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संक्रमण के दौर में भारत (India in Transition)

एस. चंद्रशेखर
20/10/2014

पिछले कुछ दशकों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आने-जाने वाले दैनिक यात्रियों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि हुई है. इसमें छोटे-मोटे काम करने वाले कामगारों की सेवा का वह क्षेत्र भी शामिल है जिनके काम का कोई पक्का ठिकाना नहीं होता. ये लोग जोखिम उठाकर भी काम पर जाते हैं और यह मानते हैं कि आप्रवासन अब पुरानी बात हो गई है और दैनिक यात्रा उनके लिए खिलवाड़ बन गई है, लेकिन अब समय आ गया है कि ऐसे श्रमिक जो एक-से अधिक बार कहीं आते-जाते हैं, आप्रवासन-केंद्रिक हो गए हैं.ऐसे आप्रवासियों में दैनिक यात्री भी शामिल हैं. 

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स्टीफ़ैन बैंडर, जॉर्ज हीनिंग, कौशिक कृष्णन्
06/10/2014

इस समय भारत में बेरोज़गारी की दर 9 प्रतिशत है. तथापि  बैचलर डिग्री वाले तीन नागरिकों में से कम से कम एक के पास कोई काम नहीं है. काम करने की उम्र वाली आबादी आज 750 मिलियन से अधिक है, जो सन् 2020 में बढ़कर लगभग एक बिलियन तो हो ही जाएगी. साथ ही कृषि रोज़गार भी घट रहा है. कुल रोज़गार में से कृषि रोज़गार 50 प्रतिशत से भी कम है. ऐसा भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है. बाज़ार के इन्हीं दबावों के कारण श्रमिक वर्ग उच्च कौशल वाले काम-धंधों की ओर बढ़ रहा है. तथापि कॉलेज में शिक्षित भारतीय युवाओं के पास इन कामों के लिए अपेक्षित कौशल ही नहीं है.

राहुल पंडित
22/09/2014

उत्तर भारतीय राज्य जम्मू व कश्मीर इस समय भयानक बाढ़ संकट से गुज़र रहा है. कश्मीरी घाटी में बाढ़ से हुई तबाही के कारण अनेक जानें गई हैं और बड़े पैमाने पर संपत्ति नष्ट हो गई है. हालाँकि कई संगठन और लोग बचाव और राहत कार्य में लगे हैं, लेकिन भारतीय सेना की भूमिका अब तक सबसे बड़े रक्षक की रही है. बहुत-से लोगों को लगने लगा है कि कश्मीरी लोग अब भारतीय सेना को अलग नज़रिये से देखने लगे हैं.

प्रीति मान
08/09/2014

भारत में हाल ही में हुए चुनाव पर विचार करते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वैकल्पिक राजनीति के बीज बोये जा चुके हैं, लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि मीडिया के जबर्दस्त समर्थन और दिल्ली में अपनी ऐतिहासिक जीत दर्ज कराने के बावजूद आम आदमी पार्टी के खाते में लोकसभा की केवल चार सीटें ही आईं? मेवात के चश्मे से चुनावों के समाजशास्त्र को समझने की इस कोशिश में इसका एक पहलू उजागर हुआ है.  मेवात पर केंद्रित होते हुए भी ज़रूरी नहीं है कि ये निष्कर्ष इसी क्षेत्र तक ही सीमित हों.

अनुराग मेहरा
25/08/2014

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटीज़) की स्थापना लगभग पाँच दशक पूर्व विज्ञान पर आधारित विकास के प्रति पं. नेहरू की गहरी निष्ठा से प्रेरित नये भारत को पुनर्जीवित करने के लिए उसे प्रौद्योगिकीय नेतृत्व प्रदान करने के उद्देश्य से की गई थी. इन संस्थानों ने भारत को प्रौद्योगिकीय नेतृत्व प्रदान किया या नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है, क्योंकि यहाँ के अधिकांश (अंडर) ग्रैजुएटया तो विदेश चले गए या फिर उन्होंने गैर-तकनीकी कैरियर अपना लिया.

अर्न्ट मिचाएल
11/08/2014

पिछले कुछ वर्षों में जिस परिमाण में उप-सहारा अफ्रीका के साथ भारत के व्यापार में भारी वृद्धि हुई है वह अपने-आप में ही इस बात का प्रमाण है कि उप-सहारा अफ्रीका भारत की नई धुरी है; भारत और उप-सहारा अफ्रीका के बीच सन् 2012 में व्यापार $60 बिलियन डॉलर का हो गया. उसी वर्ष अन्य देशों (योरोपीय संघ ($567.2 बिलियन डॉलर), अमरीका ($446.7 बिलियन डॉलर) और चीन ($220 बिलियन डॉलर) के साथ व्यापार में उल्लेखनीय कमी हुई.

माइकल कोलिन्स
28/07/2014

दो माह पूर्व भारत में इतिहास की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक घटना संपन्न हुई थी. 2014 का आम चुनाव पाँच सप्ताह की अवधि में नौ चरणों में संपन्न हुआ था, जिसमें 16 वीं लोकसभा के लिए 553.8 मिलियन मतदाताओं ने वोट डाले थे. इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड विजय सुर्खियों में बनी रही और चुनाव पर हुए भारी खर्च के मामले से लोगों का ध्यान हट गया. एक अनुमान के अनुसार इस चुनाव में $5 बिलियन डॉलर का खर्च आया, जिसमें से $600 मिलियन डॉलर का खर्च तो सरकारी राजकोष से ही हुआ. हाल का यह चुनाव लोकतंत्र के इतिहास में सबसे महँगा चुनाव साबित हुआ. 

समीर लालवानी
14/07/2014

अपने चुनावी अभियान के दौरान मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने नक्सलवाद के खिलाफ़ खूब जुबानी जंग की थी और नक्सलवाद को कतई बर्दाश्त न करने की रणनीति का ऐलान भी किया था और कुछ लोग तो प्रधानमंत्री मोदी की सरकार से यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि वर्तमान रणनीति को पूरी तरह से बदल दिया जाएगा, लेकिन जिस तरह से उन्होंने इस समस्या को सतही तरीके से हल करने की कोशिश की है उससे इन लोगों को मोदी सरकार से बहुत उम्मीद नहीं करनी चाहिए.

मैगन रीड
30/06/2014

कुछ आप्रवासी लेखकों के अनुमान के अनुसार भारत में मौसमी आप्रवासी मज़दूरों की संख्या 100 मिलियन तक भी हो सकती है. आप्रवासी मज़दूरों को न तो सामाजिक सेवाएँ मिलती हैं और न ही ये लोग शहरी इलाकों में स्थायी तौर पर बस सकते हैं. ऐसे हालात में ये आप्रवासी मज़दूर खास तौर पर खेती-बाड़ी के मौसम में गाँवों में ही रहना पसंद करते हैं. इसके फलस्वरूप वे अपनी मज़दूरी के लिए अपने गाँवों और मज़दूरी के ठिकानों के बीच ही भटकते रहते हैं और पूरे साल के दौरान अधिक से अधिक समय घर के बाहर ही गुज़ारते हैं.

नीलांजन सरकार
16/06/2014

 

2014 के आम चुनाव का अगर शव-परीक्षण किया जाए तो यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि भाजपा ने इस चुनावी मुकाबले में 282 (अर्थात् 52 प्रतिशत) सीटें जीती हैं और उनका वोट शेयर मात्र 31 प्रतिशत रहा है. यदि इस चुनाव से सन् 2009 के चुनाव की तुलना की जाए हो हम पाएँगे कि उस समय कांग्रेस ने उस चुनावी मुकाबले में  206 अर्थात् 38 प्रतिशत सीटें जीती थीं और उनका वोट शेयर मात्र 29 प्रतिशत रहा था. समान वोट शेयर के बावजूद जीती गई सीटों की संख्या में इतना अधिक अंतर क्यों है? इससे क्या अर्थ निकलता है?