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सार्वजनिक भागीदारी से जैव-विविधता का प्रबंधनः क्या भारत की भूमिका बेहतर हो सकती है ?

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02/11/2015
गज़ाला शहाबुद्दीन

भारत में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए अपनाये गये और कानूनी तौर पर स्थापित संरक्षित क्षेत्र ऐतिहासिक रूप में जैव-विविधता के संरक्षण के सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन रहे हैं. संरक्षित क्षेत्रों (PAs) के अंतर्गत मुख्यतः राष्ट्रीय पार्क और वन्यजीवन अभयारण्य आते हैं, लेकिन हाल ही में सामुदायिक रिज़र्व और संरक्षण रिज़र्व को भी इनमें शामिल कर लिया गया है. इस समय, भारत भर में लगभग 703 संरक्षित क्षेत्र (PAs) हैं, जो देश के भूमि-क्षेत्र के लगभग 5 प्रतिशत इलाके में फैले हुए हैं. ज़मीन और पानी की बढ़ती हुई माँग और 382 लोगों / वर्ग कि.मी. की जनसंख्या की उच्च सघनता के फलस्वरूप संरक्षित क्षेत्रों (PAs) के प्रति क्षेत्रीय प्रतिबद्धता के कारण जैव-विविधता को राष्ट्रीय स्तर पर प्राथमिकता मिलने लगी है.

चरागाहों, वर्षावनों और पहाड़ों के साथ-साथ भारत के अधिकांश पारिस्थितिक तंत्र (ईकोसिस्टम) को मिलाकर संरक्षित क्षेत्रों (PAs) को जलवायु और जलविज्ञान की दृष्टि से विविध वन्य वस्तुओं, पोषण चक्र और फसलों के सेचन की व्यवस्था के कारण व्यापक महत्व मिलने लगा है. फिर भी संरक्षण के इन जाने- माने गढ़ों के अंदर भी जैव-विविधता में गिरावट चिंताजनक है. दुर्लभ प्रजातियों की घटती आबादी, वनों के क्षय, प्रदूषण और प्राकृतिक ठौर-ठिकानों की घटती संयोजकता भी चिंताजनक है. 

संरक्षण का कार्य उन हालातों में और भी मुश्किल हो जाता है जब यह पाया जाता है कि अधिकांश संरक्षित क्षेत्र ऐसे लोगों से घिरे हुए हैं जो वन्य जीवन के संरक्षण के उद्देश्यों और ज़रूरतों से बिल्कुल विमुख हैं. जंगलों के उपयोग पर पाबंदी लगी है, गाँवों के विस्थापन की व्यवस्था कमज़ोर है, वन्य जीवन के साथ टकराव का वातावरण बना हुआ है, वनाधिकारों में स्पष्टता नहीं है और स्थानीय लोगों में ईंधन के कारण असंतोष फैला हुआ है. संरक्षित क्षेत्रों (PAs) के अंदर और आसपास रहने वाले लोग हर रोज़ ही अपनी आजीविका की समस्याओं के कारण और इन समस्याओं को सुलझाने में संरक्षित क्षेत्रों (PAs) के प्रबंधकों की उदासीनता के कारण असुरक्षा की भावना से जूझते रहते हैं. संरक्षित क्षेत्रों (PAs) के प्रबंधकों के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी है कि वे वन्य जीवन संरक्षण के लिए स्थानीय लोगों का समर्थन भी हासिल करें. न केवल नैतिक दृष्टि से, बल्कि व्यावहारिक दृष्टि से भी यह ज़रूरी है.

स्थानीय लोगों के सहयोग से न केवल अवैध शिकार और अन्य गैर-कानूनी वारदातों में कमी लाई जा सकती है,बल्कि बेहतर पारिस्थितिक तंत्र (ईकोसिस्टम) के प्रबंधन के लिए इससे जानकारी और मानवीय संसाधन भी उपलब्ध कराये जा सकते हैं. सार्वजनिक भागीदारी और आगे बढ़कर स्थानीय लोगों का सहयोग मिलने से टकराव की स्थिति में विभिन्न हितधारकों के साथ संवाद करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने में बहुत हद तक मदद भी मिल सकती है. कम से कम व्यवस्था करके भी संरक्षित क्षेत्रों (PAs) के प्रबंधक अनुसंधान और वन्य जीवन के प्रबंधन के लिए रचनात्मक गतिविधियों पर अधिक ध्यान दे सकेंगे.

बहुत समय तक संरक्षित क्षेत्र के प्रबंधन के काम में सार्वजनिक भागीदारी केवल प्रकृतिवादियों और वन्यजीवन के समर्थकों तक ही सीमित रही. ये ही लोग अवैतनिक रूप में वन्यजीवन के वार्डनों के रूप में काम करते रहे. प्राकृतिक इतिहास के क्षेत्र में अनुभवी होने के कारण अधिकांश वार्डनों को बहुत ही कम वैज्ञानिक प्रशिक्षण दिया जाता था और कभी-कभी तो किसी भी प्रकार का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता था. कुछ वार्डनों के पास तो संरक्षित क्षेत्र के साथ-साथ सामाजिक-पारिस्थितिकीय प्रणालियों का समग्र नज़रिया भी होता था और उस स्थल का ऐतिहासिक ज्ञान भी होता था. इसके अलावा, संरक्षित क्षेत्रों (PAs) के प्रबंधकों और वार्डनों का स्थानीय गाँव वालों के साथ केवल इतना ही संपर्क होता था कि वे पशुओं को चारा खिलाने या अवैध शिकार के लिए उन पर जुर्माना ठोक देते थे.

नब्बे के दशक में विश्व बैंक की सहायता से भारत सरकार ने भारत ईको विकास कार्यक्रम (IEDP) के ज़रिये इस समस्या का हल निकालने की कोशिश की. भौगोलिक क्षेत्र और निधि की दृष्टि से भारत ईको विकास कार्यक्रम (IEDP) नौ परियोजना स्थलों तक ही सीमित रहा और दस वर्ष की कालावधि (इस समय $67 मिलियन है) में इसका बजट 3 बिलियन रुपये था. लेकिन भारत ईको विकास कार्यक्रम (IEDP) स्थानीय लाभ और भागीदारी पर बल देने की दृष्टि से उस समय भारत में प्रचलित संरक्षण के अपवर्जनात्मक मानक  से बहुत अलग था. भारत ईको विकास कार्यक्रम (IEDP) का लक्ष्य था, वैकल्पिक उपायों के ज़रिये वन संबंधी गतिविधियों से आजीविका को अलग करके जैव-विविधता के लिए लोगों से टकराव को कम करना और स्थानीय ग्रामीण संस्थाओं के संरक्षण के लिए उन्हें और अधिक ज़िम्मेदारी सौंपना.

इस कार्यक्रम का मूल भाव यही था कि गाँव-गाँव में ईको विकास समितियाँ गठित की जाएँ और उनके माध्यम से विभिन्न गतिविधियों का संचालन किया जाए. परंतु कई कारणों से भारत ईको विकास कार्यक्रम (IEDP) आगे नहीं बढ़ पाया. भारत ईको विकास कार्यक्रम (IEDP) के बीजधन की मदद से अनेक योजनाएँ शुरू की गईं, लेकिन परियोजना की अवधि के बाद वे आगे न बढ़ सकीं. इसका एक मूल कारण तो यही था कि सतत रूप में ऐसी स्थानीय ग्रामीण संस्थाओं का गठन न हो सका, जिनके ज़रिये प्रभावी ढंग से काम को अंजाम दिया जा सके और परियोजना की अवधि के बाद भी गतिविधियों का संचालन होता रहे. कुछ और भी कारण थे, जिनकी वजह से इन समस्याओं का समाधान न हो सका, जैसे, ऊपर से नीचे तक काम करने की पद्धति, सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से अनुपयुक्त गतिविधियाँ और सीमांत वर्गों को निरंतर इस कार्यक्रम से अलग रखना.

कुछ अपवाद भी थे, जैसे, पेरियार बाघ रिज़र्व (केरल). यहाँ स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए ईको पर्यटन कार्यक्रम चलाया गया, जबकि इस कार्यक्रम को शुरू करने से पहले ये लोग अवैध शिकार जैसी गैर-कानूनी वारदातों पर ही निर्भर रहते थे. वनस्पति और जीवों की अच्छी जानकारी होने के कारण वे बढ़िया प्रकृति गाइड बन गए और वर्षावनों से संबंधित रिज़र्व में पर्यटकों को वन्यजीवन की पैदल लंबी यात्रा कराने लगे. अन्य सहकारी कार्यक्रम भी सफल होने लगे, जिनके कारण धार्मिक उत्सवों के समय बाग-बगीचों के फल-फूल बिकने लगे और फ़ूड स्टॉल पर भी उनकी बिक्री होने लगी, लेकिन सफलता की ऐसी कहानियाँ कम ही थीं. अधिकांश स्थलों पर तो वित्तपोषित परियोजना की अवधि समाप्त होने के बाद भारत ईको विकास कार्यक्रम (IEDP) का नामो-निशान भी बाकी न रहा. 

भारत में संरक्षित क्षेत्रों (PA) के प्रबंधन में विकास का दूसरा अवसर सन् 2005 में आया, लेकिन इसकी विडंबना यही थी कि उस समय सरिस्का बाघ रिज़र्व में बंगाल का बाघ स्थानीय तौर पर विलुप्त होने के कगार पर था. बाघों के संरक्षण में बाधक तत्वों की खोज के लिए दीर्घकालीन योजना बनाने के उद्देश्य से प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुनीता नारायण की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय स्तर का बाघ कार्यबल गठित किया गया. लंबे विचार-विमर्श के बाद प्रत्येक राज्य में एक सलाहकार समिति गठित करने और उसमें वन अधिकारियों, ग्रामीण समूहों, एनजीओ के प्रतिनिधियों के अलावा अन्य योग्य व्यक्तियों को सहयोजित करने का निर्णय किया गया. वैसे तो इस समय भी इसके लिए कानूनी प्रावधान है. प्रबंधन की योजना के संबंध में सलाह देते हुए हस्तक्षेप के माध्यम से प्रस्तावित सलाहकार समिति से यह अपेक्षा की गई थी कि वह स्थानीय अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी के बीच के टकराव को दूर करने में मदद करेगी, लेकिन राज्यों के वन विभागों द्वारा इस सुझाव पर आंशिक रूप में भी अमल नहीं किया गया.

अभी तक बाघ रिज़र्व (देश भर के 703 संरक्षित क्षेत्रों में से 48) में ईको विकास संबंधी गतिविधियों के लिए सीमित बजट ही है. दुर्भाग्य से इस बजट का उपयोग गाँव-आधारित गतिविधियों के लिए शायद ही कभी किया जाता हो और अगर कभी उपयोग होता भी है तो भी केवल हाई प्रोफ़ाइल बाघ रिज़र्व के लिए ही होता है. हाल ही में एक सकारात्मक गतिविधि यही हुई है कि संरक्षित क्षेत्रों से विस्थापित लोगों के पुनर्वास के कार्यक्रमों पर नज़र रखने के लिए राज्य स्तर पर निगरानी समितियाँ गठित की गई हैं. इन समितियों में वन अधिकारियों के साथ-साथ स्वतंत्र विशेषज्ञ भी हैं. हाल ही में इन समितियों ने तमिलनाडु स्थित मुदुमलाई बाघ रिज़र्व और कर्नाटक स्थित नगर होल बाघ रिज़र्व जैसे कुछ संरक्षित क्षेत्रों में गाँव पुनर्वास प्रक्रिया की चौकसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.  

स्थानीय संरक्षित क्षेत्रों में भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए सिर्फ़ सरकारी हस्तक्षेप ही नहीं, पर्याप्त निधि की भी ज़रूरत होती है. आजीविका के लिए हस्तक्षेप करने, टकरावों को कम करने और क्षतिपूर्ति योजनाएँ बनाने और लोगों तक पहुँच बनाने जैसे काम कुछ ऐसे विविध क्षेत्र हैं, जिनके लिए निधि उपलब्ध नहीं है. इनके वित्तपोषण के लिए निधि की व्यवस्था आवश्यक है. 12 वीं पंचवर्षीय योजना में पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बजट में 85 प्रतिशत कटौती के कारण अतिरिक्त गतिविधियों की तो बात छोड़ दें, संरक्षण क्षेत्रों के प्रबंधकों के लिए अपने कर्मचारियों को वेतन देने और फ़ील्ड उपकरण की खरीद जैसे बुनियादी खर्चों को पूरा करना भी कठिन हो गया है. 

एक समाधान तो यह हो सकता है कि राष्ट्रीय क्षतिपूरक वनरोपण एवं निधि प्रबंधन व योजना प्राधिकरण (CAMPA) की निधियों का उपयोग किया जाए. जब उद्योग और अवसंरचनात्मक विकास के लिए वन्य भूमि का हस्तांतरण किया जाता है तो राष्ट्रीय क्षतिपूरक वनरोपण एवं निधि प्रबंधन व योजना प्राधिकरण (CAMPA) की निधि सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं से क्षतिपूरक वनरोपण की गतिविधियों के लिए संग्रहीत की जाती है. आज उनका मूल्य 380 बिलियन रुपये (अर्थात् $5.9 बिलियन डॉलर) है. संरक्षण क्षेत्रों के प्रबंधन में सुधार के लिए राष्ट्रीय क्षतिपूरक वनरोपण एवं निधि प्रबंधन व योजना प्राधिकरण (CAMPA) की निधियों के उपयोग का औचित्य इस आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है कि जैव-विविधता के संरक्षण से दीर्घकालीन और अल्पकालीन लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं. इसके अलावा पर्यटकों के प्रवेश-शुल्क से हर साल होने वाली लाखों रुपये की आमदनी का उपयोग भी इस प्रकार के हस्तक्षेपों को मज़बूत करने के लिए किया जा सकता है.

भले ही सिविल सोसाइटी द्वारा आरंभ की गई इस प्रकार गतिविधियाँ बिखरी हुई हैं, फिर भी इनसे प्रकृति के संरक्षण का मुद्दा लोगों तक पहुँचा है और बहुत हद तक इस आंदोलन में तेज़ी भी आई है. उदाहरण के लिए, हिमाचल प्रदेश में बर्फीले तेंदुए के संरक्षण और उत्तराखंड में पक्षियों पर आधारित पर्यटन को ही लें. इन राज्यों के वन विभागों और एनजीओ द्वारा संयुक्त रूप से चलाये गये सतत अभियान से अच्छे नतीजे मिलने शुरू हो गए हैं. इस प्रकार के उदाहरणों का अध्ययन करके और उनसे सबक लेते हुए अन्य स्थलों पर भी ऐसे ही अभियान चलाये जा सकते हैं. इसके अलावा, भारत में संरक्षण रिज़र्व और सामुदायिक रिज़र्व जैसे कुछ संरक्षित क्षेत्रों की नई कानूनी कोटियाँ बनाई गई हैं, जिनमें सार्वजनिक भागीदारी आवश्यक कर दी गई है. इनका उपयोग लोगों की व्यापक भलाई के लिए किया जा सकता है. सार्वजनिक भागीदारी से वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम के वर्तमान प्रावधानों को लागू किया जा सकता है. ज़ाहिर है कि यदि सही परिवेश में अनुकूल नीतियाँ बनाई जाएँ तो विभिन्न क्षेत्रों में भागीदारी पर आधारित चलाई जाने वाली स्थान-विशेष की गतिविधियों के ज़रिये इनके संचालन में निरंतर सुधार लाया जा सकता है. 

गज़ाला शहाबुद्दीन पारिस्थितिकी,विकास और अनुसंधान केंद्र (CEDAR) में सीनियर फ़ैलो हैं और कैसी फ़ॉल2015 की विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919