26 मई, 2014 को नरेंद्र मोदी ने सार्क देशों के सभी प्रमुख अध्यक्षों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया था. यह एक ऐसा महत्वपू्र्ण संकेत हो सकता था जिससे कि दक्षिण एशिया में खास तौर पर द्विपक्षीय स्तर पर क्षेत्रीय सहयोग की नई शुरूआत हो सके. सन् 1985 से भारत ने चार क्षेत्रीय पहल करने में संस्थापक सदस्य की भूमिका का निर्वाह किया था, लेकिन इनमें से किसी भी पहल का कोई ठोस परिणाम नहीं निकला. योरोपीय संघ और आसियान दोनों ही संगठनों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भिन्न- भिन्न देशों के बीच भी बहुपक्षीय सहयोग करके भारी आर्थिक सहयोग और बेहतरीन विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है, लेकिन दक्षिण एशिया, बंगाल की खाड़ी, ओशन रिम और मैकोंग-गंगा क्षेत्र ऐसे चार क्षेत्रीय समूह हैं, जिनमें इस तरह की कोई प्रगति नहीं हुई. इन सभी चारों समूहों की मूल परिकल्पना और उनके सहकारी मामलों की स्थिति लगभग एक जैसी ही खराब है और न्यूनतम बहुपक्षवाद पर भारत के आग्रह के प्रमाण भी मौजूद हैं.
जहाँ तक सार्क का संबंध है, सात साल तक चलने वाली समझौता-वार्ताओं के बाद सन् 1985 में बंगला देश की पहल पर इसकी स्थापना हो सकी. आज 1.5 बिलियन आबादी वाले इसके सदस्य देश हैं, अफ़गानिस्तान, बंगला देश, भूटान, भारत, मालदीव, नैपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका. सार्क की स्थापना से लेकर अब तक अठारह शिखर वार्ताएँ और हज़ारों मंत्री स्तर की बैठकें हो चुकी हैं और सन् 2015 में छह सम्मेलन और ग्यारह करारों पर हस्ताक्षर होने हैं. कमज़ोर संस्थागत ढाँचे का मूल कारण है, इसका पिरामिड ढाँचा, जिसके ऊपरी सिरे पर एक शीर्षबिंदु है, जो विदेश मंत्रियों की मंत्रि-परिषद, विदेश सचिवों की स्थायी समिति और तकनीकी और कार्य-समितियों पर टिका हुआ है. काठमांडू में स्थित सचिवालय सार्क की विभिन्न गतिविधियों का समन्वय करता है, उनकी निगरानी करता है और बैठकों की तैयारी करता है. महासचिव की सहायता के लिए उनके पास पेशेवर और सामान्य सेवा का स्टाफ़ है. प्रत्येक सदस्य देश सचिवालय में अपने देश का एक निदेशक भेजता है, जिसे आठ में से किसी एक कार्य प्रभाग से संबद्ध कर दिया जाता है. सचिवालय में कुल मिलाकर लगभग पचास कर्मचारी हैं और सचिवालय का वार्षिक बजट लगभग $2.5 मिलियन डॉलर है. संगठन के चारों ओर भारत के राजनयिक दबाव से बोझिल संस्थागत और बजटरी जंजीर है, जिसके कारण संगठन में सहयोग के साथ आगे बढ़ने की क्षमता बहुत ही सीमित रह जाती है. चार्टर में यह व्यवस्था है कि द्विपक्षीय और विवादग्रस्त मामलों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए. पंचशील संगठन का मार्गदर्शी सिद्धांत है. इस बात को लेकर सामान्य सहमति है कि सार्क के अंतर्गत दो देशों के बीच अनौपचारिक बातचीत हो सकती है. उदाहरण के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच अनौपचारिक बातचीत का यह उपयोगी मंच रहा है, लेकिन जिस प्रमुख उद्देश्य को लेकर सन् 2004 में आधिकारिक तौर पर इसकी स्थापना की गई थी, उसकी पूर्ति अभी तक नहीं हो पाई है और वह उद्देश्य था, दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र (SAFTA) का निर्माण.
हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (IORA) की शुरुआत ऑस्ट्रेलिया की पहल पर सन् 1995 में की गई थी. सन् 2013 तक इसे क्षेत्रीय सहयोग के लिए “भारतीय समुद्री रिम एसोसिएशन” कहा जाता था. मूल रूप में इसका उद्देश्य 2.6 बिलियन आबादी वाले हिंद महासागर के तटीय देशों के बीच आर्थिक सहयोग और सुरक्षा संबंधी समन्वय को बढ़ाना था. हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (IORA) के इस समय बीस सदस्य देश हैं, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, भारत, ईरान और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं. इसकी स्थापना से लेकर अब तक सात वर्षों तक चलने वाली व्यापक वार्ताओं से संस्था का जो डिज़ाइन उभरकर सामने आया है उसके कारण सहयोग के सभी प्रयास विफल रहे हैं. भारत द्वारा तैयार किया गया इसका चार्टर त्रिपक्षीय विकास का मॉडल है, जिसमें सरकार, शिक्षा-संस्थाओं और व्यापारी-वर्ग के प्रतिनिधि हैं और इसमें सहयोग के छह प्राथमिक क्षेत्र हैं. मॉरिशस में स्थित इसके सचिवालय में मुश्किल से छह कर्मचारी हैं, जो हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (IORA) की बैठकों का समन्वय करते हैं. प्रति सदस्य-देश के हिसाब से इसका कुल वार्षिक बजट है, $20,000 डॉलर और किन्हीं चयनित गतिविधियों के लिए सदस्य देशों द्वारा स्वैच्छिक योगदान भी किया जाता है. सन् 2015 से पहले मंत्रिपरिषद की केवल चौदह बैठकें ही संपन्न हुईं. सन् 2012 में तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने टिप्पणी की थी कि सत्रह साल बीत जाने के बाद भी सहयोग का घोषणा संबंधी चरण भी अब तक पूरा नहीं हुआ है
“बहु-क्षेत्रीय तकनीकी व आर्थिक सहयोग की बंगाल की खाड़ी की पहल” (BIMST-EC) की स्थापना सन् 1997 में इसके मूल प्रवर्तक थाईलैंड द्वारा की गई थी. आज कुल 1.5 बिलियन आबादी वाले निम्नलिखित देश इसके सदस्य हैं, बंगला देश, भारत, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड, भूटान और नेपाल इस संगठन के सदस्यों के बीच पहली औपचारिक शिखर बैठक आज से सात साल पहले हुई थी. BIMST-EC का संचालन मुख्यतः संबंधित देशों के विदेश मंत्रियों द्वारा किया जाता है. सन् 2014 में अंततः ढाका में सचिवालय खुलने के बाद भी अब तक कोई बैठक नहीं हुई है और सचिवालय में कर्मचारियों की संख्या सार्क से भी कम है. आधिकारिक तौर पर इसके अंतर्गत सहयोग के चौदह प्राथमिक क्षेत्र हैं, लेकिन 2015 के लिए कोई बजट नहीं है. इसके अलावा इसके अस्तित्व में आने के चौदह साल के दौरान आयोजित तीन शिखर बैठकों में भी इसके मुख्य उद्देश्य मुक्त व्यापार करार (FTA) पर अब तक कोई बात नहीं हुई है.
अंततः मेकांग गंगा सहयोग (MGC) मंच में मेकांग और गंगा के छह तटीय देश (कम्बोडिया, भारत,लाओस, म्यांमार, थाईलैड और वियतनाम) शामिल हो गये हैं. इसका मुख्य प्रवर्तक थाईलैड था. सन् 2000 में इन देशों की बैठक विएनतिएन में हुई और यह तय किया गया कि वे पर्यटन, शिक्षा, मानव संसाधन विकास, संस्कृति, संचार और परिवहन के क्षेत्र में आपसी सहयोग करेंगे. इसका न तो कोई स्थायी सचिवालय है और न ही बजट. फिर भी आसियान मंत्रियों की बैठकों के पीछे-पीछे मंत्री स्तर पर इसकी वार्षिक बैठकें होती रहती हैं और नियमित रूप में वरिष्ठ अधिकारियों की बैठकें भी होती रहती हैं. मेकांग गंगा सहयोग (MGC) मंच की स्थापना के पंद्रह साल के बाद भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला है. बस छह बैठकें हुई हैं और कुछ घोषणापत्र जारी हुए हैं. म्यांमार के तत्कालीन विदेश मंत्री न्यान विन ने सन् 2007 में इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि इसकी प्रगति की रफ़्तार बहुत ही धीमी रही है.
इन चारों संगठनों में तीन समानताएँ हैं. पहली समानता तो यह है कि इनमें क्षेत्रीयता से होड़ करने की प्रवृत्ति रही है: सदस्यता और सहयोग के क्षेत्रों में अतिव्याप्ति है. उदाहरण के लिए BIMST-EC और सार्क के उद्देश्यों की अगर मूल रूप में तुलना की जाए तो अंतर यही है कि अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान BIMST-EC के सदस्य नहीं हैं जबकि म्यांमार और थाईलैड इसके सदस्य हैं. MGC की अतिव्याप्ति BIMST-EC और सार्क से है और सार्क के अनेक देश IORA के भी सदस्य हैं. दूसरी समानता यह है कि चारों पहल भारत के पड़ोसियों ने की है. बाद में जाकर भारत ने अपने राजनयज्ञों को सक्रिय किया और उल्लेखनीय रूप में उससे संबंधित मूल दस्तावेज़ों में बहुपक्षवाद को कम से कम हावी होने दिया. तीसरी समानता यह है कि सहयोग का एक प्रमुख सिद्धांत है, गैर-संस्थावाद. उपर्युक्त संगठनों में से दो संगठन ऐसे हैं जिनके सचिवालय में पर्याप्त स्टाफ़ नहीं है. यदि IORA स्टाफ़ (6) और SAARC स्टाफ़ (50) की तुलना EU आयोग के स्टाफ़ (33,000) से करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि इस क्षेत्र में क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग का काम क्यों संभव नहीं है. स्टाफ़ की भारी कमी और नाम-मात्र के बजट के कारण सहयोग के मार्ग पर चलना संभव नहीं है और साथ ही इस बात में भी कोई हैरानी नहीं होनी चहिए कि साधनविहीन सचिवालय किस प्रकार चार संगठनों की क्षमताओं का निर्वाह कर सकता है.
ज़ाहिर है कि इन सभी संगठनों में भारत सर्वाधिक प्रमुख देश है. अब समय आ गया है जब भारत के नये नेतृत्व को ईमानदारी से इस प्रश्न का उत्तर देना होगा कि वह क्षेत्रीय सहयोग के प्रति कितना गंभीर है और अगर मोदी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (सारा विश्व एक परिवार है) की भावना को चरितार्थ करना चाहते हैं तो यह बात क्षेत्रीय सहयोग पर भी उतनी ही लागू होती है. दक्षिण एशिया या हिंद महासागर के तटवर्ती देशों के बीच परस्पर सहयोग की यूटोपियन कल्पना को छोड़कर भारत को चाहिए कि वह सभी चारों संगठनों में उनके नवोन्मेषकारी चार्टर के आधार पर आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में कुछ हद तक स्वतंत्र सहयोग की शुरुआत करे और साथ ही सचिवालयों में स्टाफ़ की भारी वृद्धि करे.
अगर भारत सहयोग के कुछ क्षेत्रों में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से सहयोग करता है तो क्या इससे उसकी प्रभुसत्ता और स्वायत्तता में कुछ कमी आ जाएगी? निश्चय ही आज तक इस भावना से कोई प्रयास नहीं किया गया है. आज जब भारत के प्रधान मंत्री श्री मोदी भारत की घरेलू और विदेश नीति में नये उत्साह का संचार कर रहे हैं तो क्या दक्षिण एशिया और उसके पार जाकर क्षेत्रीय सहयोग के नये आयाम खोजने का काम उनके एजेंडे का प्रमुख बिंदु नहीं होना चाहिए.
ऐर्न्ट माइकल जर्मनी के फ्रीबर्ग विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में वरिष्ठ लैक्चरर हैं और भारत की विदेश नीति और क्षेत्रीय बहुपक्षवाद पर लिखी अपनी पुस्तक (पालग्रेव मैकमिलन,2013)पर उन्हें अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919