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भारतीय अर्थव्यवस्था में फँसे हुए संरचनात्मक परिवर्तन

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06/06/2022
ए.कलैयारासन

विरोध प्रदर्शन करने वाले भारतीय किसानों के प्रतिनिधि छत्र संगठन संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) के 15 महीने तक दिल्ली की सीमा पर तीन किसान कानूनों के विरुद्ध चलने वाले आंदोलन को खत्म हुए छह महीने से अधिक समय हो गया है. उनकी कुछ माँगें तो मान ली गयी हैं और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी से संबंधित कुछ माँगें अभी अधर में लटकी हैं. इन गतिविधियों से लंबे समय से अटकी हुई भारत की कृषि संबंधी आर्थिक समस्याएँ अभी तक हल नहीं हो पाई हैं. ज़रूरत इस बात की है कि कृषि क्षेत्र में उत्पादकता को बढ़ावा मिले, किसानों की आमदनी बढ़े, बाज़ार की ढाँचागत सुविधाएँ निर्मित की जाएँ और ज़मीन की उर्वरता के ह्रास को रोका जाए. यदि भारतीय नीति निर्माता इन मुद्दों का समाधान नहीं करते हैं, तो ग्रामीण भारत में उभरते सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोध बॉइलिंग पॉइंट पर पहुँच जाएँगे, जैसा कि कुछ साल पहले ज़मीनी किसान जातियों ने आरक्षण की माँग करते हुए सड़कों पर मार्च किया था.

ग्रामीण भारत में पिछले कुछ दशकों में बहुत परिवर्तन आया है और कृषि से इतर कुछ ऐसी नई चुनौतियाँ सामने आ गई हैं,जिनमें गैर-कृषि आर्थिक गतिविधियाँ भी शामिल हो गई हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी मिलने पर भी दीर्घकालीन सुधार होने की संभावना नहीं है. समर्थन मूल्य का लाभ कुछ हद तक ही होगा; लेकिन बुनियादी समस्या बहुत बड़ी है और कृषि और कृषि से इतर अर्थव्यवस्था में विषमता बढ़ती जा रही है. केवल भारत की शेष अर्थव्यवस्था की तुलना में ही नहीं, अन्य देशों की तुलना में भी भारत की कृषि व्यवस्था बहुत अनुत्पादक है. जब तक उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ भारत की अर्थव्यवस्था के संगठनात्मक परिवर्तन में तेज़ी लाने के लिए कार्यबल में विविधता नहीं लाई जाती, तब तक किसानों की स्थिति गंभीर बनी रहेगी.

आज खेती करना ज़्यादा कठिन हो गया है.
राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (NSO) के नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में औसत कृषि परिवार की आय 2018-19 के बीच केवल 10,218 रुपये प्रति माह थी. यदि औसत घरेलू आकार को नियंत्रित कर लिया जाता तो भी यह ग्रामीण भारत में अधिसूचित न्यूनतम मज़दूरी से काफ़ी कम है. कृषि के अंतर्गत घोषित 54 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों में से 40 प्रतिशत परिवारों की आमदनी मज़दूरी से आती है. 2013 से अब तक इसमें आठ प्रतिशत पॉइंट की बढ़ोतरी हुई है. इसमें अगर निहित लागत को भी शामिल कर लिया जाए तो वेतन घटक कृषि-परिवारों की औसत आमदनी के अधिकतम 49 प्रतिशत के पॉइंट तक जा सकता है. मात्र खेती-बाड़ी से होने वाली आमदनी सन् 2013 में 48 प्रतिशत थी, जो 2019 में घटकर 38 प्रतिशत रह गई. दूसरे शब्दों में औसतन कृषि-परिवार की आमदनी फसल की उपज की तुलना में वेतन से अधिक होती है. हालात को बदतर बनाने के लिए अखिल भारतीय ऋण एवं निवेश सर्वेक्षण,2019 के आँकड़े भी यह दर्शाते हैं कि ग्रामीण भारत के 35 प्रतिशत परिवार कर्ज़े में डूबे हुए हैं. इनमें से लगभग 44 प्रतिशत परिवारों ने गैर-संस्थागत (अनौपचारिक) ऋण-स्रोतों से कर्ज़ लिया है और ये संस्थाएँ 25 प्रतिशत तक की भारी दर पर ब्याज लेती हैं. ग्रामीण संस्थाओं की यह भारी अपर्याप्तता और कृषि में निष्क्रियता के कारण ही ग्रामीण-शहरी विषमता में वृद्धि हुई है. कृषि या तो इसकी कुल कारक उत्पादकता में वृद्धि करके या दिए गए इनपुट और/या श्रम उत्पादकता के लिए उत्पादन में वृद्धि करके अन्य दो क्षेत्रों (उद्योग और सेवा) के साथ समानता बनाए रख सकती थी. दोनों ही मामलों में यह विफल रही है.

खास तौर पर नब्बे के दशक के उत्तरार्ध से कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र की आमदनी में अंतराल बढ़ने से और कृषि से संबंधित “अतिरिक्त” श्रमिकों को समाहित करने में उद्योग की विफलता के कारण विषमता और बढ़ गई है. कृषि के बाहर, 1990 के बाद विकास की गति सेवा- आधारित रही है. आज कृषि क्षेत्र और उद्योग के बीच का संपर्क सूत्र कमज़ोर हो गया है.. अगर कृषि के भीतर लाभप्रदता और उत्पादकता में गिरावट के कारण ही ऐसी विषमता बढ़ी है तो गैर-कृषि सेवाओं के क्षेत्र में खेती-बाड़ी का आकर्षण और भी कम हो गया है.

शहरी होने का मतलब विशेषाधिकार प्राप्त
नब्बे के दशक से भारत का आर्थिक विकास शहरोन्मुख होने लगा है. शहरी-से-ग्रामीण व्यय के अनुपात से आकलन की गई शहरी-ग्रामीण विषमता 1993-94 में 1.63 थी, 2017-18 में यह विषमता बढ़कर 2.42 तक जा पहुँची है. भारत की कृषि में आई गिरावट और शहर-केंद्रिक सेवा-आधारित आर्थिक विकास के कारण शहरी-ग्रामीण विषमता का अंतराल और भी बढ़ गया है. उदाहरण के लिए 1993-94 में शहरी-से-ग्रामीण व्यय का अनुपात 1.63 था, जो 2004-05 में बढ़कर 1.84 हो गया. 2011-12 में यह अंतराल 1.84 पर स्थिर हो गया. जहाँ हमारे पास 2011-12 के बाद की अवधि का अलग-अलग डेटा तो उपलब्ध नहीं है,वहीं इस बात की संभावना भी नहीं लगती कि 2012 के बाद विमुद्रीकरण जैसे नीतिगत झटकों के कारण, मनरेगा के अवरुद्ध होने के कारण, वास्तविक मजदूरी में गिरावट आने और अंतर्राष्ट्रीय कृषि मूल्यों में गिरावट आने के कारण यह प्रवृत्ति उलट गई हो.

इसके बजाय, 2017-18 के लिए राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (NSSO) के 75वें दौर के हाल ही में लीक हुए आँकड़े में यह अनुपात 2.42 आँका गया है. इसका मतलब यह हुआ कि एक औसत शहरी आदमी गाँव में रहने वाले औसत ग्रामीण व्यक्ति की तुलना में लगभग 2.5 गुणा ज़्यादा खपत करता है.

निगम बनाम सार्वजनिक नीति
भारत के नीति-निर्माता भारतीय कृषि क्षेत्र को बीसवीं सदी में अमरीका के कृषि क्षेत्र की तरह उसी ढंग से औद्योगिक (अर्थात् निगमित) करने का प्रयास कर रहे हैं. परंतु अमेरिका में बड़े आकार के फ़ार्म, बड़ी फ़र्मों द्वारा उत्पादन का केंद्रीकरण, बाज़ार में इनपुट और सेवाओं का अधिकाधिक प्रवेश, और गैर-कृषि क्षेत्र के साथ कृषि बाज़ारों का लंबवत् एकीकरण जैसे कृषि औद्योगीकरण को सुगम बनाने वाले हालात भारत में नहीं है. इसके अलावा, भारत के पास न तो इतनी राजकोषीय क्षमता है कि वह उतनी बड़ी मात्रा में सरकारी सपोर्ट प्रदान कर सके और न ही खेती-बाड़ी के काम से श्रमिकों को निकालकर अमरीका की तरह विनिर्माण में लगा सके. असल में भारत के कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की बहुतायत है. संक्षेप में कहें तो इस तरह के मार्ग को दोहराने का प्रयास भारत में कारगर नहीं होगा. 

हालाँकि इस तरह के और मामले वैश्विक दक्षिण में या “संक्रमणात्मक” अर्थव्यवस्थाओं में  किसानों के अनुभवों में पाये जा सकते हैं. भारत की खासियत यही है कि यहाँ छोटे आकार के खेत हैं, ग्रामीण इलाकों में श्रमिकों की भरमार है, कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच उत्पादकता में भारी अंतराल है और ग्रामीण व शहरी इलाकों में विषमता बढ़ रही है. इसकी तुलना में चीन में कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई है और शिक्षा व स्वास्थ्य पर सामाजिक खर्च बढ़ाने के साथ-साथ गैर-कृषि क्षेत्र में किसानों को संक्रमित किया गया और भौतिक अवसंरचना के क्षेत्र में निवेश भी किया गया. इसके कारण खेती में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या में भारी कमी आ गई.

भारत में खेत का आकार घट रहा है. चीन की तुलना में भारत में औसत जोत का आकार 1.2 हेक्टेयर (3 एकड़) है, जबकि चीन में औसत जोत का आकार 0.6 हेक्टेयर (1.5 एकड़) है,लेकिन  कृषि उत्पादकता चीन की तुलना में कम बनी हुई है. यदि भारत और चीन के 1961 और 2019 के तुलनात्मक आँकड़ों को देखें तो अनाज की महत्वपूर्ण फसलों के वर्ग में हुई उपज की तुलना में चीन लगातार कृषि उत्पादकता के मामले में भारत से आगे ही रहा है. जहाँ एक ओर चीन की 70,601 की उपज के मुकाबले भारत में चावल के लिए प्रति हेक्टेयर उपज 40,577 (एचजी / हेक्टेयर) है, वहीं, चीन की 56,298 की उपज के मुकाबले भारत में गेहूँ की उपज 35,334 (एचजी / हेक्टेयर) है. उत्पादकता का यह अंतर कृषि-जलवायु की स्थितियों के कारण नहीं है, क्योंकि दोनों की स्थितियाँ समान हैं. चीन में उत्पादकता में वृद्धि का कारण यह है कि उन्होंने फ़ार्मिंग और अन्य नीतिगत मामलों में प्रविधि और प्रौद्योगिकी का उपयोग किया है. उदाहरण के लिए चीन की जल कुशलता (फसलों द्वारा प्रयुक्त और लिये गए पानी का प्रतिशत)  53 प्रतिशत है, जबकि भारत में इसका प्रतिशत 30 प्रतिशत है. कृषि विज्ञान एवं टैक्नोलॉजी संकेतकों (ASTI) के अनुसार, कृषि अनुसंधान पर भारत द्वारा किया गया खर्च फ़ार्म जीडीपी का 0.30 है, जो चीन (0.61 प्रतिशत) की तुलना में आधा ही है. दोनों ही मामलों में - कृषि उत्पादकता में हुई वृद्धि के मामले में और अपने कार्यबल में विविधता लाने में भारत चीन से पीछे है.

अर्थशास्त्री सी.पीटर टिमर के अनुसार सफल कृषि संक्रमण वही है जिसमें उत्पादकता में वृद्धि कृषि और गैर-कृषि दोनों ही क्षेत्रों में होती है, शहरी आबादी को खाद्य सुरक्षा मिलती है और उद्योगों में निवेश के लिए फ़ार्म-सरप्लस पूँजी उपलब्ध होती है. वह इस तरह के परिवर्तन के लिए अन्य शर्तें भी जोड़ता है: एक सहवर्ती औद्योगिक नीति जो कृषि-उद्योग के बीच संरचनात्मक संबंधों को ध्यान में रखती है और जो विशेष रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश के क्षेत्र में शहरी बुनियादी ढाँचे और सामाजिक क्षेत्र का समर्थन भी प्रदान करती है. इसके विपरीत, भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में कृषि उत्पादन का हिस्सा घट गया है; यह न तो कृषि क्षेत्र में अपने निवेश के स्तर को बनाए रख सका और न ही अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के बुनियादी ढाँचे को पर्याप्त रूप से विकसित कर सका. इसके अलावा नब्बे के दशक से सिंचाई, अनुसंधान और शिक्षा के क्षेत्र में निवेश में गिरावट आ रही है. कृषि के क्षेत्र में होने वाले अनुसंधान और विकास की पहल भी अनावश्यक हो गई है या फिर बुनियादी ढाँचे में कमी आ गई है.

इस बात को लेकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि ग्रामीण असंतोष का एक नया स्वरूप उभर रहा है. जातिगत आधार पर अनेक आंदोलन होने लगे हैं और इसमें हरियाणा और पंजाब से जाट, महाराष्ट्र से मराठा और गुजरात से पटेल शामिल हैं जिनके पास अच्छी खेती भी है. वे अन्य माँगों के अलावा अपनी जाति के आधार पर उच्च शिक्षा में और आधुनिक औपचारिक क्षेत्र में नौकरियों में आरक्षण की माँग कर रहे हैं. ये लोग सवर्ण जाति के हैं और लंबे समय से शहर में रहने के कारण इसका लाभ भी उठा रहे हैं. इन वर्गों की तरह, कृषि से जुड़े बहुत-से वर्ग ऐसे भी हैं जिन्हें अब तक आधुनिक सेवा पर आधारित अर्थव्यवस्था में भाग लेने के लिए अपेक्षित कौशल प्राप्त नहीं हो सका है. कृषि में अपेक्षित लाभ न मिलने के कारण ये लोग हताश होने लगे हैं. कृषि के क्षेत्र में उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा है और काम की आधुनिक दुनिया तक उनकी पहुँच नहीं हो पाती. वैश्विक दक्षिण के साक्ष्य से पता चलता है कि बेहतर कृषि संक्रमण कृषि उत्पादकता में वृद्धि के साथ-साथ मानव पूँजी (अर्थात् स्वास्थ्य और शिक्षा) के निर्माण से ही संभव हो पाता है: इसलिए अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा भारत में कृषि सुधारों के पूरक के रूप में काम करते हैं.

ए.कलैयारासन ब्राउन विश्वविद्यालय के समकालीन दक्षिण एशिया केंद्र में नॉन-रेज़िडेंट फ़ैलो हैं और भारत स्थित मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट स्टडीज़ (MIDS) में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

 

Hindi translation by Dr. Vijay K Malhotra, Former Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India <malhotravk@gmail.com> / Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365