भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति-निर्माण में परंपरागत रूप में केंद्रीय रणनीतिक योजना की कमी रही हैः जैसे संगठित प्रक्रिया, दीर्घकालीन लक्ष्य निर्धारित करके असैन्य और सैन्य संस्थानों में खरीद और पूर्णता के प्रयास के ज़रिये पूरी तरह से समन्वय लाना. इसके बजाय रक्षा नीति संबंधी गतिविधियों में मुख्यतः खरीद की इच्छा-सूचियों का संग्रह ही होता है. तीनों सैन्य सेवाओं द्वारा मुख्य रूप से प्रधान मंत्री द्वारा समय-समय पर शुरू की गई पहल के साथ-साथ ये सूचियाँ अलग-अलग प्रस्तुत की जाती हैं. हाल ही के उदाहरणों में प्रधानमंत्री का वह निर्णय भी शामिल है, जिसमें रक्षा परियोजनाओं में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) 49 प्रतिशत तक अधिकतम बढ़ाना भी शामिल है. अपने इस निर्णय के बारे में उन्होंने चुनाव से पहले यह घोषणा की थी कि रैफ़ेल लड़ाकू जैट को रक्षा मंत्रालय की सामान्य निविदा प्रक्रिया से हटा दिया जाए. यह एक ऐसा कदम है, जिसके लिए प्रधान मंत्री के नेतृत्व में राजनैतिक उठा-पटक की आवश्यकता होती है और मोदी ने भारत में रक्षा निर्माण का बेस बनाने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर लॉकहीड मार्टिन के लिए लॉबिंग की है. भारत की विदेश और सुरक्षा नीति के सभी तत्वों में राजनैतिक लक्ष्यों और तदनुसार संसाधन जुटाने में स्पष्टता लाने के लिए वर्तमान सुरक्षा नीति में सुधार लाना आवश्यक है.
भारत के रक्षा विशेषज्ञ कई दशकों से वर्तमान प्रणाली में सुधार लाने की माँग करते रहे हैं. नीति निर्माण के ढाँचे के मूल तत्व हैं, तीनों सैन्य सेवाओं में समन्वय की कमी (संयुक्त खरीद और अक्सर खराब रहने वाले अंतःसेवा संप्रेषण का नियोजन और बजट प्रतिस्पर्धा) ; तीनों सेवाओं की ओर से प्रधान मंत्री से बात करने के लिए किसी एक सैन्य प्रमुख रक्षा स्टाफ़ (CDS) की कमी (जिसके कारण बेतरबी और बढ़ जाती है) ; और यही कारण है कि अधिकांशतः गैर-विशेषज्ञ असैन्य अधिकारी हावी रहते हैं.
इस प्रकार की शिथिलता के अनेक उदाहरणों में से एक उदाहरण तो यही है कि कारगिल युद्ध के आरंभिक चरणों में “भारतीय सेना के उच्च अधिकारियों और भारतीय वायुसेना (IAF) के बीच पारदर्शिता की कमी और खुली संवादहीनता” के कारण समग्र प्रणाली ही लगभग चरमरा गई थी. इसके अलावा, भारतीय सेना 1992-97 से केवल 5 प्रतिशत रक्षा कवच ही योजनाबद्ध रूप में प्राप्त कर पाई थी और 1997-2002 से इसमें केवल 10 प्रतिशत इजाफ़ा ही हो पाया था.
मई, 2014 में प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण करने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने इन समस्याओं को समझा और भारत की रक्षा नीति में सुधार लाने की प्रक्रिया शुरू की. मोदी ने रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर के साथ मिलकर खरीद की प्रक्रिया तय करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी. रक्षा मंत्री की अध्यक्षता में रक्षा खरीद परिषद (DAC) का यही प्रयास था कि निवर्तमान सरकार की खरीद की बकाया सभी निविदाओं को निपटा दिया जाए. रक्षा खरीद परिषद (DAC) की प्रत्येक बैठक में अनेक निविदाओं का अनुमोदन करते हुए परिषद ने अगस्त, 2015 तक कुल $22.5 बिलियन डॉलर मूल्य की निविदाओं को निपटा दिया.
सैन्य नियोजन को संयुक्त बनाने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में मोदी सरकार की दिलचस्पी का पता इसी बात से चल जाता है कि उन्होंने हाल ही में नई साइबर, विशेष ऑपरेशन और ऐरोस्पेस (अंतरिक्ष) की तीनों सेवाओं की संयुक्त सेवा कमान बनाने की पुष्टि कर दी है. रक्षा संबंधी मामलों में यह कमान तीनों सेवाओं के लिए एक साथ मिलकर काम करेगी. सरकार प्रमुख रक्षा स्टाफ़ (CDS) की नियुक्ति पर भी विचार कर रही है.
हालाँकि ये कदम उत्साहवर्धक हैं, लेकिन सुसंगत और समन्वित रक्षा नीति की प्रक्रिया को विकसित करने के लिए अभी बहुत कुछ करना शेष है. रक्षा सुधारों की अंतिम सफलता बहुत हद तक इसी बात में है कि मोदी इन मामलों में खुद रुचि ले रहे हैं. मोदी जितना समय और शक्ति इस एजेंडा पर अब तक लगाते रहे हैं, ज़रूरी नहीं है कि सार्वजनिक नीति के अन्य क्षेत्रों पर ध्यान देने की अनेक दैनिक माँगों के कारण आगे भी मोदी इस पर इसी तरह ध्यान दे पाएँगे. इस जोखिम के बावजूद मोदी ने खास तौर पर सरकार के अंदर और बाहर समान विचारधारा वाले सुधारवादियों का एक समुदाय तैयार करने और उसे सुदृढ़ करने के लिए संगठनात्मक रूप में बहुत अधिक नहीं किया है. जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक उनके पद छोड़ने के बाद इस प्रक्रिया को जारी रखना संभव नहीं हो पाएगा.
सरकार के भीतर ही इसी तरह के समुदाय बनाने के लिए कुछ उपाय किये जा सकते हैं, जैसे, सिविल सेवा में भर्ती की मानक प्रणाली के माध्यम से विभिन्न विषयों की सामान्य जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों को ही लेने की परंपरा जारी रखने के बजाय रक्षा मंत्रालय के स्टाफ़ में बाहरी रक्षा विशेषज्ञों को गौण रूप में प्रवेश देना. मोदी ऐसे समुदाय को रक्षा सूचना वर्गीकरण संबंधी कड़े नियमों में ढील देकर सरकार के बाहर ही विकसित कर सकते थे. इसका आशय यही है कि रक्षा सुधार संबंधी कई रिपोर्टें और चीन के साथ हुए 1962 के युद्ध की आधिकारिक समीक्षा आज भी जनता को उपलब्ध नहीं है. इसके कारण सामाजिक रक्षा विशेषज्ञता को विकसित करने में बाधा आ रही है.
हालाँकि दीर्घकालीन उपाय के रूप में तो यह सहायक ही होगा, लेकिन इन उपायों को अपनाने के बाद भी भारत की रक्षा नीति निर्माण में मूलभूत समस्या बनी रहती है और यह समस्या है, समन्वित और निर्देशक केंद्रीय योजना का अभाव, जैसा कि कारगिल और रक्षा कवच संबंधी उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है. ये क्षेत्र ऐसे हैं जिन पर अभी तक मोटे तौर पर विचार भी नहीं किया गया है. इस समस्या को सुलझाने में मदद करने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि रक्षा सुधार प्रक्रिया उनके बल पर कम निर्भर रहे, मोदी सरकार को चाहिए कि वह कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने वाली नियमित रणनीतिक रक्षा समीक्षा प्रक्रिया की पहल करते हुए उसे उचित ढंग से संस्थागत स्वरूप प्रदान करे.
रणनीतिक रक्षा समीक्षा प्रक्रिया में भारत के सामने आने वाली चुनौतियों का नियमित मूल्यांकन किया जाएगा. मूल्यांकन की यह प्रक्रिया कई स्रोतों से अपनाई जएगी. सरकार के अंदर ही राजनैतिक, आसूचना,रक्षा,विदेशी मामलों से संबंधित और सैन्य अधिकारियों के अलावा संसद के अधिकारियों से भी राय ली जाएगी.
इस रणनीतिक रक्षा समीक्षा प्रक्रिया के भाग के रूप में ही रक्षा विशेषज्ञों और सरकार के बाहर रहते हुए भी दिलचस्पी लेने वाले नागरिकों से सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ माँगी जाएँगी. इसकी अनुवर्ती कार्रवाई के रूप में और इस मूल्यांकन के आधार पर सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति उन तमाम मूलभूत राजनैतिक लक्ष्यों पर निर्णय करेगी, जो निर्धारित अवधि में भारत की रक्षा नीति को दिशा-निर्देश प्रदान करेगी.
एक सशक्त राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (NSCS) जैसा केंद्रीय रक्षा योजना निकाय उसके बाद राजनैतिक लक्ष्यों और मूल्यांकन के प्रमुख निष्कर्षों को प्रकाशित करेगा. राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (NSCS) के साथ काम करते हुए सेनाएँ संबंधित प्रमुख रक्षा स्टाफ़ (CDS) के साथ समन्वय करते हुए इन राजनैतिक लक्ष्यों के आधार पर खरीद और बलों की तैनाती की विस्तृत योजनाएँ तैयार करेंगी. हर कुछ साल के बाद यह प्रक्रिया दोहराई जाएगी और रक्षा योजनाओं को समन्वित करने की निरंतर आदत को संस्थागत स्वरूप मिल जाएगा, जिसके फलस्वरूप प्रत्येक भारतीय सुरक्षा एजेंसी, नीति और संसाधन को समान दृष्टिकोण से जोड़ा जा सकेगा.
अब तक कभी-कभार होने वाली एकाध समीक्षाओं के बजाय यह प्रक्रिया दूर तक जाएगी, जिसमें 1990 की अरुण सिंह समिति की रिपोर्ट और नरेश चंद्र समिति की बिल्कुल हाल ही की रिपोर्ट भी शामिल होगी. इन समीक्षाओं में सार्वजनिक इनपुट बहुत ही कम था, जिसके कारण सामाजिक रक्षा विशेषज्ञता को विकसित करने में बाधा आई और यही कारण है कि समीक्षाओं के पूरा होने के बाद सामान्यतः तुरंत ही उन्हें रद्द भी कर दिया गया. हालाँकि मंत्रिसमूह की 2001 की रिपोर्ट की अनुवर्ती कार्रवाई के रूप में रक्षा नीति के ढाँचे में आंशिक परिवर्तन किये गये. खास तौर पर अंतःसेवा समन्वय में सुधार लाने के लिए समन्वित रक्षा स्टाफ़ के निर्माण की प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये, लेकिन आज तक किसी भी समीक्षा के फलस्वरूप उपर्युक्त रक्षा नीति की प्रक्रिया की मूलभूत शिथिलता को सफलतापूर्वक खत्म नहीं किया जा सका.
केवल एक ही तर्क ऐसा है जिसके कारण रणनीतिक रक्षा समीक्षा प्रक्रिया की स्थापना का विरोध किया जा सकता है और वह है 1998 में स्थापित राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मंडल (NSAB) का अस्तित्व, जो इन कुछेक समीक्षाओं के कार्यों का निष्पादन करता रहा है, लेकिन आखिरी मंडल ने जनवरी, 2015 में अपना दो वर्षीय कार्यकाल समाप्त कर दिया है और अभी तक नये मंडल का गठन नहीं किया जा सका है. व्यापक रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मंडल (NSAB) ही एकमात्र सलाहकार संस्था रह गई है. मंडल को न तो औपचारिक रूप में पुनर्गठित करने का अधिकार मिला है और न ही अपनी सिफ़ारिशों को कार्यान्वित करने के लिए नीति निर्माण प्रक्रिया के लिए दिशा-निर्देश दिये गये हैं.
रणनीतिक रक्षा समीक्षा प्रक्रिया लागू होने से रक्षा सुधार के एजेंडा की कई मूलभूत चुनौतियों का सामना करने में मदद मिलेगी. और अधिक सुधारों को लागू करने के लिए समर्पित संस्थागत प्रक्रिया एक इंजन के रूप में मोदी की व्यक्तिगत ऊर्जा का स्थान ले लेगी. सरकार के अंदर और बाहर समान विचार-धारा रखने वाले सुधारवादी लोगों के हाथ तभी मज़बूत होंगे जब उन्हें समीक्षा प्रक्रिया में भाग लेने का मौका मिलेगा. स्पष्ट राजनैतिक लक्ष्य होने पर ही पूर्व-निर्धारित केंद्रीय योजना के माध्यम से खरीद की प्राथमिकताओं पर भी निर्णय किया जा सकेगा. अन्य परिणामों के बीच वर्तमान नीति निर्माण प्रक्रिया योजनाबद्ध रूप में उपकरणों की आवश्यकता की पूर्ति भी नहीं कर पाती और इस प्रकार अंतःसेवा संबंध लचर ही बने रहते हैं जिसके कारण युद्ध के समय भारत की मुकाबले की क्षमता और भी भ्रमित हो जाती है. ऐसे सुधार न होने के कारण यही लचर प्रणाली चुनौतियों का सामना करने में भारत की रक्षा क्षमता को न केवल सीमित कर देती है, बल्कि एक महाशक्ति के रूप में उभरने के अवसर भी सीमित कर देती है.
फ्रैंक ओ’डॉनेलप्लाईमाउथ विवि में रणनीतिक अध्ययन के लेक्चरर हैं. ट्विटर से @Frank11285 पर उनका अनुगमन किया जा सकता है.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919