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माणिकपुर रेलवे जंक्शनः असमान विकास का भूगोल

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17/08/2020
साई बालकृष्णन् एवं अरिंदम दत्त

कोरोना वायरस से फैली महामारी के कारण भारत सरकार द्वारा देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने के दो महीने के बाद भुखमरी के कगार पर खड़े लाखों मज़दूर हज़ारों किलोमीटर दूर अपने गाँवों के अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थलों की ओर पैदल निकल पड़े. जिस रेल के डिब्बे में सवार होकर वे अपने गाँवों से शहरों की ओर गए थे, उसी रेल की उन्हीं परिचित पटरियों पर चलते हुए वे अपने गाँवों की ओर लौटने लगे. 8 मई को औरंगाबाद के पास रेल की पटरी पर सोते हुए सोलह प्रवासी मज़दूरों को मालगाड़ी ने अपने पहियों से रौंद दिया. पूरे मध्य भारत में इस त्रासदी के कारण लोगों में उत्पन्न रोष को देखते हुए भारत सरकार ने विवश होकर शहर के प्रवासी मज़दूरों को उनके घर वापस भेजने के लिए विशेष रेलगाड़ियाँ ( प्रतिदिन 400 गाड़ियाँ) चलाना शुरू कर दिया. प्रवासी मज़दूरों के खास समूहों के प्रस्थान / गंतव्य स्थलों के आधार पर हर गाड़ी का विशेष मार्ग निर्धारित किया गया. जैसे-जैसे कोविड-19 स्पेशल नामक विशेष श्रमिक गाड़ियाँ पश्चिम और दक्षिण भारत से पूर्वी भारत की ओर चलने लगीं, कुछ गाड़ियाँ अपने निर्धारित समय से काफ़ी देरी से बल्कि कई दिन बाद अपने गंतव्य स्टेशनों पर पहुँचीं. मीडिया में इन गाड़ियों को “गुमशुदा गाड़ी” कहा जाने लगा. इन गाड़ियों में सफ़र करने वाले ये यात्री रास्ते में भोजन और पानी के लिए तरसते रहे, क्योंकि रेल अधिकारियों के लिए निर्धारित समय-सारणी के बिना चलने वाली इन गाड़ियों में इतनी बड़ी मात्रा में खान-पान की व्यवस्था करना बहुत कठिन था. रेल अधिकारी बार-बार सूचना देते रहे कि ये गाड़ियाँ गुमशुदा नहीं हैं, बल्कि मध्य भारत में स्थित माणिकपुर नामक छोटे-से कस्बे के स्टेशन पर, जिसे लोग कम ही जानते हैं, कई गाड़ियों के एक साथ यातायात जाम होने के कारण उनका मार्ग बदलना पड़ा. 

माणिकपुर रेलवे जंक्शन बुंदेलखंड क्षेत्र के चित्रकूट ज़िले में है. यह स्टेशन गंगा-यमुना की संगमस्थली प्रयागराज / इलाहाबाद के पश्चिम में सौ किलोमीटर की दूरी पर है सामान्यतः 16,000 की आबादी का यह छोटा-सा कस्बा भारतीय रेल के राष्ट्रीय नैटवर्क में बहुत महत्व नहीं रखता. इसलिए वहाँ ऐक्सप्रैस गाड़ियों के रुकने की समय-सारणी में कोई व्यवस्था नहीं की गई है, जबकि हर रोज़ कई दर्जन रेलगाड़ियाँ वहाँ से गुज़रती हैं. माणिकपुर, सिस्टम के इस संकट में कैसे फँसा, इसे समझने के लिए भारत के इतिहास में विकास के भूगोल के उस पक्षपातपूर्ण दौर को समझना होगा जब पहली बार यह संकट उत्पन्न हुआ था. यह स्टेशन ब्रिटिश युग की इंडियन मिडलैंड रेलवे कंपनी द्वारा सबसे पहले इस रूट पर बिछायी गई  रेल लाइन पर पड़ता है. यही एकमात्र बड़ी “ट्रंक”-लाइन है जो मध्य भारत में स्थित विंध्याचल के दुर्गम नदी-नालों के आर-पार से गुजरती है. यही वह विंध्याचल है जो इसके मध्य और दक्षिणी पठारों को उत्तर भारत के निचले मैदानों से अलग करता है. माणिकपुर की “अप” और “डाउन” दोनों ही लाइनों के लिए पश्चिमी भारत और दक्षिण भारत से प्रयागराज /इलाहाबाद की ओर जाने का और उससे आगे बंगाल डेल्टा की ओर गंगा के निचले मैदानी इलाके की ओर जाने का यही एकमात्र गेटवे है. यह डेल्टा उन इलाकों में से एक है, जहाँ दुनिया की सबसे घनी आबादी रहती है और अगर तुलना करें तो लंदन महानगरीय क्षेत्र से दुगुनी आबादी यहाँ रहती है.  

और फिर भी गंगा के निचले मैदानी इलाके में भारत में शहरीकरण की सबसे निचली दर यहीं पर है और यह इलाका अन्य क्षेत्रों की तुलना में समृद्धि के निर्माण में “प्राकृतिक” संसाधनों की दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ है. आबादी के घनत्व और शहरीकरण के बीच के परस्पर विरोधी संबंधों का अंतर्विरोध तब और भी गहरा जाता है जब हम बाज़ार निर्माण के अन्य उन तमाम क्लासिक संचालकों पर गौर करते हैं जो यहाँ भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं: आरंभिक ब्रिटिश युग में बनाये गए रेलवे नैटवर्कों के साथ संलग्न नदी का एक प्रमुख गलियारा, भरपूर प्राकृतिक बारिश और मिट्टी की भारी उर्वरता. आबादी के उच्च घनत्व और विकास न होने के कारण ही मुख्यतः गंगा के निचले मैदानी इलाकों से भारी संख्या में प्रवासी मज़दूर भारत के अन्य इलाकों में जाने के लिए विवश होते हैं. 

इसके अलावा इस पहेली का एक भाग वे क्षेत्र भी हैं, जहाँ प्रवासी मज़दूर काम की तलाश में जाते रहे हैं. शहरीकरण के संपन्न हॉटस्पॉट मुख्यतः देश के अपेक्षाकृत बंजर इलाकों में हैं. दूसरे शब्दों में गंगा के पूर्वी भाग से आने वाले प्रवासी मज़दूर उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के उन शहरों की ओर जाते हैं, जिनका निर्माण उन्होंने स्वयं अपने श्रम से किया होता है. वस्तुतः गंगा के मैदानी इलाके के साथ-साथ आर्थिक भूगोल के अंतर को भी देखा जा सकता है. गंगा के निचले मैदानी इलाकों के विपरीत इलाहाबाद / प्रयागराज के ऊपरी क्षेत्रों का आर्थिक भूगोल बिल्कुल अलग है: यह इलाका गंगा-जमुना के ऊपरी दोआब से लेकर आबादी के अपेक्षाकृत कम घनत्व वाले उत्तरी पंजाब (पंच (पाँच) आब) तक फैला हुआ है. खेती-बाड़ी की भाषा में ये “नहरों के ज़िले” कहलाते हैं. शहरीकरण का यह समकालीन असमान भूगोल ब्रिटिश युग के नहरों के सिंचाई-नैटवर्क में खोजा जा सकता है.

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश प्रशासकों ने गंगा के ऊपरी मैदान में नहरों का जाल बिछाया था. बड़े पैमाने पर पड़ने वाले अकाल और किसान विद्रोह के कारण नहरों का यह जाल बिछाया गया था. लेकिन सबसे बड़ा कारण था ब्रिटिश राज को मिलने वाले राजस्व को बढ़ाने के लिए कृषियोग्य भूमि की उत्पादकता बढ़ाना. नहरों के निर्माण के लिए क्षेत्रीय उपयुक्तता को सुनिश्चित करने के लिए ब्रिटिश इंजीनियरों ने दो प्रकार की ज़मीनों को अलग कर दिया था. वह ज़मीन जहाँ कम बारिश होती है और वह ज़मीन जहाँ काफ़ी बारिश होती है और सिंचाई की अच्छी सुविधा भी है (अर्थात् निचली गंगा घाटी). इस प्रकार अर्ध-बंजर ज़मीन और गंगा दोआब और पंजाब के आंशिक रूप में सिंचित क्षेत्रों को नई नहरों का लाभ मिला. बारह महीने नदियों का प्रवाह बनाये रखने के लिए इन नहरों को नदियों के बीच काट दिया गया. (जैसा कि पश्चिमी और दक्षिण भारत में कृष्णा और कावेरी पर बाँध बना दिया गया). ब्रिटिश आर्थिक चिंतन की मुख्यधारा के अनुरूप इन कृषि संबंधी “सुधारों” का स्पष्ट मकसद समग्र रूप में कृषि संकट को खत्म करना नहीं था, बल्कि सिंचाई की व्यवस्था करके मात्र उत्पादकता को बढ़ाना था. इस दौरान जिस तरह से नहरों के असमान मार्गों को जोड़ा गया उससे बहुत-सी बातें सामने आईं: नये सिंचित क्षेत्रों में भू-राजस्व की संभावनाएँ, जाट और गुज्जर जैसी कुछ “मज़बूत जातियों” का मध्यमवर्गीय किसानों के रूप में रूपांतरण और कीमतों की घट-बढ़ से अकाल और किसान विद्रोह में कमी और अब उत्पादकता बढ़ाकर और देशव्यापी कीमतों को नियंत्रित करके रेलवे के निर्माण से आपूर्ति का समीकरण.  

जल-इंजीनियरी का बुनियादी ढाँचा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में स्थानीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने वाली लोकतांत्रिक राजनीति की शुरुआत से मेल खाता था. इस अवधि के दौरान जाट महासभा और आर्यसमाज जैसी विभिन्न सभाओं और समाजों के रूप में रिश्तेदारी पर आधारित गुटों का सूक्ष्म स्तर पर गठन किया गया. ये दोनों संस्थाएँ उत्तर भारत में कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुईं. कृषि के क्षेत्र में इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप एक सशक्त और मध्यमवर्गीय किसानों का स्थानीय मतदाता संघ उभरकर सामने आ गया. यह एक प्रकार की “मशीनी-राजनीति” थी, जिसका उद्देश्य राजस्व, खेती के लिए आवश्यक बीज और उससे होने वाली उपज पर आधारित विनियामक तंत्र विकसित करने के साथ-साथ नहर के पानी (और उसे प्रवाहित करने के लिए अपेक्षित ऊर्जा) को बिना मूल्य की सार्वजनिक भलाई में परिवर्तित करने के उद्देश्य से दीर्घकालीन दबाव बनाये रखना था तब यही हमारा व्यापक तर्क होता है कि सरकारी हस्तक्षेप से पूँजी संचय बढ़ता है और उसके बाद यह जातीय सरकार हस्तक्षेप पर कब्ज़ा जमाने लगती है. हम यही बताने का प्रयास कर रहे हैं कि सरकारी संसाधनों का मात्र पक्षपातपूर्ण भूगोल ही नहीं, बल्कि इन संसाधनों पर कुछ गुटों का विनियामक कब्ज़ा भी इसके लिए उत्तरदायी है. ऊपरी गंगा का मैदान अन्य मध्यमवर्गीय किसान गुटों द्वारा सरकारी संसाधनों पर कब्ज़े के व्यापक थीम का क्षेत्रीय उदाहरण है और अब यही गुट देश के कहीं अधिक शहरीकृत क्षेत्रों में रच-बस गया है.

अच्छी बारिश वाला तटवर्ती क्षेत्र अर्थात् गंगा का निचला मैदान ब्रिटिश युग के सरकारी संसाधनों से मोटे तौर पर वंचित रहा है. स्वतंत्र भारत में कृषि के आधुनिकीकरण के हरित क्रांति के कार्यक्रम के साथ यह पैटर्न फिर से दोहराया गया और हालात और भी बिगड़ गए. पचास और साठ के दशक में सूखे के हालात में और खाद्य और मूल्यों के मुद्रास्फीति संबंधी संकट के निवारण के लिए किये गए आपात्कालीन उपायों की श्रृंखला के रूप में यह कार्यक्रम शुरू किया गया था. इसके कारण भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति को भारी चुनौती से जूझना पड़ा और सरकार को औद्योगीकरण का प्रयास शुरू करना पड़ा. हमारे शोध से पता चलता है कि कृषि वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों को यह काम सौंपा गया कि वे गहन कृषि विकास कार्यक्रम (IADP) का मार्गदर्शी कार्यक्रम चलाने के लिए कुछ ज़िलों का चयन करें और उन्होंने अपने पूर्ववर्ती ब्रिटिश आकाओं के आपूर्ति-आधारित समाधानों को फिर से दोहराया. उत्तर भारत में, “निश्चित जल-आपूर्ति वाले” उन्हीं क्षेत्रों का चयन किया गया, जिनके ज़िलों में नहर की व्यवस्था थी और ये ज़िले वही थे, जो आज़ादी के आरंभिक वर्षों में नये बहु-उद्देश्यीय बाँधों के निर्माण से लाभान्वित हुए थे. इन ज़िलों को ही फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन की “पैकेज योजना” का सबसे पहले लाभ मिला. साठ के दशक में भारत के खाद्य आपूर्ति के संकट के समाधान में जैसे ही इन उपायों से सफलता मिली, भारत सरकार ने अपने-आपको अन्य कृषि क्षेत्रों में ऐसे सार्थक हस्तक्षेपों से अलग कर लिया.

मुद्रास्फीति और मूल्यों के परिदृश्य में इन क्षेत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए मध्यम वर्गीय किसानों का यह गुट अस्सी के दशक से राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी मंच पर धमाके के साथ सामने आ गया था. जब भारत की कृषि मंडी ने वैश्विक मंडी से गठजोड़ करके उपज की कीमतों को कम करने में सफलता प्राप्त की तो ठीक उसी समय कृषि के इन खिलाड़ियों ने राजनीति के दंगल को और सरकारी साधनों को हथिया लिया था. इसके कारण कृषि का अधिशेष सरकारी हस्तक्षेप पर और भी निर्भर करने लगा. इन मध्यमवर्गीय किसान मतदाता संघों के उच्च वर्ग ने विधायिका पर कब्ज़ा करके नियमों में बदलाव करने की क्षमता के कारण ही हम देखते हैं कि आज ये लोग खेती-बाड़ी को छोड़कर रियल एस्टेट के धंधे में आने लगे हैं. दूसरे शब्दों में हमारे शोधकार्य से पता चलता है कि इन्होंने ब्रिटिश युग की विरासत का अनुसरण करते हुए उनके ही मार्ग का अनुकरण किया है. शानदार हरित क्रांति के लिए उन क्षेत्रों का ही चयन किया है जो ब्रिटिश युग में नहरों की सिंचाई से सबसे अधिक लाभान्वित हुए थे और आज ज़मीनों की सट्टेबाज़ी में सबसे अधिक लाभान्वित भी यही क्षेत्र हो रहे हैं.

लॉकडाउन ने इस असमान भूगोल को फिर से उजागर कर दिया है. वस्तुतः अंतर्राज्यीय परिवहन के ठप्प होने मात्र से ही इनका भूगोल उभरकर सामने आ गया है. रियल इस्टेट के क्षेत्र (राजनैतिक लाभ का प्रमुख स्रोत) के दबाव के कारण शहरीकृत क्षेत्रों में स्थित राज्य सरकारों ने कामगारों को “नियंत्रित” करने के लिए और उन्हें उपेक्षित क्षेत्रों में स्थित अपने गाँव वापस जाने से रोकने के लिए अंतर्राज्यीय परिवहन ठप्प कर दिया ताकि लॉकडाउन उठते ही तत्काल काम शुरू किया जा सके. अचानक ही इन दोनों क्षेत्रों के भूगोल के बीच स्थित माणिकपुर ने असमानता के भूगोल की पोल खोल दी कि यह पूँजी तो अर्ध बंजर इलाकों में कृषि उत्पादन में संलग्न उच्च वर्ग से आती है और श्रमिक, गंगा के निचले मैदान के “वर्षा सिंचित मनहूस” किसान वर्ग से आते हैं.

साई बालकृष्णन् हार्वर्ड ग्रैजुएट स्कूल ऑफ़ डिज़ाइन में शहरी नियोजन के प्रोफ़ेसर हैं और निम्नलिखित पुस्तक के लेखक हैं... Shareholder Cities: Land Transformations Along Urban Corridors in India (University of Pennsylvania Press, 2019).

अरंदिम दत्त MIT में वास्तुकला से संबंधित इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं. वह इस समय निम्नलिखित पुस्तक लिखने में संलग्न है:  The Liberal Arts after Liberalization: सहमत 1989-2019.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919