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भारत में गैर-संचारी रोग (NCDs): वैश्विक स्तर पर इससे निपटना और घरेलू स्तर पर इसका निर्मूलन

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23/02/2015
कार्तिक नचियप्पन

राष्ट्रपति ओबामा ने हाल ही में अपनी भारत यात्रा के अंतिम दिन प्रधानमंत्री मोदी के साथ एक रेडियो प्रसारण की रिकॉर्डिंग की थी. अपने इस रेडियो प्रसारण में ओबामा ने इच्छा व्यक्त की थी कि वह राष्ट्रपति के रूप में अपना कार्यकाल समाप्त करने के बाद भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर काम करना चाहेंगे. इस संदर्भ में उन्होंने मोटापे का खास तौर पर उल्लेख किया, क्योंकि यह एक ऐसी चुनौती है जो दुनिया-भर में तेज़ी से फैल रही है. मोटापे के कारण कई गैर- संचारी रोग जन्म लेते हैं. यही कारण है कि यह सारी दुनिया के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है. गैर- संचारी रोगों का मतलब है स्वास्थ्य की वे चुनौतियाँ जो अधिकांशतः लंबे समय तक अर्थात् क्रॉनिक बनी रहती हैं और अगर उन पर ध्यान न दिया गया तो धीरे-धीरे बद से बदतर होती जाती हैं. सारी दुनिया में बढ़ते वैश्विक संपर्कों, तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण और सारा दिन बैठे हुए काम करते रहने की कार्यशैली के कारण स्वास्थ्य का स्वरूप ही बदलता जा रहा है. इन प्रवृत्तियों की वजह से गैर- संचारी रोगों के कारण लोगों की असमय मौत होने लगी है और व्यक्ति, परिवार, स्वास्थ्य-प्रणाली और सरकारों पर भारी बोझ बढ़ता जा रहा है.

भारत में गैर- संचारी रोगों की समस्या बहुत गंभीर है. गैर- संचारी रोग 2014 की वैश्विक स्थिति रिपोर्ट के अनुसार इस बीमारी से मरने वाले लोगों की संख्या है, 5.8 मिलियन अर्थात् भारत में होने वाली कुल मौतों में 60 प्रतिशत मौतें इसी बीमारी के कारण होती हैं.इन आंकड़ों के लिए ज़िम्मेदार गैर- संचारी रोगों में चार बड़ी बीमारियाँ हैं,कैंसर, श्वास-प्रश्वास संबंधी पुरानी बीमारियाँ और मधुमेह अर्थात् डायबिटीज़. ये चार बीमारियाँ जिन चार व्यवहारमूलक जोखिमों की उपज हैं, वे हैं, तम्बाकू का प्रयोग, असंतुलित आहार, शारीरिक निष्क्रियता और शराब का सेवन. मोटापा, उक्त रक्तचाप और कॉलेस्ट्रोल व रक्त शर्करा का बढ़ता स्तर भी वे अतिरिक्त जोखिम भरे कारण हैं जो जीवनशैली से जुड़े हुए हैं. भारत जैसे युवा देश के लिए इन प्रवृत्तियों के दीर्घकालीन निहितार्थ बहुत चिंताजनक हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुमान के अनुसार भारत में किसी भी एक गैर- संचारी रोग से तीस और सत्तर वर्ष की आयु के बीच मृत्यु के लिए संभावित लोगों की आयु लगभग 26 वर्ष है. इसका अर्थ यह होगा कि सत्तर वर्ष की आयु प्राप्त करने तक एक-चौथाई अवसरों पर हर तीस वर्षीय पुरुष या स्त्री के मरने की संभावना है. 

गैर- संचारी रोगों को अब पूरी दुनिया में स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत गंभीरता से लिया जा रहा है. एक दशक पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तंबाकू नियंत्रण पर फ्रेमवर्क कन्वेंशन (FCTC) के लिए एक संस्था की शुरुआत की थी, जिस पर अब तक लगभग 165 देशों के हस्ताक्षर हो चुके हैं. हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सितंबर, 2011 में गैर- संचारी रोगों की रोकथाम और नियंत्रण के लिए एक उच्च-स्तरीय बैठक का आयोजन किया था. इस बैठक के परिणामस्वरूप गैर- संचारी रोगों की रोकथाम और नियंत्रण के लिए एक निगरानी फ्रेमवर्क तैयार किया गया है, जिसमें सभी देशों के लिए अनेक स्वैच्छिक लक्ष्य और संकेतक निर्धारित और कार्यान्वित किये जाएँगे. लेकिन इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबाव बनाने के जो प्रयास किये गये हैं, वे अलग-थलग हैं और उनका स्वरूप भी निष्प्रभावी है. 

सबसे पहली बात तो यह है कि इन चुनौतियों के प्रमुख सामाजिक और आर्थिक कारण हैं, असमानता, आहार, पानी, घर और स्वच्छता की कमी, जिनका नियंत्रण अलग-अलग देशों में विभिन्न प्रकार की संस्थाओं द्वारा किया जाता है. इन संस्थाओं में आम तौर पर स्वास्थ्य पर विचार नहीं किया जाता. दूसरी बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय अभियानों और  हस्तक्षेपों के ज़रिये इस तरह की चुनौतियों का निवारण करना स्वभावतः कठिन है. उदाहरण के लिए हस्तक्षेपों के ज़रिये संक्रामक रोगों का मुकाबला करना अपेक्षाकृत आसान है, क्योंकि इस मामले में आप उचित समय पर उनके प्रभाव का आकलन कर सकते हैं. गैर- संचारी रोग का कारण पीढ़ीगत है और यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य कर्मियों के लिए लक्ष्य बनाकर निश्चित मात्रा में हस्तक्षेप करना आसान नहीं होता. राजनैतिक तौर पर विश्व स्वास्थ्य गैर- संचारी रोगों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रमुख सदस्य देशों से पर्याप्त समर्थन पाने में विफल  रहा है, क्योंकि इसके लिए व्यापक स्तर पर वित्त, वाणिज्य, आवासन और परिवहन जैसे उन सभी अन्य मंत्रालयों से भी संपर्क करना आवश्यक है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ सीधे संपर्क में नहीं रहते. यही कारण है कि संगठन का प्रभाव भी क्षीण होने लगा है.  

सन् 2011 में गैर- संचारी रोगों पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र की बैठक से पहले गैर- संचारी रोगों की रोकथाम और देखभाल पर भारत की अपनी कोई मूल नीति नहीं थी. इसके बजाय भारत सरकार इसके अंतर्गत आने वाले रोगों का अलग- अलग प्रबंधन करती थी. भारत देश के अंदर ही संक्रामक रोगों से निपटने के लिए समय निकालने की वकालत करने के बजाय विश्व स्वास्थ्य संगठन और ग्लोबल फंड और ग्लोबल एलाएंस फ़ॉर वैक्सीन ऐंड इम्युनाइज़ेशन जैसे अंतर्राष्ट्रीय दानवीरों पर निर्भर रहने की कोशिश करता है, लेकिन जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गैर- संचारी रोगों के संबंध में अपनी नीति बदली तो नई दिल्ली ने भी आगे बढ़कर इसका स्वागत किया और अपने राष्ट्रीय संदर्भ के अनुरूप गैर- संचारी रोगों पर निगरानी रखने वाले फ्रेमवर्क के अनुरूप अपने आपको समायोजित करने लगा. लगभग दो दर्जन संकेतकों का निर्धारित लक्ष्य हासिल करने के लिए हस्तक्षेप की योजनाएँ बनाई जा रही हैं. ये योजनाएँ हैं, शराब और तम्बाकू के उपयोग में भारी कमी लाना, शारीरिक गतिविधियों को रोकने वाली बाधाओं को दूर करना, नमक और सोडियम के सेवन और इससे होने वाली अकाल मौतों में कमी लाने का प्रयास करना.   

भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली की दशा और दिशा को देखते हुए इस बात पर यकीन करना मुश्किल है, क्योंकि वैश्वीकरण और बदलती जीवन-शैली के कारण जो चुनौतियाँ हमारे सामने आई हैं उनसे निपटने में हम कामयाब नहीं हुए हैं. जैसे-जैसे पुरानी या क्रॉनिक चुनौतियाँ बढ़ती जाती हैं,सरकार को उनकी रोकथाम के उपायों को भी दुगुना करना होगा. साथ ही अलग-अलग तरह की चिकित्सा और औषधियों से उपचार को भी बढ़ाना होगा. इन उपायों से उन हालातों में भी काफ़ी हद तक कमी आ सकती है, जिनके कारण मधुमेह, दिल की बीमारियाँ, कैंसर और उससे जुड़ी बीमारियाँ पैदा होती हैं.

इस समस्या से जूझने के लिए सरकार को अपनी एक ऐसी समग्र दृष्टि विकसित करनी  होगी, जिसमें गैर- संचारी रोगों से निपटने में व्यापार, कृषि, परिवहन, वित्त, सड़क और बुनियादी ढाँचे से संबंधित सभी क्षेत्रों की अपनी भूमिका होगी. उदाहरण के लिए वित्त मंत्रालय मोटापे जैसी बीमारियों से जूझने के लिए स्वस्थ आहार को प्रोत्साहित करने के लिए कराधान और सब्सिडी का भी उपयोग कर सकता है. कृषि मंत्रालय स्वस्थ आहार के उत्पादन और खपत को बढ़ाने के उपाय कर सकता है. उपभोक्ता मामले व खाद्य उत्पादन मंत्रालय खाद्य वितरण की कमी को दूर करने के उपाय कर सकता है. शहरी योजना से जुड़े लोग शारीरिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए खुली जगह उपलब्ध करने पर विचार कर सकते हैं और सूचना मंत्रालय स्वस्थ आहार और शारीरिक गतिविधियों का लाभ बताते हुए उसके प्रति लोगों में जागरूकता ला सकता है. गैर- संचारी रोगों से संबंधित भारत की कार्ययोजना में नीति समन्वय का संकल्प तो स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ने लगा है, लेकिन इंटर एजेंसी नीतियाँ अभी तक उभरकर सामने नहीं आई हैं.

दूसरी बात यह है कि इसे और व्यापक बनाने की आवश्यकता है. सभी राज्यों को अपनी भूमिका बड़े रूप में निभानी होगी. देश-भर के अस्पतालों की देखभाल से अलग हटकर प्राथमिक स्तर पर भी देखभाल की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए दिल्ली को देश-भर में और अधिक संसाधन सुलभ कराने होंगे. इस तरीके से जोखिम के मूलभूत कारणों और हालात का उपचार समय रहते काफ़ी पहले किया जा सकता है.इससे ‘एम्स’ जैसी तृतीय स्तर की सुविधाओं पर दबाव भी कम हो जाएगा. यह तो निश्चित है कि मधुमेह, हृदवाहिनी रोग और आघात की रोकथाम और नियंत्रण के राष्ट्रीय कार्यक्रम (NPCDCS) पहली पंक्ति के इन्हीं स्वास्थ्यकर्मियों पर अवलंबित होते हैं और यही लोग मधुमेह और उक्त रक्तचाप की सबसे पहले जाँच करते हैं, लेकिन इस प्राथमिक उपचार व्यवस्था को और अधिक बेहतर बनाने की आवश्यकता है.

गैर- संचारी रोगों से संबंधित समस्याओं को और बेहतर ढंग से समझने के लिए और यह जानने के लिए कि देश-भर में इसकी देखभाल किस तरह से की जा रही है, सुदृढ़ निगरानी प्रणाली की आवश्यकता है. ठोस जानकारी और आँकड़ों की मदद से सरकार योजनाएँ बना भी सकती है और लक्ष्यबद्ध रूप में उनकी रोकथाम और नियंत्रण के कार्यक्रमों को लागू भी कर सकती है. साथ ही गैर- संचारी रोगों का एक डैटाबेस भी विकसित किया जाना चाहिए, जिसमें सर्वोत्तम उपायों और हस्तक्षेपों की जानकारी दी जा सकती है और इसे चिकित्साकर्मियों और नीतिधारकों के बीच साझा भी किया जा सकता है.

गैर- संचारी रोगों के विरुद्ध जबर्दस्त हस्तक्षेप करने की आवश्यकता निरंतर बढ़ती जा रही है. गैर- संचारी रोगों पर हाल ही में हार्वर्ड विश्वविद्यालय और विश्व आर्थिक मंच द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इस भयानक समस्या के कारण सन् 2030 से पूर्व भारत को $4.5 ट्रिलियन डॉलर की हानि हो सकती है, लेकिन इन हानियों की भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती. इसका विकल्प यही है कि नीति-निर्माता इनकी रोकथाम और देखभाल के लिए लक्ष्यबद्ध नीतियाँ बनाएँ. राष्ट्रीय कार्य योजना बनाकर ही गैर- संचारी रोगों का अच्छी तरह से मुकाबला किया जा सकता है. साथ ही यह भी ज़रूरी है कि स्वास्थ्य संबंधी ऐसा बुनियादी ढाँचा तैयार किया जाए जिसकी मदद से क्रॉनिक बीमारियों के विरुद्ध की जाने वाली लड़ाई में सार्थक प्रगति लाई जा सके.  

 

कार्तिक नचियप्पन लंदन स्थित किंग्स कॉलेज के इंडिया इंस्टीट्यूट में डॉक्टरेट के प्रत्याशी हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919