भारत में पर्यावरण को व्यवस्थित करने का काम लगातार बेहद मुश्किल और पेचीदा होता जा रहा है. वायु, जल और वन का आच्छादन कुछ ऐसे महत्वपूर्ण संकेतक हैं जिनमें पर्यावरण की गुणवत्ता में तेज़ी से गिरावट आ रही है. साथ ही “विकास के एजेंडा” को सुगम बनाने के लिए विनियामक लचीलेपन की भी ज़रूरत महसूस की जा रही है. अनेक हितधारकों ने अक्सर विनियामक और संस्थागत सुधारों की बात उठाई है, हालाँकि इसमें उनके व्यापक और अलग-अलग हित भी हो सकते हैं. पर्यावरण संबंधी विनियामकों की असफलता का एक अंतर्निहित कारण सरकार की तदर्थ नीतियाँ भी हो सकती हैं. सरकार की हमेशा यही कोशिश रहती है कि वह जटिल समस्याओं के समाधान के लिए जल्दबाज़ी में कोई समझौता कर ले, लेकिन इससे भी दुविधा की स्थिति ही बनी रहती है.इसी संदर्भ में अगस्त 2014 में एनडीए सरकार ने पहल करके भारत के पर्यावरण संबंधी विनियमों का फिर से अध्ययन करने के लिए उच्चस्तरीय समिति का गठन किया था. इस समिति की रिपोर्ट की आवश्यक समीक्षा संक्षेप में नीचे दी गई है, जिसमें देश की पर्यावरण की बिगड़ी हुई व्यवस्था को ठीक करने के लिए आवश्यक विनियमों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है.
पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमणियन की अध्यक्षता में गठित समिति से कहा गया था कि वे “पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के विभिन्न अधिनियमों की समीक्षा” करके उन्हें “उनके उद्देश्यों के अनुरूप बनाने के लिए” आवश्यक संशोधन सुझाए. समीक्षाधीन छह कानून इसप्रकार थे.. भारतीय वन अधिनियम, 1927,वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972,जल (संरक्षण व प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1974, वायु (संरक्षण व प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981, वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986. भारी शासनादेश के बावजूद समिति से अपेक्षा की गई थी कि वह अपनी समीक्षा का काम दो महीने (जिसे बाद में बढ़ाकर तीन महीने कर दिया गया था) में पूरा कर ले. निश्चय ही सीमित समय होने से काफ़ी दिक्कत हुई, लेकिन समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट निर्धारित समय से दस दिन पहले ही पेश कर दी.
इसलिए अचरज की कोई बात नहीं है कि समिति के काम की अच्छी तरह से सार्वजनिक तौर पर छानबीन की गई और उस पर खूब बहस भी हुई. पर्यावरण संबंधी विनियमों के मुद्दों पर काम करने वाले अनेक टीकाकारों ने समिति के गठन, उसके सदस्यों के चयन और समिति के विचारार्थ विषयों और समिति की कार्यप्रणाली (सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया सहित) को लेकर कई गंभीर सवाल उठाये और अंततः बहुत महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें भी कीं.
समिति द्वारा प्रस्तुत अंतिम रिपोर्ट में भारतीय पर्यावरण संबंधी व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण सरोकारों को सही ढंग से चिह्नित किया गया है. इनमें प्रमुख हैं, पर्यावरण की गुणवत्ता में गिरावट, अलग-अलग बिखरे हुए कानून और तदर्थ निर्णय प्रणाली, सरकार की “किराया माँगने की प्रवृत्ति”, कार्यपालिका के प्रति विश्वास की कमी, न्यायपालिका की प्रभावी भूमिका और पर्यावरण संबंधी विभिन्न कानूनों के अधीन निगरानी और प्रवर्तन तंत्र की पूरी विफलता.
समिति की रिपोर्ट में अनेक महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें की गई हैं. इसमें यह सिफ़ारिश भी की गई है कि कुछ वनों (70 प्रतिशत से अधिक आच्छादित सघनता वाले वनों को मिलाकर) का ‘नो-गो’ (प्रवेश निषेध) क्षेत्र के रूप में सीमांकन किया जाए, प्रतिपूर्ति के रूप में वनरोपण के लिए देय राशि में और वनभूमि के परिवर्तन के दौरान शुद्ध वर्तमान मूल्य में वृद्धि की जाए और अधिक क्षमता वाली पर्यावरण सूचना प्रणाली विकसित की जाए. समिति ने वन मंजूरी की प्रक्रिया में तेज़ी लाने की सिफ़ारिश भी की है.
वन्यजीवों के संरक्षण में सुधार लाने के लिए समिति ने अन्य बातों के अलावा यह भी सिफ़ारिश की है कि वन्यजीव संरक्षण (अधिनियम) 1972 (संरक्षण का यह स्वरूप विभिन्न अनुसूचियों में सूचीबद्ध प्रजातियों के संरक्षण से भिन्न है) की वर्तमान अनुसूचियों की समीक्षा की जाए, इन योजनाओं के सांविधिक आधार के साथ-साथ वन्यजीव प्रबंधन योजनाओं को अनिवार्य तौर पर तैयार किया जाए और संरक्षित क्षेत्रों के चारों ओर इको-संवेदनशील या बफ़र ज़ोन का सीमांकन किया जाए.
समिति की एक महत्वपूर्ण सिफ़ारिश यह भी रही है कि EIA अधिसूचना 2006 के अंतर्गत पर्यावरण की मंजूरी की प्रक्रिया में सुधार किया जाए. समयबद्ध रूप में पर्यावरण की मंजूरी से संबंधित सभी आवेदनों को प्रोसेस करने के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण प्रबंधन प्राधिकरण (NEMA) और राज्य पर्यावरण प्रबंधन प्राधिकरण (SEMA) जैसे सक्षम पूर्णकालिक तकनीकी संगठन का प्रस्ताव किया गया है. अंततः उम्मीद है कि ये सभी एजेंसियाँ केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों (PCBs) में समाहित हो जाएँगी.
राष्ट्रीय पर्यावरण प्रबंधन प्राधिकरण (NEMA) और राज्य पर्यावरण प्रबंधन प्राधिकरण (SEMA) की स्थापना पर्यावरण कानून (प्रबंधन) अधिनियम (ELMA) नाम के एक नये कानून के अंतर्गत की जाएगी. पर्यावरण कानून (प्रबंधन) अधिनियम (ELMA) “परम सद्भाव” के सिद्धांतों के आधार पर एक सांविधिक आधार प्रदान करेगा. इस सिद्धांत के अनुसार परियोजना के प्रस्तावकों के लिए आवश्यक होगा कि वे परियोजना से संबंधित सभी सूचनाओं को उजागर करें और यह प्रमाणित करें कि ये सभी तथ्य सही हैं. अगर बाद में यह पाया गया कि उन्होंने पूरी और सही सूचनाएँ नहीं दी थीं तो जुर्माना, जेल और / मंजूरी को रद्द करने जैसे दंड भी उन्हें दिये जा सकते हैं. पर्यावरण कानून (प्रबंधन) अधिनियम (ELMA) में यह भी सुझाया गया है कि ELMA से संबंधित सभी मामलों पर शीघ्रता से निर्णय करने के लिए प्रत्येक ज़िले में विशेष पर्यावरण अदालतों की स्थापना की जाए. नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) को सशक्त बनाने में सरकार की उदासीनता को देखते हुए प्रत्येक ज़िले में ऐसी पर्यावरण अदालतों की स्थापना की गुंजाइश बहुत कम है.
पर्यावरण की मंजूरी के आवेदनों से संबंधित निर्णयों से असंतुष्ट पक्षों की सुनवाई के लिए एक अतिरिक्त अपील मंच स्थापित करने की सिफ़ारिश की गई है. कई लोग इसे NGT के “विकास विरोधी” रुख की प्रतिक्रिया के रूप में NGT के वर्तमान क्षेत्राधिकारों को कम करने वाले एक महत्वपूर्ण कदम के तौर पर देख रहे हैं.
इस रिपोर्ट के अनेक पहलुओं को लेकर चिंता होना स्वाभाविक हैः इनमें से कुछ चिंताजनक मुद्दे हैं, सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया को कमज़ोर करना, “रणनीतिक” और “राष्ट्रीय” महत्व की परियोजनाओं को मोटे तौर पर लगभग मुफ्त टिकटों की तरह बाँटना, अनुमोदन की प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिए समय-समय पर दबाव डालना (और निर्णय लेने की गुणवत्ता में भले ही अनिवार्यतः सुधार न होता हो), पर्यावरण के संरक्षण के लिए वर्तमान विनियामक संस्थाएँ क्यों विफल रहीं, जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा न करना और इसके बावजूद उसी तरह की नई संस्थाओं की सिफ़ारिश करना और इसके लिए नये कानून के प्रस्ताव की मूल परिकल्पना और कमज़ोर प्रारूप बनाना. दिलचस्प बात तो यह है कि यह समिति जल और वायु की गुणवत्ता जैसे मुद्दों पर गंभीरता से चर्चा ही नहीं करती, जो वस्तुतः समीक्षाधीन कानून के मूलभूत मुद्दे हैं. सच तो यह है कि यह समिति पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया के अलावा पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम के अंतर्गत आने वाली EPA की अनेक विनियामक प्रक्रियाओं पर विशेष टिप्पणी नहीं करती. लगता है कि इस समिति ने आगे बढ़कर भारतीय पर्यावरण के कानून में लंबे समय से अपेक्षित सुधार लाने का अवसर ही खो दिया है.
अब विज्ञान व प्रौद्योगिकी और पर्यावरण व वन से संबंधित स्थायी संसदीय समिति इस रिपोर्ट की परीक्षा कर रही है और उम्मीद है कि सरकार कोई भी सुधार लागू करने से पहले जनता से व्यापक और सार्थक रूप में सार्वजनिक तौर पर विचार- विमर्श करेगी. यद्यपि समिति की अनेक सिफ़ारिशें पर्यावरण और सामाजिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं हैं, लेकिन भारतीय पर्यावरण से संबंधित व्यवस्था में जो खामियाएँ हैं, उनका निदान (अधूरा होने पर भी) समिति की रिपोर्ट में सही ढंग से दर्शाया गया है और देश में पर्यावरण के कानून पर पुनर्विचार करने के लिए इसे प्रस्थान बिंदु की तरह माना जा सकता है.
उदाहरण के लिए समिति द्वारा उठाया गया एक मुद्दा है, निगरानी और प्रवर्तन के मौजूदा तंत्र का पूरी तरह से विफल होना. यह बेहद ज़रूरी है कि इस मुद्दे को गंभीरता और शीघ्रता से उठाया जाए. क्षमता और संसाधनों की कमी के अलावा कुछ कानूनी बाधाओं (भ्रष्टाचार और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी जैसे बाहरी तत्वों के कारण ये बाधाएँ और भी बढ़ जाती हैं) के चलते PCB जैसी निगरानी एजेंसियों के लिए नियमों के अनुपालन पर लगातार और सही ढंग से निगरानी रखना और भी मुश्किल हो जाता है. दोषियों की पकड़ कम ही हो पाती है और जो पकड़ होती भी है, वह अपराधों के मुकाबले बहुत कम होती है और समयबद्ध रूप में उन पर कार्रवाई तो और भी कम होती है. खास तौर पर प्रदूषण और वन्यजीवों के कानून से संबंधित आपराधिक एहतियात के मामले तो बरसों तक खिंचते चले जाते हैं और इन अदालती देरियों के परिणामस्वरूप पर्यावरण पर अक्सर बहुत ही बुरा असर पड़ता है (और उसकी भरपाई भी नहीं हो पाती).
आपराधिक प्रतिबंधों वाले कानून का वर्तमान मॉडल (मुख्यतःकमांड और नियंत्रण रणनीति) विफल हो गया है और निकट भविष्य में यह संभावना भी कम ही लगती है कि सरकार इसे सुचारू रूप में चलाने के लिए इस मॉडल में आवश्यक सुधार करेगी. ऐसी स्थिति में विनियामक प्रक्रियाओं को फिर से नया स्वरूप देने की आवश्यकता होगी. इसलिए यह सुझाव दिया जा सकता है कि विनियामक एजेंसियों को अलग-अलग समस्याओं के अनुरूप अपने-आपको बदलने के लिए अधिकार दिये जाने चाहिए. अन्य संदर्भों में कई तरह के औजारों (क्रमशः अधिकाधिक कठोर कदमों के साथ) विनियामक टूल बॉक्स की परिकल्पना की गई है जो उस स्थिति में बेहतर विकल्प बन सकता है जहाँ रैगुलेटर कठोर कदम (जैसे पावर/पानी की सप्लाई बंद कर सकता है या लाइसेंस रद्द कर सकता है) उठा सकता है. हालाँकि राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक या कानूनी दृष्टि से ऐसे कदम उठाना वांछनीय नहीं होगा [हॉन व स्टीवन्स, 1991, ऐर्स व ब्रेथवेट 1992]. इसके बाद रैगुलेटर अपराध की प्रकृति, अपराधी के पिछले कारनामों और पर्यावरण पर हुए दुष्प्रभाव की मात्रा के अनुसार औजार (रों) को उपयुक्त रूप में चुन सकता है.
पर्यावरण संबंधी सार्थक विनियामक प्रणाली में सुधार लाना बहुत ही ज़रूरी है. ज़ाहिर है, इसके लिए बहुत ही सोच-समझकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाना और सभी हितधारकों को इस प्रक्रिया से जोड़ना आवश्यक होगा. सरकार को समिति की सिफ़ारिशों पर जल्दबाजी में बिना सोचे-विचारे अपनी स्वीकृति नहीं देनी चाहिए.
शिबानी घोष नई दिल्ली स्थित नीति अनुसंधान केंद्र के साथ एक पर्यावरण अधिवक्ता के रूप में संबद्ध हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919