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संक्रमण के दौर में भारत (India in Transition)

रुद्र चौधुरी
02/06/2014

नरेंद्र मोदी को मिले भारी और अभूतपूर्व जनादेश ने सभी विशेषज्ञों और प्रवक्ताओं को यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि भारत का अनुग्रह पाने के लिए अमरीका और क्या-क्या कर सकता है. जहाँ कुछ लोग यह मानते हैं कि ओबामा प्रशासन को पहले से ही मोदी के अनुरूप आवश्यक सुधार कर लेने चाहिए अर्थात् “मोदीकरण” (मॉडिफ़ाई) कर लेना चाहिए और कुछ लोग मानते हैं कि खेल के नियमों को बदल लेना चाहिए और “भारत के साथ नये संबंधों”  की शुरुआत करनी चाहिए. अधिकतर उदाहरणों को सामने रखकर यही बात समझ में आती है कि हमें अपना ध्यान निकट भविष्य पर केंद्रित करना चाहिए और यह बात तर्कसंगत भी है.

निकोलस ब्लेरल
19/05/2014

फ़रवरी, 2014 में भारत ने एक ही सप्ताह में सउदी अरब के युवराज अब्दुल्ला अज़ीज़ अल सउद और ईरान के विदेश मंत्री जावेद ज़रीफ़ की मेज़बानी करके एक अनूठा जबर्दस्त राजनयिक दुस्साहस किया है. इन दौरों के समय को मात्र संयोग नहीं माना जा सकता; पिछले दो दशकों से भारत इज़राइल, फिलिस्तीन, ईरान और सउदी अरब जैसे मध्य पूर्व के अलग-अलग देशों के साथ बड़ी ही कुशलता से संबंधों का निर्वाह करता रहा है. कुछ लोग इस संतुलनकारी कदम को इस क्षेत्र के लिए एक नये और व्यापक दृष्टिकोण के संकेत की तरह भारत की “ मध्य पूर्व की ओर देखने” की नीति के तहत देखते हैं.

लीज़ा ब्यॉर्कमैन
21/04/2014

सन् 1991 में जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने बंबई को सिंगापुर की तरह “विश्व स्तर का शहर” बनाने की योजना का श्रीगणेश किया था, तब से बंबई (अब मुंबई) शहर की सूरत में नाटकीय परिवर्तन होता रहा है.

आदित्य दासगुप्ता
07/04/2014

पिछले पंद्रह वर्षों में भारत में महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय गरीबी-विरोधी कार्यक्रमों का एक तरह का अकारादि सूप तैयार होते देखा गया हैः ग्रामीण संपर्क योजना (PMGSY), सार्वभौमिक प्राथमिक स्कूलिंग पहल (SSA), ग्रामीण स्वास्थ्य पहल (NRHM), ग्रामीण विद्युतीकरण योजना (RGGVY), ग्रामीण रोज़गार गारंटी अर्थात् नरेगा (NREGA),खाद्य सहायता के लिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम और गरीबों को सीधे लाभ पहुँचाने के लिए एक नया डिजिटल बुनियादी ढाँचा (UID). बिना किसी शोर-शराबे के इन कार्यक्रमों से ज़मीन पर लोगों को असली लाभ मिल रहा है और भारत की गरीबी-विरोधी नीतियों को क्रांतिकारी स्वरूप मिलने लगा है.

ल्यूक पैटे
24/03/2014

पिछले दिसंबर में दक्षिणी सूडान में संघर्ष शुरू हो जाने के कारण हाल ही में नवोदित देश में भारत के मल्टी-बिलियन डॉलर की तेल परियोजना बंद हो गयी. अस्थिरता के कारण भारतीय राजनयिकों ने नुक्सान से बचने की कोशिशें शुरू कर दीं, क्योंकि भारत की राष्ट्रीय तेल कंपनी की अंतर्राष्ट्रीय सहयोगी कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमिटेड (ओवीएल) के लिए आवश्यक था कि वह उस क्षेत्र से अपने कर्मचारियों को बाहर निकाले. वैश्विक तेल संसाधनों को हासिल करने में चीन को अक्सर भारत का सबसे बड़ा प्रतियोगी माना जाता है.

शुभंकर धाम
10/03/2014

गनीमत है मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी पूर्व निर्धारित योजना के बावजूद एक साथ अनेक अध्यादेश ज़ारी करने का निर्णय वापस ले लिया, वर्ना संविधान का भारी उल्लंघन हो जाता. रिपोर्ट के मुताबिक छह अध्यादेशों पर विचार किया जा रहा था. इनमें से कुछ अध्यादेश ऐसे थे, जिनसे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने की संभावना थी, ताकि श्री राहुल गाँधी को चुनावी सफलता मिल सके. दूसरे अध्यादेशों में विकलांग विधेयक और अनुसूचित जनजाति / अनुसूचित जाति (अत्याचार निवारण) विधेयक भी थे, जिनसे कदाचित् मरणासन्न मंत्रिमंडल को सामाजिक और लोकतांत्रिक चमक मिल सकती थी.

अरुण सागर
24/02/2014

आखिरी क्षणों में हुई राजनीतिक धमाचौकड़ी को अगर छोड़ दिया जाए तो 2014 की शुरुआत में तेलंगाना भारत का 29 वाँ राज्य बन जाएगा. इससे उस कहानी का अंत हो गया जिसकी शुरुआत स्वतंत्र भारत में राज्यों के पुनर्गठन के पहले चरण के रूप में हुई थी. तेलंगाना उस आंध्र प्रदेश को विभाजित करके बनाया जाएगा, जिसका निर्माण सन् 1953 में तत्कालीन हैदराबाद और मद्रास राज्यों के तेलुगुभाषी क्षेत्रों को मिलाकर किया गया था. तेलंगाना उस क्षेत्र का नाम है जो पहले हैदराबाद राज्य का हिस्सा था. आंध्र प्रदेश  के निर्माण के बाद ही भाषाई आधार पर अन्य राज्यों के निर्माण के लिए आंदोलनों की शुरुआत हुई थी.

नीलांजन सरकार
10/02/2014

जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं, हमारा ध्यान फिर से भारतीय मतदाता की ओर खिंचने लगा है. मीडिया, विद्वज्जन और नीति-निर्माता अक्सर यह गलत धारणा पालने लगते हैं कि भारतीय मतदाता अपेक्षाकृत नासमझ है और केवल अल्पकालीन लक्ष्यों को ही देखता है और उसे बहुत आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है.

पैट्रिक फ्रैंच
27/01/2014

जो लोग यह मानते हैं कि भारतीय समाज आम तौर पर गुणतंत्र पर अधिकाधिक ज़ोर देने लगा है, उन्हें यह बात रास नहीं आती कि वंशवाद अभी-भी चुनावी राजनीति पर हावी है- लेकिन अब उनका प्रभाव इतना नहीं रह गया है, जितना कि पहली नज़र में दिखायी देता है. सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों ने शीर्ष पर पहुँचने का दूसरा रास्ता ढूँढ लिया हैः कई दलों के ऊपरी पायदान के प्रमुख नेताओं को वंशवाद का कोई लाभ नहीं मिलता और जल्द ही इस व्यवस्था में किसी प्रकार के परिवर्तन की भी कोई संभावना नहीं है.