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भारतीय संघ में जनहित की भावना और जवाबदेही

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01/12/2014
अक्षय मंगला

भारतीय संघ में जवाबदेही के एहसास को बढ़ाने की कोशिश के रूप में प्रधान मंत्री मोदी ने सरकारी कर्मचारियों की उपस्थिति की निगरानी के लिए एक नई निगरानी प्रणाली की शुरुआत की है. बायोमैट्रिक उपस्थिति प्रणाली सरकार के “डिजिटल भारत” प्रोग्राम का ही एक हिस्सा है. इसके अंतर्गत कर्मचारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे दफ़्तर में आने और बाहर जाने के समय को रिकॉर्ड करने के लिए अपनी उंगलियों के निशान और “आधार” से जुड़े हुए अपने विशिष्ट पहचान नं. को इस पर अंकित कर दें. अब तक 150 विभागों में कार्यरत 50,000 से अधिक केंद्रीय कर्मचारियों ने इस प्रोग्राम के अंतर्गत अपने को पंजीकृत कराया है और दफ़्तर में उनके आने और बाहर जाने के समय की दैनिक जानकारी attendance.gov.in नामक वैबसाइट पर सार्वजनिक कर दी गई है. भारतीय मीडिया के अनुसार बड़ी खबर यही है कि सरकारी कर्मचारी समय पर दफ़्तर पहुँचने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं. बहुत-से मीडियाकर्मियों ने लिखा कि प्रधानमंत्री ने देर तक दफ़्तर में स्वयं काम करके और उन लेटलतीफ़ और दफ़्तर से जल्दी जाने वाले कर्मचारियों के प्रति सख़्त रुख अपनाकर अपना ही उदाहरण सबके सामने रखा है. लेकिन यह बात अभी साफ़ नहीं है कि निगरानी से प्राप्त सूचना का उपयोग कैसे किया जाएगा और दोषी कर्मचारियों के खिलाफ़ क्या कार्रवाई की जाएगी.  लगता है कि इसका दीर्घकालीन लक्ष्य यही है कि सरकारी दफ़्तरों में कामचोरी की जो संस्कृति प्रचलित है, उसे खत्म किया जाए. 

पीछे मुड़कर यह देखना ज़रूरी है कि भारतीय नौकरशाही में जो खामियाँ हैं, उन्हें दूर करने के लिए सार्वजनिक निगरानी प्रणाली कहाँ तक कारगर हो सकती है. इससे पहले कि यह कारगर सिद्ध हो, बायोमैट्रिक उपस्थिति प्रणाली से प्राप्त जानकारी से नौकरशाही की प्रवृत्ति का भी पता चलता है. नौकरशाही पर लंबे समय से शोध करने वाली एक संस्था का सुझाव है कि आर्थिक पुरस्कार और दंड देकर भी सरकारी कर्मचारियों को प्रोत्साहित किया जा सकता है. इस आर्थिक उपाय का मूल भाव यही है कि सरकारी कर्मचारियों में भी सभी व्यक्तियों की तरह कामचोरी और मेहनत से बचने की प्रवृत्ति होती है. इसका समाधान यही है कि ऊपर से लेकर नीचे तक पदानुक्रमिक रूप में  सभी अधिकारी और कर्मचारी इसका पालन करें. उपयुक्त प्रणाली अपनाकर और उचित प्रोत्साहन देकर उच्च अधिकारी निगरानी और अनुशासन बनाये रखते हुए अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से अधिक से अधिक काम निकलवा सकते हैं.

राजनीति विज्ञान के विशेषज्ञ जॉन ब्रेह्म और स्कॉट गेट्स ने अपनी पुस्तक, वर्किंग, शर्किंगऐंड सैबोटाज (अर्थात् काम, कामचोरी और जोड़-तोड़) में एक वैकल्पिक परिदृश्य प्रस्तुत किया है. नौकरशाही के आर्थिक मॉडल और कार्यस्थल पर उसके अनुपालन के विपरीत उन्हें लगता है कि टॉप-डाउन आर्थिक प्रोत्साहन और दंड पर्याप्त नहीं हैं. कार्यस्थल पर अच्छे कार्यपरिणाम तभी हासिल होते हैं जब नौकरशाहों की हर उस काम के प्रति प्रतिबद्धता होती है जिसे वे हाथ में लेते हैं और उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के काम की सराहना करते हैं और पेशेवर मानकों का पालन किया जाता है. निजी कंपनियों के समानांतर कामों का अध्ययन करने पर पाया गया है कि संगठन की भावना अपनाने से ही कर्मचारियों में भागीदारी और स्वयं निर्णय लेने की भावना पैदा होती है. साथ ही अधीनस्थ कर्मचारियों के फ़ीडबैक से संगठन के कार्य-परिणामों में सुधार होता है. संक्षेप में इस वैकल्पिक उपाय से नौकरशाही के मानकों और संस्कृति को प्रभावी सार्वजनिक प्रशासन की बुनियाद बनाया जा सकता है. 

इन मॉडलों के शुरूआती रूप भारत की बायोमैट्रिक उपस्थिति प्रणाली की प्रेरणा के स्रोत रहे हैं. बायोमैट्रिक निगरानी डैटा से प्राप्त जानकारी के आधार पर ही उच्च अधिकारी इस मॉडल का उपयोग करते हुए राज्य के निम्न श्रेणी के कर्मचारियों में अच्छे कार्य-परिणाम हासिल करने की संस्कृति को बढ़ावा दे सकते हैं. इस उपाय से ही मेरे अपने ही शब्दों में भारत में “कानूनी” राज्य की अनुपालना होती है. कानूनी तंत्र वही होता है जहाँ निर्देशात्मक आदर्श  के अनुरूप नियमानुसार व्यवहार होता है. कानूनी राज्य में निर्धारित मानकों के अनुसार नियमों और पदानुक्रम का दृढ़ता से पालन होता है. नियम की अवहेलना को लेकर सबकी भौहें तन जाती हैं और नौकरशाहों को कार्यालय पद्धति के अनुसार काम करते रहने को बढ़ावा मिलता है. कानूनी मॉडल के कारण भारत के सरकारी कर्मचारियों को निरुत्साहित करने के बहुत-से रास्ते निकल आते हैं. साथ ही पदानुक्रम और अनुशासन में खामियाँ रह जाती हैं. इसके लिए प्रस्तावित समाधान यही हो सकता है कि राज्य में शासन की लगाम को कसने के लिए कर्मचारी निगरानी तंत्र को विकसित किया जाए.

हम यह भी समझ लें कि भारत एक मात्र देश नहीं है जहाँ कानूनवाद प्रचलित है. नब्बे के दशक में लागू किये गये संगठनात्मक सुधारों से पूर्व आज की नाइजीरियन शिक्षा की नौकरशाही से लेकर शिकागो के पुलिस विभाग तक हर देश और काल खंड की स्थिति अलग-अलग रही है. कानूनवाद ही एकमात्र कारण नहीं है जिसके कारण भारत में सरकारी कार्य-परिणाम बेहतर नहीं हो पा रहे हैं. इस राजनैतिक प्रणाली के अंतर्गत तैनाती और स्थानांतरण के नौकरशाही तरीके अपनाना भी इसकी एक और वजह है. विभिन्न सार्वजनिक एजेंसियों में कर्मचारियों की मात्रा जैसे प्रशासनिक क्षमता के अधिकाधिक मानक उपायों के कारण भी भारत में सरकारी तंत्र कमज़ोर दिखाई देता है. इन्हीं विभिन्न सीमाओं के कारण मोदी सरकार ने पहले सरकारी तंत्र के अंदर टॉप डाउन खामियों और अनुशासन पर ध्यान देने का निर्णय किया है. नियमों का सख्ती से पालन कराके ही कर्मचारियों पर काम करने का अधिक दबाव डाला जा सकता है. 

इस सिद्धांत में कुछ सचाई भी है. सही ढंग से काम करने के लिए सभी राज्यों को न्यूनतम नियमों का पालन तो करना ही होगा. एक बात और भी है कि मात्र नियमों के पालन से ही राज्यों को सुचारू रूप से नहीं चलाया जा सकता. इसके अलावा, हाथ में लिये गये अपने काम को सही ढंग से अंजाम देने के लिए सार्वजनिक एजेंसियों को कौशल,प्रशिक्षण और संगठनात्मक क्षमता को भी बढ़ाना होगा. शायद सबसे अधिक ज़रूरी तो यही होगा कि उनमें सार्वजनिक हित की भावना विकसित होनी चाहिए ताकि सरकारी कर्मचारी उसके आधार पर अपनी सफलता का आकलन कर सकें. इस प्रकार की भावना विकसित करने का काम नेतृत्व का बुनियादी कर्तव्य है. और अपनी तमाम सदाशयता के बावजूद भारत की बायोमैट्रिक उपस्थिति प्रणाली में सार्वजनिक हित की ऐसी भावना का अभाव है. 

यह समझना मुश्किल है कि ऐसी प्रणाली सरकारी तंत्र में रचनात्मक बदलाव लाकर कार्य संस्कृति को कैसे विकसित कर सकेगी. इसका एक उदाहरण है, सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की अनुपस्थिति की बढ़ती प्रवृत्ति. किसी एक दिन के अंदर एक चौथाई अध्यापकों की अनुपस्थिति के कारण भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली पूरी तरह से चरमराने लगी है. कमज़ोर निगरानी प्रणाली के कारण भी कुछ अध्यापकों में कामचोरी की प्रवृत्ति को बढ़ावा भी मिलता है. डंडे के अभाव को ही अनुपस्थिति की इस बढ़ती प्रवृत्ति का एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता. शिक्षण की गुणवत्ता की कमी भी इसका एक कारण है. निरंतर शोध में लगी संस्थाओं ने यह बताया है कि भारत के सरकारी कर्मचारी,खास तौर पर वे कर्मचारी जो सर्विस डिलीवरी की अगली पंक्ति में हैं, सबसे अधिक जूझते हैं, लेकिन उनके काम को सार्वजनिक तौर पर कोई मान्यता नहीं मिलती. 

मैंने स्वयं 150 सरकारी प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों के इंटरव्यू लिये हैं और पाया है कि यह प्रणाली पूरी तरह से चरमरा चुकी है. इनमें उत्साह के अभाव का कारण आर्थिक कमी नहीं है. सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को देश की औसत प्रति व्यक्ति आमदनी से पाँच गुना अधिक वेतन मिलता है. समृद्ध देशों की तुलना में इसका गुणज 1.2 है.  इतनी भारी असफलता के सम्मिलित कारण हैं, भौतिक सुविधाओं की कमी, अवास्तविक लक्ष्य और पेशेवर मार्गदर्शन का अभाव. ऐसे कामों के साथ संबद्ध सूक्ष्म प्रोत्साहनों का तो सर्वथा ही अभाव है. स्कूल के अध्यापकों के परंपरागत ऊँचे आदर्शों और व्यावसायिक पहचान से जुड़े पेशेवर मानकों को तो स्कूली प्रणाली ने पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर दिया है और अब अध्यापन के व्यवसाय को बहुत सम्मानजनक भी नहीं माना जाता. इसके बावजूद स्कूल के जो अध्यापक बहुत निष्ठावान् होते हैं और इन तकलीफ़ों को बर्दाश्त करते रहते हैं, उन्हें कोई मान-सम्मान नहीं मिलता. 

सरकारी कर्मचारियों की निगरानी प्रणाली के संभावित दीर्घकालीन परिणामों पर अच्छी तरह से विचार करना ज़रूरी है. पहला परिणाम तो यही हो सकता है कि देश की बेहद गंभीर समस्याओं के समाधान के लिए नौकरशाही में जिस किस्म के नवोन्मेषकारी उपायों की आवश्यकता है, उनका ही गला यह प्रणाली घोट देती है.  नवोन्मेष के लिए ज़रूरी है रचनात्मकता,सहयोग और नियमों को तोड़ने के उत्पादक उपाय. सरकारी एजेंसियों के लिए सहयोग की भावना से साथ मिलकर काम करना पहले ही कठिन है. आज की स्थिति के अनुसार कानूनी ढाँचा ही ऐसा है जो भारतीय संघ के भीतर रहते हुए विभिन्न एजेंसियों के साथ मिलकर काम करना और सामूहिक रूप में समाधान निकालना और भी मुश्किल बना देता है. ये एजेंसियाँ अपने आंतरिक पदानुक्रम को बनाये रखने और बाहरी प्रभाव से अपने को बचाये रखने की पुरजोर कोशिश करती हैं.  

सभी देशों ने तो नहीं, लेकिन कई देशों ने इंटर एजेंसियों के ढीले समन्वय की समस्याओं को ज़रूर हल कर लिया है. लेकिन भारत में इस समस्या का स्वरूप बहुत बेढंगा है. इसमें राज्यों की अपनी-अपनी ऐतिहासिक विरासतें भी हैं, पदानुक्रम  और मंडल संबंधी सीमाएँ भी हैं. भारत में आर्थिक रूप से सक्षम वर्ग ने आधुनिक प्रशासनिक ढाँचा साफ़ तौर पर मात्र कानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिए ही पदानुक्रमिक रूप में खड़ा किया था. इसका मकसद आम आदमी को आर्थिक और सामाजिक सेवाएँ प्रदान करना कतई नहीं था. आज भारत के राज्यों में इस संदर्भ में भारी अंतर दिखाई पड़ता है. तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश बिल्कुल अलग राज्य हैं, लेकिन इन दोनों राज्यों की सरकारी नौकरशाही ने सर्विस डिलीवरी में अच्छा नाम कमाया है. इन दोनों ही राज्यों में नौकरशाही के मानक ऐसे हैं जो स्थानीय स्तर पर ही समस्याओं के निवारण को बढ़ावा देते हैं और इस प्रकार सर्विस डिलीवरी  के कारक तत्व यही हैं. भारत के बाहर ब्राज़ील एक ऐसा देश है, जिसमें जूडिथ टेंडलर ने सुशासन पर अच्छा काम किया है और इसके परिणामस्वरूप अनौपचारिक रूप में प्रोत्साहन और मान्यता देकर कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सरकारी सेवा में लगे कर्मचारियों को प्रोत्साहित किया जाता है.  

यद्यपि निगरानी उपस्थिति का महत्व तो है, लेकिन बायोमैट्रिक उपस्थिति प्रणाली की मदद से सार्वजनिक नीतियों के कार्यान्वयन के लिए नौकरशाही को कैसे प्रेरित किया जाएगा, यह समझना अभी मुश्किल लगता है.   कल्पना करें कि मैं एक अधीनस्थ पदाधिकारी हूँ और मैं निर्धारित नीति को लागू करने के लिए आवश्यक उपायों पर चर्चा करने के लिए किसी दूसरे विभाग में काम करने वाले अपने किसी सहयोगी से मिलना चाहता हूँ. यही कारण है कि मैं जो कुछ भी करूँगा वह मेरे उन वरिष्ठ अधिकारियों की नज़र में अनधिकृत समझा जाएगा,जो कदाचित् निर्णय लेने के लिए अपेक्षित संदर्भ का ज्ञान न भी रखते हों. इसके परिणामस्वरूप जोखिम उठाने से घबराने वाले नौकरशाह यही पसंद करेंगे कि सभी कर्मचारी सिर्फ़ सरकारी काम ही करें और समस्याओं के समाधान और समन्वय के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास न करें.   

बायोमैट्रिक उपस्थिति प्रणाली का दूसरा और कदाचित् ज़्यादा खतरनाक दुष्परिणाम यह है कि इससे अविश्वास की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है. प्रताप भानु मेहता ने इंडियन ऐक्सप्रैस में हाल ही में लिखे अपने संपादकीय में सही लिखा है कि अल्पकालीन अनुशासन का जो लाभ इस प्रणाली से मिलता है,उसकी कीमत दीर्घकालीन भय और संदेह का वातावरण बनाकर चुकानी पड़ती है. इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि देश के सबसे बड़े अधिकारियों को भारत के सरकारी कर्मचारियों पर भरोसा नहीं है. यह तर्क भी दिया जा सकता है कि कर्मचारी बायोमैट्रिक उपस्थिति प्रणाली को स्वीकार कर लेंगे,क्योंकि इससे यह संकेत भी मिलता है कि वर्तमान सरकार इस मामले में काफ़ी गंभीर है. खैर कैसी भी स्थिति हो, इस नीति से उपस्थिति में सुधार तो होगा ही.

यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि क्या उपस्थिति का अपेक्षित स्तर इतना ऊँचा है कि निगरानी के उपकरण लगाने से होने वाला लाभ इसकी लागत से कहीं अधिक होगा. इस लागत में वह अधोमुखी प्रवृत्ति भी शामिल है जिसके कारण संस्थागत अविश्वास पैदा होता है और उसके बाद संदेह और भय का वातावरण निर्मित होता है. इसके निवारण के लिए अतिरिक्त नियम गढ़े जाते हैं और संस्थागत खामियों से बचने के लिए कहीं अधिक सख्त प्रणाली विकसित करनी पड़ती है. अधोमुखी प्रवृत्ति के तत्व भारत के कानूनी ढाँचे में पहले से ही मौजूद हैं. जैसे भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए लोकपाल के रूप में सुपर एजेंसी बनाई जा रही है, स्कूली मानकों को लागू करने के लिए शिक्षा के अधिकार संबंधी अधिनियम में जाँच-सूची बनाई गई है. सरकार की विफलताओं का मुकाबला करने के लिए अधिक से अधिक सख्त विनियामक नुस्खे बनाना भी राज्यों ने सीख लिया है. और फिर भी इन औपचारिक नियमों को उन अनौपचारिक मानकों, संबंधों और वास्तविकताओं से अलग कर दिया गया है जिनकी मदद से नीतियों को लागू किया जाता है.

मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद सार्वजनिक महत्व के अनेक मामले उठाये हैं, जैसे स्वच्छता अभियान, लिंग आधारित हिंसा और हाल ही में सरकार का अपना कार्य-परिणाम. प्रधानमंत्री मात्र अपने उत्साह के बल पर सरकारी मशीनरी से ऊँचे कार्य-परिणाम नहीं निकलवा सकते. बहरहाल इससे वे एक ऐसा राजनैतिक समर्थन तो दे ही सकते हैं जिसकी मदद से ऐसे अनेक व्यापक प्रशासनिक सुधार लागू किये जा सकते हैं जिनसे भारतीय संघ के खस्ता कार्य-परिणामों के व्यवस्थित क्रम को तोड़ा जा सके. ये सुधार हो सकते हैं, नौकरशाही के कौशलमूलक आधार को निर्मित करना, ऐसे बोर्डों की स्थापना करना जिनसे पेशेवर मानक तय किये जा सकें और अधीनस्थ कर्मचारियों की भागीदारी को सुनिश्चित करना. साथ ही सूक्ष्म ढंग के प्रोत्साहन पुरस्कार और मान्यता दी जानी चाहिए ताकि ये प्रयास आगे भी जारी रहें. भय के माध्यम से जवाबदेही पैदा करने से बेहतर है, भारतीय संघ के भीतर जनहित की भावना विकसित करना.    

अक्षय मंगला हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल में बिज़नेस ऐडमिनिस्ट्रेशन के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919.