सिंगापुर के रक्षामंत्री नग इंग हेनने पिछले महीने दिये गये अपने एक बयान में यह इच्छा व्यक्त की थी कि भारत को दक्षिण चीन सागर में एक बड़ी भूमिका अदा करनी चाहिए. हाल ही के वर्षों में इसी तरह के बयान विएतनाम और फिलीपींस के नेताओं ने भी दिये हैं. दक्षिण पूर्वेशिया के नेताओं द्वारा उस क्षेत्र के सुरक्षा मामलों में भारत की भागीदारी के लिए उसे दिये गये “निमंत्रण” का मतलब है दक्षिण पूर्वेशिया में महाशक्ति के रूप में भारत का उदय और फिर एशिया में महाशक्ति के रूप में भारत का उदय.
दक्षिण पूर्वेशिया का महत्व इस तथ्य में निहित है कि यह एक ऐसा महत्वपूर्ण रणनीतिक क्षेत्र है जो हिंद और प्रशांत महासागरों को आपस में जोड़ता है और जिसमें कुछेक बेहद महत्वपूर्ण समुद्री संकीर्ण स्थल (चोक पॉइंट्स) हैं और चीन के उदय के संदर्भ में यह व्यवस्था निर्माण (ऑर्डर मेकिंग) का स्थल बन सकता है.जब अमेरिका ने अपने “केंद्रबिंदु /पुनर्संतुलन” की घोषणा की थी, उस समय अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थॉमस डोनिलन ने स्पष्ट कर दिया था कि केंद्रबिंदु का मतलब केवल एशिया का ही पुनर्संतुलन नहीं है, बल्कि इसमें “एशिया के अंदर” का पुनर्संतुलन भी आ जाता है, क्योंकि अमेरिका ने “दक्षिण पूर्वेशिया और आसियान (दक्षिण पूर्वेशिया के देशों का संगठन) पर भी नये सिरे से ध्यान देना शुरू कर दिया है. ” इसके अलावा, एशियाई-संस्थागत आर्किटैक्चर आसियान-केंद्रित भी है और आसियान-नीत भी.
इसलिए दक्षिण पूर्वेशिया में भारत का उभरता प्रोफ़ाइल बहुत महत्वपूर्ण है और इससे महाशक्ति के रूप में उसके उदय का संकेत भी मिलता है. दो ऐसे मुख्य कारण हैं, जिनसे दक्षिण पूर्वेशिया में भारत के उदय से हितकारी भावना प्रकट होती है. पहला कारण तो यह है कि दक्षिण पूर्वेशिया में भारत और उसके सबसे नज़दीकी पड़ोसियों के बीच कोई सीमा विवाद नहीं है. पूरे दक्षिण पूर्वेशिया में केवल म्याँमार ही ऐसा देश है,जिसके साथ भारत की स्थल सीमा जुड़ी हुई है और जिसका सीमांकन सन् 1937 में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन द्वारा कर दिया गया था. तीन ऐसे दक्षिण पूर्वेशियाई देश हैं, जिनके साथ भारत की समुद्री सीमा जुड़ी हुई है, म्याँमार, थाईलैंड और इंडोनेशिया. इसका निर्धारण सन् 1978 में त्रिपक्षीय करार द्वारा कर दिया गया था, जबकि म्याँमारके साथ भारतीय समुद्री सीमा का निर्धारण सन् 1987 में किया गया था.
दूसरा कारण यह है कि भारत दक्षिण पूर्वेशिया में कूटनीतिक स्तर पर या सैन्य/समुद्री स्तर पर किसी तरह की एकपक्षीय या औपनिवेशिक नीति का अनुसरण नहीं कर रहा है.सन् 2012 में भारत के पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने नई दिल्ली की नीति को स्पष्ट करते हुए कहा था कि “भारत क्षेत्रीय आर्किटैक्चर को बढ़ाने के लिए आसियान की केंद्रीय भूमिका को आवश्यक मानता है.” इस प्रकार भारत ने क्षेत्रीय कूटनीति में आसियान की अग्रणी भूमिका का समर्थन कर दिया था. इसी प्रकार सैन्य/समुद्री स्तर पर भी भारत न केवल इस क्षेत्र (अर्थात् दक्षिण चीन सागर) मेंभागीदारी का स्वागत करता है बल्कि पूर्व रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी (अब राष्ट्रपति) ने तो सन् 2006 में यहाँ तक कह दिया था कि यदि तटीय देश चाहें तो भारत मलक्का जलडमरुमध्य की सुरक्षा के लिए किसी भी हैसियत से “क्षेत्रीय देशों की इच्छानुसार” उनकी मदद करने के लिए भी तैयार है.
दूसरे शब्दों में, दक्षिण पूर्वेशिया के देशों की तुलना में कहीँ अधिक उन्नत सैन्य क्षमताओं के बावजूद नई दिल्ली ने नेतृत्व के लिए अपना दावा पेश नहीं किया, बल्कि स्थानीय मानदंडों के अनुसार ही अपनी भूमिका का निर्वाह किया. इसलिए हाल ही में दिवंगत हुए सिंगापुर के राजनेता ली कुआन यूद्वारा सन् 2007 में दिये गये उस बयान पर अचरज नहीं होना चाहिए जिसमें उन्होंने दक्षिण पूर्वेशिया में भारत की उपस्थिति का स्वागत किया था, क्योंकि उन्हें इस बात का “कोई डर” नहीं था कि भारत किसी भी तरह का कोई “आक्रामक इरादा” रखता हो. दक्षिण पूर्वेशिया में महाशक्ति के रूप में उदय होने के कारण भारत अब अपने घरेलू क्षेत्र से आगे बढ़ गया है. इस प्रकार इस क्षेत्र की अन्य महाशक्तियों (अमेरिका, जापान और चीन) के साथ भारत भी एशियाई सुरक्षा तंत्र का प्रमुख अंग बनता जा रहा है. यह उल्लेखनीय है कि ये तीनों महाशक्तियाँ दक्षिण पूर्वेशिया में भारत के साथ काम करने को इच्छुक लगती हैं.
राष्ट्रपति ओबामा ने कई अवसरों पर भारत से “पूर्वोन्मुख होकर काम करने के लिए” आग्रह किया है. इसके अलावा अमेरिका और भारत ने इस वर्ष के आरंभ में एक संयुक्त दृष्टिपत्र जारी किया है जिसमें खास तौर पर सारे क्षेत्र में ही विशेषकर दक्षिण चीन सागर में समुद्री सुरक्षा और नौवहन एवं उड्डयन की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कहा गया है. जापानी प्रधानमंत्रीशिन्ज़ो अबेजापान-भारत मैत्री को हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के “संगम” के रूप में देखते हैं. यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण पूर्वेशिया भौगोलिक रूप में और भूराजनैतिक रूप में इसी संगम पर ही स्थित है. अपनी रणनीतिक और वैश्विक भागीदारी के संबंध में जारी जापान-भारत संयुक्त बयान में “आसियान के मामलों पर अपने द्विपक्षीय संवाद” की शुरुआत का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है.
अंततः लगता है कि चीन भी बेमन से ही सही इस क्षेत्र के आर्थिक और संस्थागत मामलों में भारत के साथ काम करने के लिए इच्छुक लगता है. 2008 के अपने साझा दृष्टि पत्र के माध्यम से चीन और भारत “एशिया में निकट क्षेत्रीय सहयोग के लिए नये आर्किटैक्चर की तलाश के लिए और एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण के संयुक्त प्रयास के लिए सहमत हो गए हैं.” इस बयान में स्पष्ट रूप में आसियान-नीत पूर्वेशिया की शिखरवार्ता को एक ऐसे स्थल के रूप में चिह्नित किया गया है, जहाँ चीन और भारत एक साथ मिलकर काम कर सकते हैं. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अब तक चीन भारत को दक्षिण एशिया के पार एशिया में महाशक्ति के रूप में मान्यता देने को भी इच्छुक नहीं था.
दूसरे शब्दों में, दक्षिण पूर्वेशिया के क्षेत्रीय देश और दक्षिण पूर्वेशिया में कार्यरत महाशक्तियाँ अब भारत को इस क्षेत्र में महाशक्ति का दर्जा देने को इच्छुक लगती हैं. इन दोनों बातों के निहितार्थ उल्लेखनीय हैं. पहला निहितार्थ तो यह है कि एशिया में भारत के महाशक्ति के दर्जे को और दक्षिण एशिया में भारत के अपने घरेलू क्षेत्र के पार भी इस क्षेत्र के सुरक्षा मामलों में अपनी भूमिका निभाने के लिए भारत को “कानूनी वैधता” मिल गई है. भारत को अब एशिया के व्यापक रणनीतिक मंच पर अनधिकृत खिलाड़ी नहीं माना जाएगा. दूसरा निहितार्थ यह है कि यह ज़रूरी नहीं है कि नई महाशक्ति के उदय से वर्तमान व्यवस्था भंग हो जाए, जैसा कि आम तौर पर मान लिया जाता है. वस्तुतः इस मामले में भारत के नई महाशक्ति के रूप में उदय होने से क्षेत्रीय व्यवस्था को बनाये रखने में मदद ही मिलेगी.
दक्षिण पूर्वेशिया में भारत के तीन सुरक्षा हित हैं, जिनसे क्षेत्रीय व्यवस्था बनाये रखने में मदद मिल सकती है. जहाँ सन् 2005 में पूर्व रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी ने “निष्पक्षता से रणनीतिक संतुलन” बनाये रखने के सिद्धांत पर आधारित भारत की “पूर्वोन्मुख” नीति का उल्लेख किया था, वहीं यह भी सच है कि भारत नहीं चाहता कि दक्षिण पूर्वेशिया पर किसी एक महाशक्ति का आधिपत्य हो. इसी नीति के परिणामस्वरूप भारत अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह में अपनी नौसैनिक और हवाई परिसंपत्तियों को अपग्रेड कर रहा है. मलक्का जलडमरूमध्य के मुहाने पर स्थित अंडमान में भारत की समुद्री और हवाई क्षमता के कारण भारत को इस क्षेत्र के दूसरे सुरक्षा हित अर्थात् जलडमरूमध्य की सुरक्षा करने में भी मदद मिलती है : अंततः P-8I एयरक्राफ्ट, C-130Js, C-17 ग्लोबमास्टर, सुखोई-30 MKIs, एयरक्राफ्टवाहक (कों), नाभिकीय पनडुब्बी (बियों) और लैंडिक डॉक्स जैसे विविध प्लैटफॉर्मों पर केंद्रित अपनी बढ़ती सामुद्रिक और हवाई क्षमता के कारण भारत अंडमान से दक्षिण चीन सागर में सैन्यशक्ति को प्रक्षेपित कर सकता है. आखिरकार दक्षिण पूर्वेशिया मेंभारत का तीसरा सुरक्षा हित है, दक्षिण चीनी सागर में नौवहन की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना. वस्तुतः विएतनाम के न्हा ट्रांग बंदरगाह में डॉकिंग के अधिकार सहित भारत की क्षेत्रीय भागीदारी से भारत की क्षमता और भी बढ़ सकती है.
साथ ही भारत दक्षिण पूर्वेशिया में सुरक्षा से जुड़ी अनेक प्रकार की सार्वजनिक वस्तुएँ भी बाँटता रहता है, जैसे, मानवीय आधार पर और आपदा के समय राहत सामग्री का वितरण (सन् 2004 में हिंद महासागर में सुनामी की विनाश-लीला के बाद और सन् 2008 में नरगिस चक्रवात के बाद). इसी तरह भारत क्षेत्रीय देशों में सैन्य क्षमता–निर्माण की सामग्री का वितरण भी करता है. (जैसे पनडुब्बी-रोधी युद्ध के लिए सिंगापुर की मदद करना और मलेशिया को फ़ाइटर पायलट प्रशिक्षण देना).
इन सभी छोटे-मोटे, लेकिन महत्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद दक्षिण पूर्वेशिया के देश चाहते हैं कि भारत आगे बढ़कर उनकी “और मदद करे”. अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यही है कि क्या भारत का राजनैतिक नेतृत्व इस भू-राजनैतिक अवसर का लाभ उठा पाएगा ताकि भारत उभरती एशियाई व्यवस्था को लागू कर सके या फिर नई दिल्ली सही दृष्टि के अभाव में घरेलू राजनीति में उलझकर इस अवसर को खो देगा.कम से कम भारत यह तो कर ही सकता है कि स्थल और समुद्री मार्गों पर अपनी गंभीरता का प्रदर्शन करे और भौतिक कनैक्टिविटी को बढ़ाते हुए दक्षिण पूर्वेशिया की आर्थिक गतिविधियों में तेज़ी लाने का प्रयास करे.
मंजीत एस. परदेसी न्यूज़ीलैंड की विक्टोरिया युनिवर्सिटी ऑफ़ वैलिंगटन में अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग में लेक्चरर हैं. यह लेख उनके हाल ही में प्रकाशित निम्नलिखित लेख पर आधारित है: “Is India a Great Power? Understanding Great Power Status in Contemporary International Relations,” Asian Security 11:1 (2015): 1-30.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919