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संयुक्त राष्ट्र की 75 वीं वर्षगाँठः संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार को आगे बढ़ाने में अतीत में भारत का नेतृत्व

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14/09/2020
रैफ़ेल खान

जून 2020 में भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद (UNSC) का अस्थायी सदस्य चुना गया था. मौजूदा बहुपक्षीय व्यवस्था का यह ऐसा महत्वपूर्ण दौर है जब बहुत से प्रेक्षक संकट के दौर से गुज़र रहे हैं. जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 केवल दो ऐसे भयानक संकट हैं जिनके कारण वैश्विक सहयोग की तत्काल आवश्यकता महसूस की जा रही है. युद्ध के बाद से अब तक वैश्विक व्यवस्था कभी भी एकपक्षीय और राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों से घिरी नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद (UNSC) में जब भारत की पारी आरंभ होगी तो उसके सामने कई चुनौतियाँ होंगी, जैसे, वैश्विक शासन व्यवस्था को फिर से नया स्वरूप प्रदान करना यदि संभव न हो तो उसे पुनर्जीवित करना और अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के साझा समुच्चय के अनुरूप विभिन्न देशों की प्रतिबद्धता का फिर से नवीकरण.

वह मानक जो सबसे अधिक क्षीण हुआ है, वह है मानवाधिकार. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने पिछली जुलाई में कहा था, “भेदभाव, दुर्व्यवहार और न्याय न मिलने के कारण विशेष रूप से स्वदेशी लोगों, प्रवासियों, शरणार्थियों और सभी प्रकार के अल्पसंख्यकों को असमानता का एहसास होता है. “इस प्रकार की असमानताएँ मानवाधिकारों पर सीधा प्रहार है.” अतीत में मानवाधिकार संयुक्त राष्ट्र में होने वाली बहस का केंद्रबिंदु रहा है, लेकिन बिल्कुल हाल ही में मानवीय आधार पर हस्तक्षेपों के संरक्षण और औचित्य के दायित्व पर अधिक चर्चा होने लगी है. जहाँ एक ओर मानवाधिकारों से संबंधित परंपरागत इतिहास लेखन ने पश्चिमी विद्वानों को मानवाधिकारों के पोषण के लिए पूर्वप्रतिष्ठित भूमिका प्रदान की है, वहीं हाल ही के विद्वानों ने संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकारों को प्रोत्साहित करने के लिए गैर-पश्चिमी विद्वानों की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया है. इस संदर्भ में भारत एक विचारणीय बिंदु है. एक ऐसे समय में जब बहुपक्षीय व्यवस्था को पुनर्गठित करने की आवश्यकता है और भारत संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद (UNSC) में प्रवेश करने जा रहा है, यह महत्वपूर्ण है कि भारत संयुक्त राष्ट्र में अतीत की अपनी गतिविधियों और वैश्विक व्यवस्था में सुधार लाने पर गौर करे.

साम्राज्यवाद के चंगुल से हाल ही में मुक्त हुए स्वतंत्र भारत की विदेश नीति का केंद्रबिंदु अंतर्राष्ट्रीय संगठन थे. स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय मानकों को आकार देने और उनके राजनैतिक उपयोग के महत्व को बखूबी समझते थे, लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र की उभरती मानवाधिकार प्रणाली के इर्द-गिर्द बहस को शुरू करने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. जैसा कि मैंने अन्यत्र बताया है कि उस दौर में भारत का उद्देश्य था, वैश्विक व्यवस्था में परिवर्तन लाना, सही नेतृत्व पाना और प्रवासी भारतीय समुदाय को सहयोग देना. ऐसे ऐतिहासिक पल का पुनर्निर्माण करते हुए हम उन तमाम लक्ष्यों और दृष्टि को फिर से सँवारने का काम कर सकते हैं.

सन् 1946 में भारत पहला सदस्य देश था, जिसने किसी अन्य देश दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध विवाद का उल्लेख किया था. यह विवाद वहाँ बसे प्रवासी भारतीयों के खिलाफ़ भेदभाव पूर्ण कानून के कारण उत्पन्न हुआ था. भारत चाहता था कि दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के सवाल को संयुक्त राष्ट्र की पहली महासभा में उसकी कार्यसूची में लाकर उस पर चर्चा की जाए. मार्क मैज़ोवर यह मानते हैं कि भारत की इस कार्रवाई से साम्राज्यवाद के प्रति मैत्रीभाव रखने वाला यह संगठन “साम्राज्यवाद-विरोधी मंच” के रूप में परिणत हो गया. शुरुआत में जब जून, 1946 में साम्राज्यवादी भारत ने संयुक्त राष्ट्र में मामला उठाया था, उस समय उसकी मंशा मानवाधिकार की संकल्पना पर आधारित नहीं थी. फिर भी इस मामले ने नई ज़मीन तैयार कर दीः चूँकि भारत गैर-राष्ट्रिक भारतीयों के कल्याण को लेकर चिंतित था, इसलिए उसके दखल के कारण राष्ट्रीय प्रभुसत्ता के सिद्धांत को सीधी चुनौती मिली. भारत सरकार जानती थी कि दक्षिण अफ्रीका संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(7) (घरेलू क्षेत्राधिकार का सिद्धांत) के अंतर्गत आपत्ति कर सकता था और समय आने पर उसने ऐसा किया भी.  

परंतु इससे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि नेहरू के नेतृत्व में जब अंतरिम सरकार बनी तो सितंबर, 1946 में सत्ता पर काबिज होने के बाद उन्होंने इस मामले को कैसे आगे बढ़ाया. एक प्रमुख वकील तेज बहादुर सप्रू ने भारत के तर्क में परिवर्तन लाने की सलाह दी. चूँकि दक्षिण अफ्रीका में “साम्राज्य की अपनी राष्ट्रीयता” नहीं थी, इसलिए दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के साथ “दक्षिण अफ्रीका के कानून के मुताबिक बर्ताव किया जाना चाहिए”, लेकिन “वे कानून वहाँ बसी भारतीय प्रजा के मूलभूत मानवाधिकारों को भी प्रभावित करते थे....”. अंततः इस मामले को इस तरह से मोड़ दिया गया. मानवाधिकार की अपील का संदर्भ मानवाधिकार के चार्टर की प्रस्तावना से संबंधित था और मानवाधिकार ही वह प्रामाणिक तर्क बन गया जिसके आधार पर घरेलू क्षेत्राधिकार की अनदेखी करने का औचित्य सिद्ध किया जा सकता था. नेहरू ने इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए यह दावा किया कि “दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ किया जाने वाला दुर्व्यवहार मूलतः एक नैतिक और मानवीय मुद्दा है और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की प्रस्तावना के ‘प्रयोजनों’ और ‘सिद्धांतों’ में स्पष्ट रूप में यह अंकित भी है और यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र की महासभा में इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती”. इस प्रकार भारत के प्रयास से संयुक्त राष्ट्र एक ऐसा मंच बन गया जहाँ सार्वभौमिक सिद्धांतों पर आधारित एक साम्राज्य में प्रवासी भारतीयों और उनकी हैसियत के लिए संघर्ष किया जा सकता था. मानवाधिकार के लिए भारत का यह संघर्ष सिर्फ़ भारतीयों तक सीमित न रहा, बल्कि सारी मानवता के लिए संघर्ष बन गया.तदनुसार, अक्तूबर, 1946 में जब संयुक्त राष्ट्र महासभा की दूसरी बैठक हुई तब भारत के शिष्टमंडल ने पुराने विवाद को एक नया अर्थ प्रदान किया. मानवाधिकार की अपनी अपीलों के माध्यम से भारत के शिष्टमंडल ने यह तर्क सामने रखा कि नैतिकता का स्थान कानून से ऊपर है और विडंबना यही है (लगता तो ऐसे ही है) कि इसके माध्यम से भारत ने नये विसाम्राज्यवादी देश के लिए घरेलू क्षेत्राधिकार के सिद्धांत को सीमित कर दिया. दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद (UNSC) में घंटों तक चलने वाली बहस के बाद महासभा ने अंततः एक ऐसा प्रस्ताव पारित कर दिया, जिसके माध्यम से दक्षिण अफ्रीका के घरेलू क्षेत्राधिकार के तर्क को खारिज कर दिया गया और यह तय किया गया कि “चार्टर के मानवाधिकार संबंधी प्रावधानों के अनुरूप ही कार्रवाई की जानी चाहिए”. भारत की विजय हुई और इस विजय के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार को नया स्थान प्राप्त हुआ.  

इस दृष्टांत से पता चलता है कि मानवाधिकार की संकल्पना को सामने रखकर भारत ने उत्तर साम्राज्यवाद (और साम्राज्यवाद विरोधी) नेता के रूप में अपनी पहचान बना ली. विसाम्राज्यवाद के युग में उत्तर साम्राज्यवादी वैश्विक व्यवस्था को आकार प्रदान करने में भारत की केंद्रीय भूमिका को मान्यता मिल गई.  

इसी दौर में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकारों को स्थापित करके एक ऐसे व्यावहारिक उपाय के रूप में प्रस्तुत किया जिससे प्रवासी भारतीय समुदाय को उस देश में होने वाले मानवाधिकारों के उल्लंघन से बचाया जा सके. अगर किसी संदर्भ में प्रवासी भारतीयों को सीधे बचा पाना संभव न हो पाए तो संयुक्त राष्ट्र किसी और संभावित समाधान की पेशकश कर सकता है. इससे आंशिक रूप में यही स्पष्ट होता है कि 1947 और 1948 के बीच मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा पत्र का मसौदा तैयार करने में भारत की भी प्रमुख भूमिका रही है. इस मसौदे में मानवाधिकारों के संरक्षण की ज़ोरदार वकालत की गई थी. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत की प्रतिनिधि हंस मेहता स्वयं एक सामाजिक कार्यकर्ता और महिलाओं के अधिकारों की प्रबल समर्थक रही हैं. उन्होंने कहा था कि “प्रशासनिक परिपाटियों के कारण गिरमिटिया श्रमिक प्रणाली के माध्यम से कानून और समानता के अधिकारों का किस प्रकार से हनन होता रहा है और इसके कितने ही मामले सामने आए हैं.” सन् 1833 में यू.के. में दासता के उन्मूलन के बाद भी भारत के बाहर ब्रिटिश साम्राज्य के देशों में बागानों में काम करने के लिए भारी संख्या में प्रवासी मज़दूरों पर अत्याचार की घटनाएँ इसी प्रणाली के कारण ही होती रही हैं.

मेहता ने इन सिद्धांतों के अनुरूप मानवाधिकार का प्रबल समर्थन किया. सबसे पहले तो उन्होंने इन अधिकारों को लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत एक तंत्र विकसित करने की पैरवी की. जनवरी, 1947 में उन्होंने “अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के संदर्भ में सुरक्षा परिषद द्वारा कार्रवाई करने के लिए एक मानवाधिकार विश्व न्यायालय की स्थापना” का सुझाव दिया. इसके अलावा, उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धातों के अनुरूप मानवाधिकारों को कम करने के लिए प्रत्येक देश को कानूनी और प्रशासनिक कदम भी उठाने चाहिए. इसके विपरीत, अमरीका, यू.के. और सोवियत संघ ने इस संदर्भ में कम से कम उपायों का प्रावधान किया. दूसरे, मेहता ने मानवाधिकार के चरित्र को परिभाषित करने की पैरवी भी की. लेबनान और फ़िलीपीन के शिष्टमंडल के साथ मिलकर तीसरा सुझाव देते हुए उन्होंने मानवाधिकार आयोग को सशक्त बनाने के लिए उसका अध्ययन करने के प्रयोजन से व्यक्तिगत स्तर पर और संगठनात्मक स्तर पर याचिका देने के अधिकार की भी पैरवी की.

अंत में नेहरू द्वारा संक्षिप्त प्रस्ताव देने का आग्रह करने के कारण मेहता ने अपने प्रस्ताव को लागू करने पर बहुत ज़ोर नहीं दिया. इसके बावजूद भी वह संयुक्त राष्ट्र और कानूनी तौर पर बाध्यकारी सम्मेलन द्वारा लागू किये जाने योग्य मानवाधिकार के सिद्धांतों की पैरवी करती रहीं. अमरीका के विरोध के बावजूद भी लेबनानी और फ्रांसीसी प्रतिनिधि के साथ मिलकर वह जून 1949 में की गई बहसों में याचिका देने के व्यक्तिगत अधिकार के लिए संघर्ष करती रहीं. अंत में मानवाधिकार प्रतिज्ञा पत्र का वही मसौदा पारित हुआ, जिसे अमरीका और ब्रिटेन ने स्वीकार किया था और केवल देशों को ही याचिका देने का अधिकार दिया गया.

इसलिए यह दृष्टांत असफलता की कोई कहानी नहीं है. हमें नेहरू की उस चेतावनी पर भी ध्यान देना होगा कि नेहरू ने भारत के पक्ष को महत्वाकांक्षी न बनाने के लिए आग्रह किया था. फिर भी यह आश्चर्यजनक था कि भारत मानवाधिकार संबंधी प्रस्तावों को लेकर काफ़ी आगे बढ़ने के लिए इच्छुक था और अधिकांश प्रतिनिधि उसके इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार थे, जो किसी देश के क्षेत्राधिकार के सख्त सिद्धांत को चुनौती दे सकते थे. यह दृष्टांत यह भी दर्शाता है कि भारत बरसों तक संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकारों को लेकर सक्रिय भूमिका का निर्वाह करता रहा, अपने प्रामाणिक नेतृत्व की अपनी आरंभिक इच्छा के लिए प्रयास करता रहा और उत्तर साम्राज्यवादी वैश्विक व्यवस्था को अपनी कल्पना के अनुरूप ढालने का प्रयास करता रहा और इस प्रकार प्रवासी भारतीय समुदाय की समस्याओं का व्यावहारिक समाधान निकालने का प्रयास भी करता रहा. इस प्रकार भारत मानवाधिकारों का आरंभिक समर्थक बन गया और वैश्विक व्यवस्था संबंधी बहस में अग्रणी रहा.

आज जब बहुपक्षीय व्यवस्था का भविष्य विचारार्थ सभापटल पर है और भारत उसे आकार प्रदान करने के लिए पूर्व प्रतिष्ठित दावा करने के लिए सन्नद्ध है तो हमें युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को आकार देने और मानवाधिकार की आरंभिक बहसों में भाग लेने से संबंधित अपने अतीत की तमाम महत्वाकांक्षाओं को भी याद रखना होगा. संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद (UNSC) का अस्थायी सदस्य चुने जाने से भारत को यह अवसर मिला है कि वह इस महत्वपूर्ण दौर में वैश्विक बहसों को एक बार फिर से प्रभावित कर सके और तदनुसार अपने कार्यों को भी उजागर कर सके.

रैफ़ेल खान रणनीतिक अनुसंधान संस्थान (IRSEM), पेरिस में सह अनुसंधान फ़ैलो हैं और CASI के अनिवासी विज़िटिंग स्कॉलर भी हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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