परंपरागत धार्मिक विश्वास और पुराने ढंग के खेती-बाड़ी के तौर-तरीकों में रचे-बसे और परिवर्तन की लहर से बेखबर भारत में अब हर बंधी-बँधाई धारणाओं की तरह गाय की छवि में भी बदलाव आ रहा है. फिर भी पिछले एक दशक में भारत की बदलती राजनैतिक अर्थव्यवस्था और विनियामक राजनीति में गाय एक संकेतक के रूप में उभर रही है. आँकड़े दर्शाते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में भारत में सभी प्रकार के अन्य समन्वित माँस की कुल खपत के मुकाबले में गोमाँस की खपत कहीं अधिक बढ़ी है. प्रोटीन की बढ़ती खपत से पता चलता है कि पारिवारिक आमदनी में भी इज़ाफ़ा हुआ है, लेकिन अन्य माँस के मुकाबले में गोमाँस की खपत यह दर्शाती है कि लोग मवेशियों से मिलने वाले प्रोटीन की सबसे सस्ती किस्म का उपभोग अधिक कर रहे हैं. सन् 2012 में भारत गोमाँस का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है और इससे 18, 000 करोड़ रुपये से अधिक की आमदनी हो रही है. सबसे कम कीमत वाले हलाल किये गये गोमांस को अफ्रीका, दक्षिण पूर्वेशिया और मध्य पूर्व में बाज़ार मिल गया है. यद्यपि भैंसों के इस मांस में से (11 प्रतिशत भैंसों का वध मांस के लिए किया जाता है) अधिकांश हिस्सा (मवेशियों की आबादी का 6 प्रतिशत कत्ल हो जाता है) गोमांस का ही है.
गोमांस के उत्पादन और खपत में घातांक वृद्धि उन तमाम नये कानूनों से मेल खाती है, जिनके अनुसार गुजरात, मध्य प्रदेश और कर्नाटक राज्यों में मवेशियों के वध पर रोक लगायी गयी है और उन्हें विनियमित किया गया है. अधिकांश राज्यों में आज़ादी के बाद से ही मवेशियों के वध के नियम बहुत कठोर रहे हैं, लेकिन नये नियम पिछली गणना से काफ़ी अलग हैं. मध्य प्रदेश के कानून के अनुसार न केवल गाय का वध गैर-कानूनी है, बल्कि वध के लिए मवेशियों की ढुलाई भी गैर-कानूनी है. कर्नाटक अधिनियम के अनुसार (जिसे मई 2013 में येदुरप्पा की पराजय के बाद संशोधित कर दिया गया था) मूल रूप में गोमांस की बिक्री, संग्रह और खपत भी गैर-कानूनी थी.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48 के अनुपालन के लिए सभी नये नियमों में व्यवस्था की गयी है, “राज्य आधुनिक और वैज्ञानिक तर्ज पर कृषि और पशुपालन को व्यवस्थित करने के लिए प्रयास करेगा और विशेष रूप से, गायों और बछड़ों और अन्य दुधारू और वाहक पशुओं के संरक्षण और नस्लों में सुधार करने और वध पर रोक लगाने के लिए कदम उठाएगा.” अनुच्छेद 48 का समावेश विवादास्पद था. गाय को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाद का विषय माना जाता रहा है; हिंदू गाय को पवित्र मानते हैं जबकि मुसलमान धार्मिक अनुष्ठान के रूप में ईद के मौके पर उसे हलाल करने में विश्वास करते हैं. बीसवीं सदी का इतिहास गोरक्षा के नाम पर सांप्रदायिक दंगों से रक्तरंजित है. आज़ादी के साथ ही कांग्रेस की एक शक्तिशाली लॉबी ने गायों के वध पर संवैधानिक रोक लगाने के प्रस्ताव को जबरन पारित करा लिया था, जबकि संविधान के मूल मसौदे में इसका कोई प्रावधान नहीं था. समझौते के तौर पर गोरक्षा को राज्य की नीति के अंतर्गत निर्देशक सिद्धांतों में शामिल कर लिया गया था.
पचास के दशक में कई उत्तरी राज्यों में ठीक उसी तरह से रोक लगा दी गयी थी, जैसी रोक मध्य प्रदेश और कर्नाटक में हाल ही में लगायी गयी है. सन् 1958 में मुहम्मद हनीफ़ कुरैशी के मामले में, तीन हज़ार याचिकाकर्ताओं ने, जिनमें से अधिकतर मुसलमान थे, इन कानूनों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देते हुए यह दलील दी इन कानूनों से उनकी संपत्ति, व्यापार और व्यवसाय के बुनियादी अधिकारों का हनन होता है. उच्चतम न्यायालय ने धार्मिक अनुष्ठान के आधार पर किये गये उनके दावे को कुरान की उनकी अपनी ही व्याख्या का हवाला देते हुए खारिज कर दिया कि मुसलमानों के लिए गोवध अनिवार्य नहीं है. परंतु साथ ही यह भी पाया गया कि गोवध पर पूरी तरह से रोक लगाना उचित नहीं है, क्योंकि इससे अनिवार्यतः नस्लों के संरक्षण और सुधार करने या बेहतर खेती करने में कोई मदद नहीं मिलती. याचिकाकर्ता यह सिद्ध करने में कामयाब हो गये थे कि एक उम्र के बाद गायों का पालन करना आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद नहीं रहता और उत्पादक पशुओं के पालन-पोषण के लिए आवश्यक संसाधनों पर बोझ पड़ता है और सरकार द्वारा अलाभकर गायों के पालन-पोषण की प्रस्तावित योजनाएँ प्राथमिक शिक्षा से भी अधिक मँहगी हैं और अलाभकर गायों का पालन-पोषण करने के अनिच्छुक मालिक उन्हें खुला छोड़ देते हैं. इस आम सहमति के परिणाम स्वरूप गोवध पर सन् 2005 तक संपूर्ण रोक लगाने के बजाय कठोर नियम बनाने की बात की गयी. गोवध पर पूरी तरह रोक लगाने के प्रयास में गाय की कम से कम पच्चीस वर्ष की न्यूनतम आयु तय करने के प्रस्ताव को भी उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया और यह स्पष्ट किया गया कि पंद्रह साल के बाद गाय आर्थिक दृष्टि से उपयोगी नहीं रहती और न्यूनतम आयु को बढ़ाकर ही गोवध पर पूरी रोक लगायी जा सकती है.
उच्चतम न्यायालय के जिस फैसले से बदलाव आया, वह था 2005 में उच्चतम न्यायालय द्वारा मिर्ज़ापुर मोती कुरेशी के मामले में दिया गया निर्णय, जिसने 1958 से दिये जाते रहे निर्णयों की लंबी श्रृंखला को बदल कर रख दिया और गुजरात सरकार के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया कि प्रौद्योगिकी और पशुओं की देखभाल ने गाय के आर्थिक जीवन को बढ़ा दिया है. इस तथ्य के आधार पर मुख्य न्यायाधीश लाहोटी ने यह व्यवस्था दी कि अगर गायें दूध देना बंद भी कर देती हैं तो भी उनका गोबर और मूत्र खाद और ईँधन के लिए काफ़ी मूल्यवान् सिद्ध हो सकता है. न्यायालय ने अपने प्रसिद्ध निर्णय में गाय के गोबर को कोहिनूर हीरे से भी अधिक कीमती बताया. अंततः न्यायालय ने इस दलील को स्वीकार कर लिया कि कोई भी जानवर अगर मानव जाति की इतनी सेवा करता है तो बुढ़ापे में उसके साथ दयापूर्ण बर्ताव किया जाना चाहिए. इसके बाद हिंसा विरोधक मामला सामने आया जिसमें उच्चतम न्यायालय ने बूचड़खानों और कसाईघरों को धार्मिक भावना के आधार पर जैनियों के धार्मिक उत्सव के दौरान बंद रखने के निर्णय को बरकरार रखा. सन् 2008 से उच्चतम न्यायालय ने मिर्ज़ापुर निर्णय के बाद से अपना निर्णय वापस ले लिया और यह स्पष्ट कर दिया कि गोवध पर पूरी तरह रोक लगाना संवैधानिक दृष्टि से न तो अपेक्षित है और न ही वांछित. लेकिन हाल ही में दी गयी अपनी न्याय-व्यवस्था से न्यायालय ने यह नज़ीर ज़रूर स्थापित कर दी कि कुछ लोगों के खान-पान की प्राथमिकताओं को भी थोपा जा सकता है और इस मामले में जैन धर्म के अनुयायियों की खान-पान की प्राथमिकताओं को बहुसंख्यक लोगों पर थोपने की नज़ीर स्थापित की गयी.
इन निर्णयों के पीछे तो तर्क है, वह काफ़ी भ्रामक है. मवेशियों के आर्थिक मूल्य पर आधारित तर्क इस तथ्य की अनदेखी कर देते हैं कि इस प्रकार का संरक्षण भैंसों के लिए नहीं है, जो भारतीय गायों की तुलना में अधिक दूध भी देती हैं और वाहक जानवरों के समान ही हैं. गोमांस की राजनीति को सांस्कृतिक मानकर ही पेश किया जाता है, लेकिन असलियत में यह राजनीति अर्थशास्त्र पर आधारित है. न केवल मुसलमान, बल्कि हिंदू और ईसाई भी गोमांस का उपभोग दैनिक भोजन-सामग्री के रूप में करते हैं. बढ़ती समृद्धि और अधिक खपत के कारण भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा निर्यातक हो गया है. कुरेशी के मामले में अदालत ने उन आंकड़ों के आधार पर अपना निर्णय दिया जिनमें बताया गया था कि गुजरात में गोमांस की खपत बहुत कम है, जबकि शेष भारत में यह स्थिति नहीं है.
असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोहम्मद सादुल्लाह ने दूरदर्शिता के साथ संविधान सभा को याद दिलाया था कि मुस्लिम किसान हिंदू किसानों का तरह ही आर्थिक दृष्टि से मूल्यवान् गायों को कत्ल कराने के लिए नहीं भेजते हैं और कत्ल की जाने वाली अधिकांश गायें हिंदुओं द्वारा चलाये जाने वाले बूचड़खानों को ही बेची जाती हैं. यह स्पष्ट है कि गोमांस खाने से परहेज़ करने वाले लोग भी आवश्यक नहीं है कि गाय के प्रति करुणा का भाव रखते हों. मवेशियों के अधिकार के लिए संघर्ष करने वाले लोगों ने मवेशियों को कहीं और ले जाकर कत्ल करने की शिकायत की है. उन राज्यों से जहाँ गोवध पर प्रतिबंध लगा है, बूढ़ी और अलाभकर गायों को उन राज्यों में ले जाया जाता है जहाँ गोवध पर प्रतिबंध नहीं है या फिर तस्करी करके बांग्ला देश पहुँचा दिया जाता है. एक अनुमान के अनुसार बांग्ला देश में जितना भी गोमांस खाया जाता है उसका आधा हिस्सा भारत से गैर-कानूनी तौर पर तस्करी करके लाया गया होता है.
शराबबंदी या गर्भपात पर अमरीकी नियंत्रण की तरह गोवध पर भी पूरी तरह से रोक लगाने के कारण काला बाज़ारी को बल मिलता है, उद्योग प्रभावित होता है और संबंधित पार्टियों को तकलीफ़ होती है. इससे सभी धार्मिक समुदायों के उन सभी बहुसंख्यक लोगों की खान-पान की पसंद का अपराधीकरण हो जाता है जिनके लिए गोमांस सबसे अधिक किफ़ायती प्रोटीन का स्रोत है. जैसा कि कर्नाटक और गुजरात की घटनाओं से पता चलता है कि इसके कारण गोमांस खाने वाले लोग भयभीत रहते हैं और हिंसा से सहमे रहते हैं. और अंततः इसके कारण आर्थिक दक्षता पर बुरा असर पड़ने लगता है; गुजरात में गोमांस की जमाखोरी पर रोक होने के कारण गुजरात से मुंबई के बंदरगाह पर निर्यात के लिए ढुलाई करने वाले ट्रकों को रोक दिया गया और इसके फलस्वरूप गुजरात सरकार पर जुर्माना ठोक दिया गया. गोरक्षा के पीछे जो तर्क है वह खास तौर पर भैंसों पर लागू होता है, लेकिन इससे कोई आर्थिक लाभ नहीं होता और भारत में कई दशकों से जो विनियामक सर्वसम्मति बनी है, वह भी पीछे खिसकने लगती है.
रोहित डे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के इतिहास व अर्थशास्त्र केंद्र में मैलन स्नातकोत्तर फ़ैलो हैं.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा),रेलमंत्रालय, भारतसरकार <malhotravk@hotmail.com>