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सीमा सुरक्षा संबंधी नीति और प्रथाओं में लोगों के हालात क्या हैं? भारत-बांग्लादेश सीमावर्ती क्षेत्रों से नोट्स

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22/07/2024
सहाना घोष

नीराश बर्मन अपनी जमीन पर खेती करने में असमर्थ हैं, जो अब भारत-बांग्लादेश सीमा और भारत द्वारा अपनी तरफ बनाई गई बाड़ के बीच आती है, क्योंकि सीमा सुरक्षा बल (BSF) ने कई प्रतिबंध लगा रखे हैं. अपने घरेलू खर्चों की प्रतिपूर्ति और प्रबंधन के लिए उन्होंने अपने घर के पास ही गाँजा उगाना शुरू कर दिया. कुछ वर्षों तक सफलतापूर्वक खेती करने के बाद, BSF और पुलिस के नोटिस में यह बात आ गई. उन्होंने उनके घर पर छापा मारा, उनके खेतों को जला दिया, और अब उनके ग्रामीण इलाकों पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है. उसी सीमा पर स्थित एक अन्य गाँव में भूमिहीन परिवार में पले-बढ़े हसन अली के पास आजीविका के बहुत कम विकल्प थे.  वह उत्तर भारत में निर्माण स्थलों पर काम करने से लेकर सीमावर्ती गाँवों में विभिन्न प्रकार की तस्करी की वारदातों को अंजाम देने जैसे काम करते रहे, जिनमें से प्रत्येक वारदात में अपने-अपने ढंग के जोखिम और कठिनाइयाँ थीं. चूँकि बंगाली भाषी मुसलमानों को पूरे भारत में "घुसपैठिए" होने के संदेह के कारण बढ़ती शत्रुता का सामना करना पड़ रहा है, इसलिए अली ने अपने गाँव लौटकर पशुपालन के कठोर व्यवसाय में काम करने का निर्णय लिया. ये भारत के पूर्वी सीमावर्ती क्षेत्रों में सार्थक जीवन जीने के लिए सीमावर्ती निवासियों के संघर्ष की दो सामान्य कहानियाँ प्रचलित हैं, क्योंकि वे सीमावर्ती क्षेत्रों की वास्तविकता का सामना करते हैं, जो विशेष रूप से लगभग राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में ही शासित होते हैं. हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक, A Thousand Tiny Cuts: Mobility and Security Across the Bangladesh-India Borderlands (University of California Press 2023/Yoda Press 2024) में मैंने भारत और बांग्लादेश में पीढ़ी-दर-पीढ़ी वास्तविकताओं की जाँच करके सैन्यीकृत सीमा की सामाजिक और आर्थिक लागतों का पता लगाया है.

सीमा सुरक्षा नीति और व्यवहार को “अच्छा” कब कहा जाता है ? यह प्रश्न, वाइब्रेंट विलेज कार्यक्रम की घोषणा के साथ एक बार फिर बहस का विषय बन गया है, जिसका उद्देश्य चीन के साथ भारत की सीमा पर स्थित गाँवों का “समग्र विकास” करना है. यह कार्यक्रम 1962 के चीन-भारत युद्ध के प्रति पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार की प्रतिक्रिया की अजीब तरह से प्रतिध्वनि करता है, जिसमें कल्याणकारी कार्यक्रम लगभग उन्हीं सीमावर्ती गाँवों में चलाए गए थे, जिन्हें आज निशाना बनाया जा रहा है. उस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप सीमा क्षेत्र के विकास के कार्यक्रम की शुरुआत हुई, जिसे औपचारिक रूप से भारत सरकार की सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) में शामिल किया गया, जो सीमावर्ती जिलों को "महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे" के लिए अतिरिक्त धनराशि प्रदान करती है. हालाँकि, इस तरह से प्रतिक्रियात्मक और राष्ट्रीय सुरक्षा हितों से निर्देशित विकास योजनाओं में लोगों के कल्याण और चिंताओं के बारे में बहुत सीमित और पितृसत्तात्मक समझ होती है, और वे सीमावर्ती निवासियों के जीवन के अनुभवों और अपेक्षाओं से कटे हुए होते हैं.

यह बात भारत और बांग्लादेश के बीच साझा की जाने वाली “मैत्रीपूर्ण” सीमा से अधिक स्पष्ट हो जाता है. 4,096 किलोमीटर लंबी सीमा, जो विभिन्न भौगोलिक और सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों से होकर गुजरती है, नियमित रूप से संसदीय चर्चाओं और सुरक्षा संबंधी खतरों (घुसपैठ, तस्करी) और सुरक्षा के बुनियादी ढाँचे (सीमा बाड़, फ्लड लाइटिंग, मानव बाड़ के रूप में) BSF पर केंद्रित आयोग की रिपोर्टों में सामने आती है.अधिकांश सरकारी नीतियों का घोषित लक्ष्य भारत के पूर्वी सीमावर्ती क्षेत्रों को सीमा सुरक्षा के अधिकतम बुनियादी ढाँचे बनाना है ताकि हर 3.5 किलोमीटर की दूरी पर एक सीमा चौकी हो. 1965 में गठित सीमा सुरक्षा बल, जो बांग्लादेश और पाकिस्तान के साथ भारत की सीमाओं पर तैनात है, इन सीमावर्ती क्षेत्रों में रोज़मर्रा की जिंदगी में केंद्रीय भारत सरकार का चेहरा है. ज़रूरी नहीं कि उन्नत बुनियादी ढाँचे अर्थात् बेहतर बाड़, निगरानी टावर, अधिक फ्लड लाइटिंग, रात्रि सेंसर, BSF के लिए सड़कों का मतलब मजबूत सीमा सुरक्षा या सीमावर्ती क्षेत्रों में सार्थक विकास हो. दरअसल, इन सीमावर्ती क्षेत्रों में एक दशक से अधिक समय तक नृवंशविज्ञान संबंधी शोध में मैंने पाया है कि इस तरह की सीमा सुरक्षा व्यवस्था सीधे तौर पर लोगों के हितों के साथ टकराव में आ सकती है, क्योंकि ये नीतियाँ निवासियों की उपेक्षा करती हैं, उन्हें अपराधी मानती हैं, या उनके जीवन, भूमि और आकांक्षाओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के अमूर्त आदेशों के अधीन कर देती हैं.

तीन क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें यह सबसे अधिक तीव्रता से सामने आता है और जिसके परिणाम बहुत हानिकारक होते हैं, वे हैं कृषि अर्थव्यवस्था, सीमा पार रिश्तेदारी, और नागरिक-सैन्य संबंध.

किसी कृषि प्रधान क्षेत्र में आर्थिक जीवन पर सीमा सुरक्षा के प्रभाव को भूमि के अवमूल्यन से अधिक स्पष्ट कोई चीज़ नहीं बताती. चूँकि 1990 के दशक के प्रारंभ से ही सीमा पर बाड़ का निर्माण और पुनर्निर्माण किया जा रहा है, इसलिए इससे पश्चिम बंगाल और निचले असम में खेती योग्य भूमि का नुकसान हुआ है, और अक्सर इसके लिए पर्याप्त मुआवजा भी नहीं दिया गया. इसके अलावा, सैन्यीकृत सीमा के सबसे कम दिखाई देने वाले लेकिन घातक दीर्घकालिक प्रभावों में से एक है भूमि की कीमतों में गिरावट, जिससे कृषि संकट के हालात और खराब हो गए हैं.सीमा और भारतीय बाड़ के बीच पड़ने वाली सैंकड़ों एकड़ भूमि पर की जाने वाली खेती पर अनेक प्रतिबंध हैं - जैसे कि कौन सी फसलें उगाई जा सकती हैं, खेतों तक पहुँचने और सिंचाई करने के लिए सीमित समय, पहचान के दस्तावेजों और वस्तुओं की श्रमसाध्य जाँच - जिससे छोटे और सीमांत किसानों, मुख्य रूप से बंगाली मुस्लिम और राजबंगसी, जो इन कृषि प्रधान सीमावर्ती क्षेत्रों में रहते हैं, के लिए खेती करना और भी कठिन हो जाता है और इससे वे और हतोत्साहित भी हो जाते हैं. राजबंगशी पश्चिम बंगाल राज्य में सबसे अधिक संख्या में अनुसूचित जाति समूह हैं, जबकि मुस्लिम पश्चिम बंगाल की आबादी का 30 प्रतिशत हैं. दोनों समूह उत्तर बंगाल के सीमावर्ती जिले कूच बिहार में बहुसंख्यक हैं, जिस पर मेरा दीर्घकालिक नृवंशविज्ञान अनुसंधान आधारित है. इसके अलावा, सैन्यीकृत सीमा सुरक्षा प्रथाओं के कारण इन क्षेत्रों के समृद्ध ग्रामीण बाजारों की चहल-पहल खत्म हो गई है. नई सड़कें BSF की सीमा चौकियों और सीमा बाड़ के बीच संपर्क को प्राथमिकता देती हैं, तथा अक्सर मौजूदा ग्रामीण रास्तों को किनारे कर देती हैं, जो स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक उपयुक्त होते हैं. स्थानीय लोगों के लिए, नई सड़कों तक पहुँच आम तौर पर अंधेरा होने के बाद प्रतिबंधित हो जाती है, और आधिकारिक तथा अनधिकृत कर्फ्यू के कारण भय और संदेह का माहौल कायम हो जाता है, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है.

चूँकि भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में रोज़मर्रा की गतिविधियाँ BSF की निगरानी का लक्ष्य बन गई हैं, इसलिए सीमा पर सैन्यीकरण से सामाजिक जीवन प्रभावित हो रहा है. उत्तर बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में लगभग हर परिवार के रिश्तेदार सीमा के दूसरी ओर रहते हैं. जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक में बताया है, विरोधाभासी रूप से, विभाजन के बाद भी सीमा-पार विवाह जारी रहे हैं. यह सीमा के प्रति अज्ञान या अवज्ञा के कारण नहीं, बल्कि युद्धों, विस्थापन और राजनीतिक अनिश्चितताओं की एक श्रृंखला के परिणामस्वरूप होता रहा है. ऐसी अशांति के माहौल में लोगों ने सामाजिक और भौतिक सहायता के लिए सीमा पार रिश्तेदारी को महत्वपूर्ण माना. इस प्रकार, 1947 के बाद के दशकों में, सीमावर्ती क्षेत्रों में सीमा-पार गतिशीलता को जीवन-जगत् ​​के उत्तर-औपनिवेशिक पुनर्निर्माण के एक भाग के रूप में परिकल्पित किया गया. परिणामस्वरूप, दोनों ओर की महिलाएँ अपने परिवार से मिलने, विवाह और जन्म के समय या फिर साथ मिलकर त्यौहार और अनुष्ठान मनाने के लिए भारी जोखिम उठाकर, गुप्त रूप से सीमा-पार करती हैं. संपर्क का एक पुराना ढाँचा था, भारत-बांग्लादेश पासपोर्ट. यह एक विशेष यात्रा दस्तावेज था,  जो केवल दो देशों के बीच आवागमन की अनुमति देता था, जिसे 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के बाद मित्रता की भावना के तहत शुरू किया गया था, और 2013 में बंद कर दिया गया था. यह पासपोर्ट किसी भी जिला मुख्यालय से प्राप्त किया जा सकता है, जिससे “वैध” सीमा-पार यात्रा के लिए नौकरशाही संबंधी आवश्यकताएँ अधिक सुलभ और सस्ती हो जाती हैं. यह पासपोर्ट किसी भी जिला मुख्यालय से प्राप्त किया जा सकता है, जिससे “वैध” सीमा-पार यात्रा के लिए नौकरशाही संबंधी आवश्यकताएँ अधिक सुलभ और सस्ती हो जाती हैं. चूँकि आधिकारिक रूप से "मैत्रीपूर्ण" सीमा पर राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियाँ सख्त होती जा रही हैं, इसलिए रिश्तेदारी पर सबसे बड़ा बोझ पड़ रहा है: परिवार को राष्ट्रीय पहचान के खिलाफ खड़ा करना और लोगों को यह चुनने के लिए मजबूर करना कि वे अपने अंतरंग संबंधों में से किसके प्रति वफादार रहें.

आखिरकार बंगाल के सीमावर्ती निवासियों के साथ BSF के रिश्ते बिगड़ ही गए .सीमा सुरक्षा के रोज़मर्रा के कामों में, बंगाली सीमावर्ती निवासियों, जिनमें मुख्य रूप से मुस्लिम और निम्न जाति के लोग शामिल हैं, पर गुप्त प्रवासी या तस्कर होने का संदेह किया जाता है, तथा उनके सीमा पार संबंधों को अपराध माना जाता है. सांस्कृतिक-आर्थिक कल्याणकारी गतिविधियों और सीमा-पार के स्थायी सांस्कृतिक जीवन की तुलना में बंद सीमा-पार के सैन्यीकृत विचारों को प्राथमिकता देने के कारण लंबे समय से चली आ रही सीमा संबंधी नीतियों और प्रथाओं ने संरचनात्मक रूप से स्थानीय निवासियों और BSF के बीच विरोधी रिश्ते बना दिये हैं. उदाहरण के लिए, तस्करी रोकने के अपने कार्य में सहायता के लिए, BSF ने भारत के सीमावर्ती गाँवों में निगरानी और पुलिस व्यवस्था की एक श्रृंखला स्थापित की है. BSF  के गश्ती क्षेत्रों में, जिनकी दूरी सीमा से 15 किलोमीटर तक हो सकती है, निवासियों से खेत से बाजार, स्कूल से घर, और यहाँ तक ​​कि एक-दूसरे के घरों के बीच रोज़मर्रा के आवागमन के दौरान पूछताछ और तलाशी ली जाती है. स्थानीय वस्तुओं की ढुलाई के लिए अनुमति प्रदान करने की एक विस्तृत प्रणाली लागू है - चाहे वह सीमावर्ती क्षेत्रों से बाजारों तक ले जाई जाने वाली कटी हुई फसलें हों या साइकिल, दवाइयों जैसी घरेलू उपयोग की वस्तुएँ  और निर्माण सामग्री जो बाहरी बाजारों से सीमावर्ती गांवों में लाई जाती हैं. स्थानीय लोग BSF से अनुमति प्राप्त करने के लिए सीमा चौकियों के बाहर कतार में खड़े रहते हैं, जिससे सत्ता के साथ उनके तनावपूर्ण संबंध बन जाते हैं, जहाँ राष्ट्रीय सुरक्षा के हित सिविल अधिकारियों पर भारी पड़ते हैं और स्थानीय लोगों के अधिकारों में भारी कटौती होती है तथा वे अपनी ही भूमि पर "दूसरे दर्ज़े के नागरिक" जैसा महसूस करते हैं. जहाँ मानवाधिकार संस्थाओं ने सीमा पर निगरानी करते हुए BSF द्वारा की गई हत्याओं का विस्तृत विवरण दिया है, मैंने अपनी पुस्तक में तर्क दिया है कि हिंसा के कम प्रभावशाली उदाहरणों का यह व्यापक दायरा ही इन कृषि प्रधान सीमावर्ती क्षेत्रों में सैन्यीकरण का एक स्वरूप है. यह संरचनात्मक विरोध बंगाल की सीमावर्ती क्षेत्रों में BSF के लिए भी उनकी आधिकारिक नियुक्तियों को कठिन बना देता है, भले ही वह कोई “मैत्रीपूर्ण” सीमा ही क्यों न हो. सभी रैंक के कर्मचारियों और अधिकारियों ने इसे अपने जीवन की सबसे तनावपूर्ण और जोखिम भरी पोस्टिंग में से एक बताया है. विरोध और संचित आक्रोश के इस बड़े संदर्भ में, BSF द्वारा आयोजित मुफ्त चिकित्सा शिविर या स्कूल की सप्लाई के वितरण जैसी आउटरीच योजनाओं के माध्यम से "नागरिक कार्रवाई" की दिशा में किये गए प्रयास भी बेकार और तुच्छ प्रतीत होते हैं.

सीमा सुरक्षा का ऐसा ढाँचा जो सीमावर्ती लोगों के कल्याण और खुशहाली को राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के विरुद्ध खड़ा करता है, टिकाऊ नहीं है और प्रतिकूल परिणाम देने वाला है. सीमा को एक निर्जन स्थान के रूप में देखने के बजाय, उसे निरंतर विस्तारित होने वाले सुरक्षा ढाँचे की आवश्यकता के रूप में देखते हुए, पवित्र मानकर संरक्षित किया जाना चाहिए जिसमें स्थानीय लोगों की उपस्थिति को बाधा न मानकर इसे ऐतिहासिक और सामाजिक-आर्थिक रूप से जुड़े स्थान के रूप में परिकल्पित किया जाना चाहिए और उसका मूल्यांकन अपने स्वयं के संदर्भ में किया जाना चाहिए. ऊपर से नीचे की ओर के विकास के दृष्टिकोण में सीमावर्ती निवासियों का महत्व केवल राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों से है, तथा जिसमें उन्हें सहायता और राष्ट्रवादी शिक्षा के  निष्क्रिय और जरूरतमंद प्राप्तकर्ता के रूप में ही माना जाता है, इससे अधिक असत्य या प्रतिकूल कुछ नहीं हो सकता. जब सीमा सुरक्षा नीतियाँ और प्रथाएँ लोगों को उनकी अपनी भूमि, उनकी आजीविका, तथा उनके घरों और रिश्तेदारियों में, जिनमें वे पीढ़ियों से रह रहे हैं, सक्रिय रूप से अवमूल्यन करती हैं और उन्हें अपराधी बनाती हैं, तो कोई भी बुनियादी ढाँचा उनमें भलाई और देशभक्ति की भावना पैदा नहीं कर सकता. सबसे बढ़कर, क्या कोई सीमा "मैत्रीपूर्ण" हो सकती है, यदि आम निवासियों के एक-दूसरे के साथ सीमा-पार सामाजिक-आर्थिक संबंधों को अपराध घोषित कर दिया जाए और सीमित कर दिया जाए?

सहाना घोष सिंगापुर के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान की सहायक प्रोफेसर हैं. उनकी पुस्तक, A Thousand Tiny Cuts: Mobility and Security Across the Bangladesh-India Borderlands (University of California Press 2023; Yoda Press 2024), उत्तर बंगाल में राष्ट्रीय सीमा क्षेत्र से जुड़े हुए एक क्षेत्र के निर्माण का पता लगाती है, और बताती है कि कैसे सैन्यीकृत सीमा सामाजिक संबंधों, कृषि अर्थव्यवस्था, लैंगिक गतिशीलता और सीमावर्ती निवासियों के जीवन के माध्यम से नागरिकता को प्रभावित करती है.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India

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