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सड़क पर होने वाले उत्पीड़न पर ही पुलिसिंग क्यों ? महिलाओं के अधिकार और हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति

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18/07/2022
पौलमी रॉयचौधुरी

मई,2014 में भारतीय संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने माँग की थी कि राजनेताओं को चाहिए कि वे महिलाओं और बच्चों को हिंसा से बचाने के लिए एकजुट होकर काम करें. मोदी ने स्वाधीनता दिवस के अपने पहले संबोधन में भी इसी संदेश को दोहराया था और अपने बच्चों को अनुशासित न रख पाने के लिए उनके माता-पिता की आलोचना की थी. सन् 2014 से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा शासित राज्यों में सड़कों पर होने वाले उत्पीड़न को रोकने के लिए विशेष पुलिस दल तैनात किये गए थे. सड़क पर होने वाले उत्पीड़न पर ही पुलिसिंग क्यों ?

सड़कों पर होने वाले उत्पीड़न को रोकने के लिए और राजनेताओं के भारी दबाव में काम करने वाले पुलिस बल की तैनाती से भाजपा कई राजनीतिक लाभों को साधने का प्रयास करती है. पार्टी को पहला राजनीतिक लाभ तो यही होता है कि पार्टी महिला मतदाताओं से अपील करती है कि वे बाहर आने-जाने और सार्वजनिक सुरक्षा से संबंधित मामलों को उठाती रहें. दूसरा राजनीतिक लाभ यह होता है कि पार्टी महिलाओं के साथ घर के अंदर और कार्यस्थलों पर होने वाली हिंसा के बजाय महिलाओं के साथ अज्ञात व्यक्तियों से होने वाली हिंसा पर ध्यान केंद्रित करती है.  अंततः वह पुलिस की संस्था को लामबंद करके पुलिस पर अपना नियंत्रण बना लेती है और इसके कारण भाजपा के राजनेता और संबंधित संगठन उत्पीड़न से होने वाली व्यक्तिगत स्तर की वारदातों को चिह्नित करके आरोपी को अपनी निगरानी में दंडित करवाते हैं.

अविश्वसनीय निष्ठा
सड़क पर होने वाले उत्पीड़न पर भाजपा के नेतृत्व में पुलिसिंग के प्रयास की बात उलझन में डाल देती है. इस मुद्दे पर पार्टी के हित उसके लैंगिक इतिहास और नीति से जुड़े मंचों की दो प्रमुख बातों से टकराते हैं. भाजपा परंपरागत तौर पर पुरुषप्रधान पार्टी रही है. इसी कारण पुरुष मतदाता उसके पक्ष में मतदान करते हैं और पार्टी मोटे तौर पर राजनीतिक पदों के लिए पुरुषों को ही चुनाव के मैदान में उतारती है. यह स्पष्ट नहीं होता कि पुरुषों के वर्चस्व वाला ऐसा दल और नेतृत्व सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की सुरक्षा को कैसे सुनिश्चित कर पाएगा.

सड़कों पर महिलाओं के अधिकारों पर ज़ोर देने वाली मोदी सरकार घर पर महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा करती है. सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार भारतीय दंड संहिता की धारा 498 A का लगातार विरोध करती रही है. इस धारा के अंतर्गत घरेलू हिंसा के खिलाफ़ आर्थिक प्रतिबंध का प्रावधान किया गया है. महिलाओं द्वारा इस धारा के दुरुपयोग का तर्क देकर गृह मंत्रालय ने एक ऐसा कानून बनाने का प्रस्ताव किया है कि ऐसे मामलों को अदालत के बाहर ही सुलझा लिया जाए और “झूठी” शिकायतों करने वालों पर जुर्माना भी बढ़ा दिया जाए. घरेलू हिंसा पर किये गए मेरे पहले के शोधकार्य में यह स्पष्ट किया गया है और प्रमुख वकीलों और विधिवेत्ताओं की भी यही राय है कि घरेलू हिंसा के विरुद्ध अपने अधिकारों का दावा करते समय महिलाओं के सामने बहुत बड़ी-बड़ी बाधाएँ आती हैं और इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उसे अनेक प्रकार की संगठनात्मक मदद की ज़रूरत पड़ती है. इस प्रस्तावित संशोधन ने पहले से ही कठिन कानूनी परिदृश्य को और भी कठिन बना दिया है. इसमें महिलाओं के पक्ष को झूठा मानकर अदालत के बाहर ही उसे सुलझाने पर ज़ोर दिया गया है और शिकायत दर्ज करने के वित्तीय खर्च को बढ़ाकर इसे और भी अधिक दुर्गम बना दिया गया है.

भाजपा के राजनेता और भाजपा से संबद्ध स्वैच्छिक संस्थाएँ अनेक सांप्रदायिक दंगों में मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों के साथ यौन हिंसा में लिप्त रहे हैं. इसके अंतर्गत बाबरी मस्जिद से संबंधित दंगे और 2002 के वे दंगे भी शामिल हैं, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और 2013 में मुजफ़्फ़रनगर के वे दंगे जिनमें लगभग पचास मुस्लिम महिलाओं का हिंदू पुरुषों ने सामूहिक बलात्कार किया था. ये तमाम हिंसक वारदातें सड़कों पर ही हुईं. अब यही वह स्थान है जिसे भाजपा कदाचित् सुरक्षित बनाने का प्रयास कर रही है.

इस पृष्ठभूमि में भाजपा द्वारा शासित तीनों राज्यों (गुजरात,हरियाणा और उत्तर प्रदेश) द्वारा उत्पीड़न स्थलों पर यौन हिंसा की वारदातों पर रोक लगाने के लिए विशेष पुलिस यूनिट स्थापित किये गये हैं. उत्पीड़न को सार्वजनिक स्थल पर हुई वारदात के रूप में परिभाषित किया गया है. ऐंटी-रोमियो स्क्वॉड (यूपी और गुजरात) और ऑपरेशन दुर्गा (हरियाणा) पार्कों और परिवहन स्थलों पर गश्त लगाते हैं और लड़कियों का पीछा करने वाले, उन पर फ़िकरे कसने वाले और गंदी टिप्पणियाँ करने वाले  "छेड़छाड़ करने वाले मनचलों" और "रोमियो" को गिरफ्तार करके उन पर जुर्माना लगाते हैं. ये स्क्वॉड उन पर भारत के 2013 के ‘कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न नीति की रोकथाम’ के कानून (POSH) के तहत कार्रवाई नहीं करते.

यू.पी. से प्राप्त विवरणों से उनके द्वारा की गई ज़मीनी कार्रवाई की एक झलक मिल जाती है. योगी आदित्यनाथ ने सन् 2017 में ऐंटी-रोमियो स्क्वॉड की चर्चा की थी तो उनके चुनावी अभियान के घोषणापत्र में उन खतरों का उल्लेख किया गया था जो मुस्लिम पुरुष हिंदू महिलाओं के लिए पेश करते हैं. मार्च 2017 से लेकर दिसंबर 2020 के बीच ऐंटी-रोमियो स्क्वॉड ने 14,454 से अधिक पुरुषों को गिरफ़्तार किया था. उन्होंने कानून से इतर भी कई अनेक कार्रवाइयाँ की हैं, जिनमें रिहाई के बदले जबरन वसूली और सार्वजनिक रूप से शर्मसार करने वाली कार्रवाइयाँ जैसे कि उठक-बैठक लगावाना, सिर मुंडवाना और चेहरे पर काला पोतना जैसी  कार्रवाइयाँ शामिल हैं.

अधिकारी संभावित  “रोमियोज़”  की पहचान उनके कपड़ों से करते हैं: काला चश्मा और कमीज़ के ऊपर के तीनों बटन खुले रखने वाले पुरुषों को रोमियो माना जाता है. भाजपा से संबद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) जैसे संगठनों के सदस्य कानून से इतर दंड दिलाने में पुलिस के साथ मिलकर काम करते हैं. कुछ आलोचक इस तरह के स्क्वॉडों पर आरोप लगाते हैं कि ये लोग भाजपा के राजनीतिक विरोधियों, निम्नस्तरीय सामाजिक समुदायों ( मुस्लिम और कामगार लोगों) को निशाना बनाते हैं और समलैंगिकता और विवाहेतर, अंतर-जाति और पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर-धार्मिक यौन संबंधों के मामलों में नैतिक पुलिसिंग का काम करते हैं.

सड़क पर होने वाले उत्पीड़न पर पुलिसिंग की राजनीति
एक बार फिर से यही सवाल उठता है कि सड़क पर होने वाले उत्पीड़न पर पुलिसिंग क्यों? पहली बात तो यह है कि सड़कों पर होने वाला उत्पीड़न महिलाओं के लिए बहुत बड़ा मामला होता है और इस पर पुलिसिंग करके भाजपा यह साबित करने का प्रयास करती है कि वह महिलाओं के हितों का समर्थन करती है. भारत के प्रमुख महानगरीय केंद्रों के सर्वेक्षण के परिणामों से पता चलता है कि महिलाएँ सड़कों पर असुरक्षित महसूस करती हैं. कोलकाता में महिलाएँ रात को बाहर निकलने से बचती हैं और खाली सड़कों से बचने का प्रयास करती हैं. मुंबई में 91 प्रतिशत महिलाएँ सड़कों पर असुरक्षित महसूस करती हैं, जबकि दिल्ली में 95 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि वे उत्पीड़न के डर से बाहर निकलने से बचती हैं. उत्पीड़ित महिलाओं की बढ़ती संख्या से महिलाओं की चिंता का पता चलता है. 40 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि दिल्ली में उन्हें शारीरिक या मौखिक रूप में उत्पीड़ित किया गया, जबकि मुंबई में यह संख्या 80 प्रतिशत से भी अधिक है. 

2012 में जब ज्योति सिंह पांडेय का सामूहिक बलात्कार करके वैन में ही उनकी हत्या कर दी गई थी, उस समय सक्रिय कार्यकर्ताओं ने रात के समय गश्त की, ये लोग पार्कों में सोये और सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए गश्त लगाते रहे. इस बीच, नारीवादी कार्यदलों ने अपने अभियानों में राजनेताओं से उनकी सार्वजनिक सुरक्षा की माँग की. इस प्रकार की चिंताओं के निवारण के लिए भाजपा ने महिला मतदाताओं से भारी संख्या में बाहर निकलकर मतदान करने की अपील की. पुलिसिंग पर ध्यान केंद्रित करने का असर दिखाई देने लगा है. पहली बार महिला मतदाताओं ने सभी चारों राज्यों में पुरुषों की तुलना में भारी तादाद में मतदान किया और 2022 के विधानसभा के चुनावों में पार्टी ने जीत हासिल की. कई महिलाओं ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने भाजपा का समर्थन इसलिए किया क्योंकि यही पार्टी कानून-व्यवस्था को सख्ती से लागू करा सकती है.

ज़ाहिर है कि सड़क पर उत्पीड़न का मुद्दा महिलाओं के लिए बहुत बड़ा मुद्दा है, लेकिन मात्र इसी कारण से भाजपा का समर्थन करना भ्रामक होगा. अंततः भारत में सड़क पर उत्पीड़न महिलाओं के प्रति लिंग-आधारित हिंसा का ही एक रूप है. भारत में 30 प्रतिशत से अधिक महिलाएँ और लड़कियाँ घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं. कम मज़दूरी पाने वाली और कारखानों, घरेलू मज़दूरी करने वाली और निर्माण कार्यों से जुड़ी महिलाएँ कार्यस्थलों पर ही यौन हिंसा और उत्पीड़न की शिकार होती हैं. कार्यस्थल पर उत्पीड़न की अनदेखी करते हुए और घरेलू हिंसा के खिलाफ़ महिलाओं के अधिकारों को कम आँकते हुए, भाजपा सड़क पर उत्पीड़न की ओर ध्यान आकर्षित करके लैंगिक उत्पीड़न के संभावित महत्वपूर्ण संस्थागत स्थलों पर उत्पीड़न को कम करके आँकती है. अन्य प्रकार की हिंसाओं की अनदेखी करते हुए खास तरह की हिंसा पर असंतुलित ध्यान देने का स्पष्टीकरण भाजपा को देना होगा.

सड़क पर होने वाले उत्पीड़न पर पुलिसिंग करने का एक स्पष्ट लाभ तो यह है कि इसकी वजह से अपेक्षाकृत दुर्गम स्थलों पर बसे कारखानों और घरों तक पहुँचने से बचा जा सकता है. इसके कारण मालिक और मज़दूर के बीच और पति- पत्नी के बीच का सामाजिक तानाबाना भी बना रहता है जिसके कारण कारखाने और घर की दीवारें खड़ी होती हैं. और इसके कारण उनका यह काल्पनिक विचार भी कायम रहता है कि सड़क पर आवारागर्दी करने वाले अनजान लोग कदाचित् महिलाओं को नुक्सान पहुँचा सकते हैं. भारतीय संदर्भ में, जहाँ सामाजिक ढाँचा अंतर्विवाह और नातेदारी के रिश्तों से बुना हुआ है और जहाँ "सड़कों" जैसे सार्वजनिक स्थलों पर अक्सर गरीब, नीची जाति के लोग और मुस्लिम पुरुषों का वातावरण होता है, वहाँ यही धारणा बनी रहती है कि महिलाओं को सार्वजनिक स्थलों पर खतरा मुख्यतः वर्ग विशेष,जातिविशेष या किसी धर्मविशेष से जुड़े लोगों से रहता है. इस बारे में, घरेलू और कार्यस्थलों पर होने वाली हिंसा के संबंध में भाजपा की बाधा भी अन्य धार्मिक राष्ट्रवादी दलों के समान ही है. ये सभी दल पारंपरिक पारिवारिक संबंधों को सामाजिक प्रजनन और नैतिक समाजीकरण के स्थल के रूप में मानकर उसका बचाव करते हैं और इस बात को उजागर करते हैं कि महिलाओं के सम्मान को खतरा अनजान लोगों से ही है.

अंततः अपनी उत्पीड़न विरोधी नीतियों को लागू करने के लिए भाजपा ने एक ऐसी संस्था को लामबंद किया है जो भ्रष्ट है, जिस पर पहले से ही काम का भारी बोझ भी है और जिस पर भारी राजनीतिक दबाव भी रहता है, इसलिए ऐसी संस्था को आसानी से काबू किया जा सकता है.  पुलिस की नियुक्तियाँ,तैनातियाँ और पदोन्नतियाँ राज्य सरकारों द्वारा नियंत्रित होती हैं और यही कारण है कि राजनीतिक दल ही पुलिस विभाग का संचालन करते हैं. ऐसी स्थिति में भाजपा के राजनेता और भाजपा से संबद्ध संस्थाओं के सदस्य पुलिस पर दबाव डालकर उत्पीड़न को अपने हिसाब से परिभाषित कर सकते हैं और इस तरह उत्पीड़न के लिए अपने नियम गढ़ सकते हैं.

यू.पी.पुलिस बल के साथ पुरुषप्रधान हिंदू राष्ट्रवादी अर्धसैनिक संगठनों के सहयोग और उनके द्वारा अपनाये जाने वाले दंड के कानून से इतर तौर-तरीकों के बारे में प्रचलित व्यापक रिपोर्टें हैरान कर देने वाली हैं. इन रिपोर्टों के अनुसार पुलिस स्क्वॉड नैतिक पोलिसिंग करते हैं, सार्वजनिक स्थलों से समलैंगिकता को मिटाने और विभिन्न सामाजिक समुदायों के बीच पुरुषों और महिलाओं के यौन संबंधों पर रोक लगाते हैं. गुजरात के ऐंटी रोमियो स्क्वॉड के लिए प्रसिद्ध है कि वे पुरुषों और महिलाओं दोनों को ही “रोमियो” और “जूलिएट” के नाम से गिरफ़्तार कर लेते थे.” वैसे तो रोमियो और जूलियट दो ऐसे काल्पनिक पात्र थे, जो अपने परिवारों की आपसी दुश्मनी के बावजूद आपसी रजामंदी से परस्पर बंधन में बँधे थे. किसी भी तरह उनके नाम आपसी रज़ामंदी के बिना किये जाने वाले यौन उत्पीड़न की हिंसा से जुड़े हुए नहीं थे. वे सामाजिक परिधि का उल्लंघन करके अपने यौन-संबंधों के लिए कुछ भी कर सकते थे.

सड़क पर उत्पीड़न की पुलिसिंग के लिए, भाजपा कानून की आड़ में एक लचीली कानूनी संस्था का उपयोग करके विषमलैंगिकता को लागू करने से साथ-साथ वर्ग-आधारित, जाति-आधारित और धार्मिक सामाजिक पदानुक्रमों को सुदृढ़ कर सकती है. पार्टी घरों और कार्यस्थलों के भीतर होने वाली हिंसा से भी लोगों का ध्यान हटा सकती है, पारिवारिक जीवन की पवित्रता सिद्ध कर सकती है और इन स्थानों को विनियमित करने के झंझट से बच सकती है. अंततः भाजपा अपने एजेंडा को आगे बढ़ा सकती है और लोगों को यह एहसास दिला सकती है कि उनका ध्यान महिलाओं की सार्वजनिक सुरक्षा के वास्तविक सरोकार पर केंद्रित है: सड़क पर उत्पीड़न के नाम से पार्टी को एक ऐसा आदर्श छत्र मिल जाता है, जिसके अंतर्गत वह महिलाओं के अधिकारों को आगे बढ़ाने के साथ-साथ प्रतिगामी सामाजिक संबंधों की पुष्टि करने का दावा भी कर सकती है.

पौलमी रॉयचौधुरी मैकगिल विश्वविद्यालय में समाजविज्ञान की ऐसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं. वह Capable Women, Incapable States: Negotiating Violence and Rights in India (Oxford University Press, 2020) की लेखिका हैं.

 

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Former Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India <malhotravk@gmail.com>   Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365