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भारतीय उपन्यास इतिहास के एजेंट

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07/09/2015
चंद्रहास चौधरी

यह एक सार्वभौमिक रूप में स्वीकृत सत्य है कि मानव अपने जीवन को काल में नहीं, बल्कि इतिहास में धड़कते हुए अनुभव करता है. इतिहास की व्याख्या के लिए अनेक विधाओं का उपयोग किया जाता है : व्यक्तिगत अनुभव और सांस्कृतिक संस्मरण, राजनैतिक विचारधारा और इतिहासलेखन और कभी-कभी तो खास तौर पर मिथक और कथा-कहानियाँ भी. इन्हीं विधाओं में केवल 150 वर्ष पुरानी विधा है, उपन्यास. यह विधा भारत में कुछ देरी से आई.

आखिर उपन्यास में ऐसी उल्लेखनीय बात क्या है? यह तर्क दिया जा सकता है कि केवल इतिहास ही नहीं, कहानी के रूप में भी उपन्यास की विधा बहुत लोकप्रिय नहीं हो पाई, क्योंकि न तो यह देशी विधा है और न ही यह आम जनता में बहुत लोकप्रिय है. सिनेमा की अपील इससे कहीं ज़्यादा है, इसी तरह रामायण जैसे महाकाव्यों की कथा का प्रभाव भी दैनिक जीवन पर ज़्यादा पड़ता है और उपन्यास से कहीं अधिक उसके नैतिक मूल्यों का प्रभाव भी जनता पर अधिक पड़ता है. (फिर भी लगभग सभी भारतीयों के मन में यह कामना तो प्रत्यक्ष रूप में रहती ही है कि वह एक उपन्यास ज़रूर लिखे और वह भी बैस्टसैलर).  

दो दर्जन से अधिक भारतीय भाषाओं और सहित्यिक परंपराओँ से जुड़े अनेक महान् भारतीय साहित्यकारों की रचनाओं में भारत के इतिहास का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है. भारतीय उपन्यासों में वर्णन शैलियों और टीकाओं की भारी विविधता के बावजूद उनमें भारत के इतिहास की मनीषा का एक कोश होता है, जिससे हमें यह सीख मिलती है कि एक भारतीय और दक्षिण पूर्वेशियाई को वर्तमान जीवन में कैसे जीना चाहिए.  इक्कीसवीं सदी में भ्रमित करने वाले लोकतंत्र में आधुनिकता के साथ हम कैसे जिएँ. यह सीख भी हमें मिलती है.  

आइए हम सन् 1902 में उड़िया में लिखे गये फ़कीर मोहन सेनापति के उपन्यास Six Acres and a Third पर गौर करें. बेहद कुटिलता और मक्कारी से भरा होने पर भी यह व्यंग्यपूर्ण उपन्यास हल्की-फुल्की शैली में लिखा गया है. अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद सन् 2006 में किया गया. सेनापति के इस उपन्यास का कथानक गाँव के एक ऐसे ज़मींदार के चारों ओर घूमता है जो कुछ गरीब जुलाहों के छोटे-छोटे खेतों के टुकड़ों को हड़पने की साजिश में लगा है. यह एक ऐसे भारतीय गाँव की कहानी है, जो साम्राज्यवाद की तपती धूप के नीचे झुलस रहा है. सेनापति की यह कहानी उन पहले पाठकों को तब बहुत गुदगुदाती होगी, जब कथावाचक अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे और नये भारतीय शासक–वर्ग द्वारा चलाई जा रही नई और पेचीदा ब्रिटिश संस्थाओं पर छींटा-कशी करता है. “नये बाबू से उनके दादा-परदादा का नाम पूछो तो वह बगलें झाँकने लगेगा, लेकिन अगर इंग्लैंड के चार्ल्स तृतीय के पूर्वजों के नाम पूछो तो उसकी ज़बान फटाफट चलने लगेगी. ”

लगता है कि यह कहानी इतिहास और राजनैतिक प्रतिरोध को लेकर एक तर्क सामने रखती है. भारत को अपने साम्राज्यवादी आकाओं से मुक्ति पानी होगी, क्योंकि उन्होंने भारतीय समाज की परंपरागत ज्ञान प्रणाली और सत्य को अवैध बना दिया है और इस प्रक्रिया में आधुनिक भारतीय को नकलची और अप्रामाणिक बना दिया है. “पश्चिमीकरण” पर होने वाले वाद-विवादों में यह तर्क आज भी भारत में प्रचलित है. 

लेकिन इस बहस से एक सवाल उठता है: क्या परंपरागत भारतीय ग्रामीण समुदाय सचमुच बुद्धिमान्, न्यायप्रिय या संतुलित है?  जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, हम पाते हैं कि साम्राज्यवाद-विरोधी भावनाओं के कारण कथावाचक इस व्यंग्य के दूसरे पक्ष की छान-बीन करने से भी हिचकता नहीं है. जब हम यह सुनते हैं कि, “गाँव में सभी लोग, खास तौर पर महिलाएँ पंडितों को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखती हैं. और “जब देवी सपने में पंडित जी को दर्शन देती है और सब कुछ बता देती है. ” इस उपन्यास में हिंदू ब्राह्मणों के प्रति आदर-भाव और ढकोसले को भी पाठक के सामने उधेड़ कर रख दिया है. लोगों के सहज विश्वास के कारण ही इनकी आस्था बनी रहती है.

सेनापति का व्यंग्य बहुत पैना है, लेकिन उसमें किसी के प्रति वैरभाव नहीं है. यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी कि उस ज़माने में थी. बीसवीं सदी के आरंभ में यह आलोचना उस समय के भारतीयों और ब्रिटिश लोगों के लिए जितनी प्रासंगिक थी, उतनी ही आज के हिंदू राष्ट्रवादियों, मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भी है. यह प्रवृत्ति सभी धर्मों के लोगों में व्याप्त है और वे अपनी दुनिया में आत्मतुष्ट रहते हुए इसे सही भी ठहरा देते हैं. जब तक आत्मालोचन की प्रवृत्ति विकसित नहीं होती, तब तक इतिहास में सत्य की खोज की बात एक पहेली ही बनी रहेगी. इस उपन्यास में निहित तर्क लोगों को मुक्त कराने के लिए है. इसका उद्देश्य पाठकों को सिर्फ़ आश्वस्त करना या प्रेरित करना नहीं है, बल्कि यह वस्तुतः मोहभंग होने के कारण है. कथा हमें बताती है कि मनुष्य खुद अपने किस्से गढ़ता है. इसलिए ज़रूरी है कि बुनियादी सत्य पर विश्वास करने से पहले उसकी अच्छी तरह से छान-बीन कर ली जाए.

एक अलग तरह की औपन्यासिक विडंबना है, जो हास्यपूर्ण होने के बजाय ब्रह्मांड से संबंधित है. यह भावना उदय होती है This Is Not That Dawn से. यह पचास के दशक में लिखे गये हिंदी के उपन्यासकार यशपाल के विभाजन पर आधारित प्रसिद्ध हिंदी उपन्यास झूठा सच का हाल ही में प्रकाशित अंग्रेज़ी अनुवाद है. यह कहानी है, विभाजन से पहले और बाद में लाहौर और नई दिल्ली में भटकते भाई-बहन के जीवन और प्यार की. यशपाल के इस उपन्यास में पुरुष और स्त्री, हिंदू और मुसलमान तथा भारतीय और पाकिस्तानी (यह पहचान अब उभर रही है) की दृष्टि से विनाश की उस गाथा पर अनेक प्रकार के वैकल्पिक दृष्टिकोण भावी और पूर्व प्रभावी रूप में सामने रखे गये हैं. 

यहाँ इतिहास का एक व्यापक फलक है- व्यक्तिगत,राष्ट्रीय और मानवीय, सभी कुछ एक ही काल में. प्रत्येक पात्र अपने हालात और अपनी दुविधा में फँसकर उम्मीद, स्मृति, विश्वास, संदेह, आस्था, भोलेपन,पूर्वाग्रह और भाग्यवाद को लेकर अपनी धारणाएँ बनाता है. यह एक विशाल कौतुक-भरा तमाशा है, जिसमें मनुष्य इतिहास के थपेड़ों से टकराते हुए बहादुरी से तैरता है. अगर कथावाचक स्वयं भारत के विभाजन के औचित्य और वैधता के संबंध में कुछ कहना चाहता है तो उसे भी पात्रों के ज़रिये ही कहना होगा और पाठक सहज भाव से उसे ग्रहण कर सकता है. 

वस्तुतः यशपाल के उपन्यास को पढ़कर जो भावना पैदा होती है, वह पूरी तरह से त्रासदी ही नहीं होती. यह सच है कि विभाजन ने एक ऐसी भावना को चकनाचूर कर दिया था, जो साझी और ऐतिहासिक दृष्टि से स्थिर थी, जो वस्तुतः भारतीयता की भावना थी, लेकिन खोज-कार्यों के अग्रणी जयदेव पुरी ने धर्म-निरपेक्षता की भावना के आधार पर अपना समाचार पत्र शुरू किया, जिसमें उन्होंने नये लोकतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष गणतंत्र में भारतीयता की अवधारणा को स्पष्ट किया और उसकी एक नयी बुनियाद रखी. इतिहास, त्रासदी और प्रगति के कुछ संधि-स्थलों पर ये सब मिलकर अभिन्न रूप में एकाकार हो सकते हैं.

इन उदाहरणों से पता चलता है कि औपन्यासिक कृतियाँ केवल ऐतिहासिक तथ्यों के निरूपण तक ही सीमित नहीं रहतीं, भले ही उनकी शुरूआत वहाँ से हो सकती है. इसके बजाय, उपन्यास अपने-आप में इतिहास में एक रचनात्मक हस्तक्षेप है. वह इतिहास का वास्तविक एजेंट है, जिसके माध्यम से पाठक उसकी नैदानिक और दृश्यात्मक शक्तियों के साथ उसके वर्णनात्मक क्षेत्र में विचरण करता है. वस्तुतः बिभूति भूषण से लेकर यू.आर. अनंतमूर्ति तक, कुर्तुलैन से लेकर सलमा तक और फणीश्वरनाथ रेणु से लेकर अमिताव घोष तक सभी उपन्यासकारों ने पिछली दो शताब्दियों के भारत के इतिहास के सर्वाधिक क्रमबद्ध और जटिल चित्र प्रस्तुत किये हैं. फिर भी उन्हें किसी एक समूह के अंतर्गत किसी एक विचारधारा या राजनैतिक खेमे में एक साथ नहीं रखा जा सकता. उन सबको एक साथ जोड़ने वाला तत्व है, उनकी वह क्षमता, जो उनके द्वारा वर्णित किसी खास ऐतिहासिक विचार बिंदु को उजागर करती है. जैसे अनंतमूर्ति के उपन्यासों में हिंदुत्व और लोकतंत्र की समतावादी आकांक्षाओं के बीच के तनाव को उजागर किया गया है.

इतिहास के नज़रिये से असंबद्ध गद्य की अन्य विधाओं की तुलना में उपन्यास की विधा में कुछ लाभ होते हैं. इसमें एक ऐसी प्रबोधक शक्ति और कहानी की गुत्थियाँ होती हैं, जिन्हें कई तरीकों से पढ़ा जा सकता है और उसके अर्थ को समझने के लिए पाठक को भी भागीदार बनाया जा सकता है. इसमें अतीत के गलियारों में विचरण करने की स्वच्छंदता रहती है. कल्पना-लोक के अलावा यह स्वच्छंदता किसी और विधा में वहीं हो सकती. टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं में सोचने की क्षमता केवल उपन्यास में ही होती है. पात्रों के बीच विचार-विनिमय करते हुए द्वंद्वात्मक रूप में या कथावाचक और पात्रों के बीच परिदृश्य में परिवर्तन लाकर उपन्यासकार पाठक को किसी-भी दिशा में सोचने के लिए विवश कर सकता है. ये तमाम विशेषताएँ मिलकर उपन्यास की भूमि को ऐतिहासिक विमर्श के लिए एक खास ढंग से उपजाऊ भूमि बना देती हैं.

वस्तुतः वे स्वयं भारतीय इतिहास के पटल पर भारतीय उपन्यास और भारतीय लोकतंत्र की परियोजनाओं को फिर से अवतरित कर देते हैं, लेकिन अब भारतीय इतिहास का स्वरूप बिल्कुल नया होता है, रहस्यात्मक रूप में कुछ वैसा ही लगता है और शायद वैसे ही अधूरा रहता है. पिछले सात दशकों में भारतीय लोकतंत्र गहन रूप में पदानुक्रमित सभ्यता में एक नये सामाजिक समीकरण की ओर बढ़ रहा है. ऐसी स्थिति में महान् भारतीय उपन्यास न केवल नये किस्म के पाठक /नागरिक की खोज कर रहा है, बल्कि उन्हें निर्मित भी कर रहा है और यह स्थिति भारतीय इतिहास के दोनों ही पक्षों में जीवंत है, भले ही प्रसंग दुष्टता का हो या फिर मुक्ति दिलाने की क्षमता की बात हो.

नई दिल्ली के निवासी चंद्रहास चौधुरी एक भारतीय लेखक हैं. उनके उपन्यास हैं, Arzee the Dwarf (HarperCollins/NYRBLit) औरClouds (आगामी). इस निबंध की कुछ सामग्री पिछले वर्ष येल विश्वविद्यालय के एक व्याख्यान में प्रस्तुत की गई थी.

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919.