिजली के बाज़ार विकसित होने के कारण यह बाधा खत्म हो गई है. अब राज्यों के बीच व्हीलिंग प्लांट होने के कारण भौतिक और वित्तीय दोनों ही दृष्टियों से यह संभव है. उच्च स्तर का समन्वय बहुत आसान हो गया है, लेकिन इसके लिए रेलवे और बिजली अवसंरचना योजना के बीच कुछ हद तक समन्वय रखना आवश्यक है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत कमज़ोर हो गया है. हाल ही में कोल इंडिया द्वारा जो डैडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर बनाया गया है और रेल अवसंरचना के लिए निवेश किया गया है, उसके कारण स्थिति में बदलाव आ सकता है.
ऊर्जा के अधिक कुशल होने और उत्सर्जन की कमी के कारण इन तीनों उपायों पर विचार करते हुए यह अपरिहार्य वास्तविकता भी हमारे सामने आती है कि यथास्थिति की तुलना में ये अधिक महँगा पड़ेंगे. इसका मतलब यह होगा कि कोयला अधिक महँगा पड़ेगा, जिसके कारण बिजली भी महंगी हो जाएगी, लेकिन किस हद तक इजाफ़ा होगा इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता. डाउनस्ट्रीम कीमतों के बिना, ऐसे निवेशों को प्रोत्साहन देने के संकेत, कोयले की वाशिंग की माँग, सुपरक्रिटिकल बॉयलर या संयंत्र का अधिक बेहतर स्थान और कोयले की ढुलाई कभी नहीं हो पाएगी. वितरण कंपनियों की वर्तमान आर्थिक स्थिति को देखते हुए ये उपाय सचाई से कोसों दूर ही नज़र आते हैं. इस दिशा में कुछ प्रयास करने से घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों को काफ़ी लाभ मिल सकता है.
रोहित चंद्रा कैनेडी स्कूल ऑफ़ गवर्नमैंट, हार्वर्ड विवि में डॉक्टरेट के विद्यार्थी हैं.. उनसे rchandra@fas.harvard.edu पर संपर्क किया जा सकता है.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919