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भारत में राजनीतिक केंद्रीकरण की जड़ें

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31/01/2022
नीलांजन सरकार

जनवरी, 2022 में कांग्रेस पार्टी के पूर्व सांसद कुँअर रतनजीत प्रताप नारायण सिंह (RPN सिंह) दल-बदल करके कांग्रेस की धुर विरोधी भारतीय जनता पार्टी (BJP) में शामिल हो गए हैं. वह कोई साधारण पार्टी कार्यकर्ता नहीं थे. सिंह कई बार कांग्रेस की टिकट पर विधान सभा के सदस्य रहे हैं, कांग्रेस के शासन में केंद्रीय मंत्री रहे हैं, युवा मोर्चे के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं और उन्हें पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी का करीबी भी माना जाता रहा है. पूरी दुनिया में, खास तौर पर मज़बूत पश्चिमी लोकतंत्र में एक बड़ी पार्टी के एक ऐसे महत्वपूर्ण सदस्य का दल-बदल करना बहुत ही असाधारण और विलक्षण घटना मानी जाती है.

इस प्रकार के दल-बदल के प्रसंग भारत की राजनीतिक संस्कृति में रचे-बसे हैं और इस प्रक्रिया को लोकप्रिय शब्दावली में “आयाराम गयाराम” राजनीति कहा जाता है. सन् 1967 में गया लाल द्वारा बार-बार दल-बदल करने से यह शब्द प्रचलित हो गया. पिछले पाँच वर्षों में 417 विधायक या सांसद ( भारत की 4,664 विधायी सीटों का 9 प्रतिशत) दल-बदल करके अन्य दलों में चले गए और फिर से उन्होंने चुनाव लड़ा. इस प्रकार की दल-बदल और “पाला बदलने” की घटनाएँ ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देशों के लोकतंत्र में भी बड़े पैमाने पर होती रहती हैं. पार्टी के विधायकों और सदस्यों में अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा को भारत के संदर्भ में मैं कमज़ोर पक्षधर संबंध मानता हूँ.

जहाँ हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन-काल में आर्थिक और राजनीतिक केंद्रीकरण पर विशेषज्ञों का ध्यान गया है, वहीं मैं यह मानता हूँ कि पार्टी के साथ कमज़ोर पक्षधर संबंध होने पर राजनीतिक केंद्रीकरण की प्रक्रिया स्वाभाविक हो जाती है और भारत की राजनीति में यह आम बात हो गई है. खास तौर पर राजनीतिक अधिकारों के केंद्रीकरण के माध्यम से पार्टी और मतदाताओं के बीच सीधे राजनीतिक गठजोड़ होने से पार्टी दल-बदल से होने वाले नकारात्मक चुनावी दुष्परिणामों का असर कम हो जाता है. वास्तव में, ये भारत के क्षेत्रीय दल ही थे जो इस तरह के चरम राजनीतिक केंद्रीकरण में सबसे पहले शामिल हुए थे और मोदी स्वयं, भारतीय राज्य गुजरात के एक सफल मुख्यमंत्री थे. इस अर्थ में मौजूदा हालात राष्ट्रीय राजनीति के “क्षेत्रीकरण” को दर्शाते हैं अर्थात् राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीयता के तत्वों का राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश हो रहा है.

राजनीति का केंद्रीकरण
नब्बे के दशक में अब तक की सबसे प्रभावी पार्टी तंत्र वाली कांग्रेस पार्टी के पतन की शुरुआत हो गई थी और अनेक क्षेत्रीय पार्टियाँ चुनाव में सफल होने लगी थीं. एक त्वरित गणना से पता चलता है कि पार्टियों की प्रभावी संख्या (ENP) - प्रत्येक पार्टी द्वारा हासिल की गई सीटों के वर्ग अनुपात के योग के विपरीत –राज्य स्तर पर विधायकों के लिए सन् 1986 में यह संख्या लगभग चार से बढ़कर 1996 में आठ से अधिक हो गई थी. जनता दल (सैक्युलर), जनता दल (युनाइटेड),राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और तृणमूल कांग्रेस सर्वाधिक सफल नई पार्टियों में थीं. यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश नई क्षेत्रीय पार्टियाँ मूलतः “परिवारवादी फ़र्मों” की तरह रही हैं और उनका नियंत्रण पार्टी के संस्थापक और उनके परिवारजनों के हाथ में ही रहा है. हम इस पतनोन्मुख प्रक्रिया की व्याख्या कैसे कर सकते हैं जब कांग्रेस पार्टी के कमजोर होने से इसकी भरपाई लोकतांत्रिक राजनीति की बढ़त से होनी चाहिए थी?

जब संभावित विधायकों में उनके कमजोर पक्षधर लगाव का पता चलता है तो कम ब्रांड मूल्य वाले नए दलों में विशेष रूप से व्यक्तिगत उम्मीदवारों से पार्टी में दल-बदल के लिए अधिक संभावनाएँ होती हैं. इसके परिणामस्वरूप नई पार्टियाँ स्थिर पार्टी वोट शेयर हासिल करने के लिए विशेष रूप से व्यक्तिगत उम्मीदवारों की लोकप्रियता पर निर्भर रहने से सावधान रहती हैं. ऐसे हालात में, एक नई पार्टी के लिए सबसे अच्छी रणनीति यही रहती है कि वह "राजनीतिक अधिकारों" को केंद्रीकृत करे ताकि मतदाता और राजनीतिक दल के नेता के बीच सीधा संबंध हो - और प्रत्येक व्यक्तिगत उम्मीदवार का पार्टी की अपील और चुनावी परिणामों पर कम से कम प्रभाव पड़े. राजनीतिक पार्टी के प्रमुख के गौरव-गान के लिए पार्टी संगठन को मज़बूत करने के साथ-साथ सरकार और मीडिया के संसाधनों को जुटाकर ही अक्सर ऐसा किया जाता है.    

जहाँ राज्य-स्तर के चुनावों में तो ऐसा करने की परंपरा पहले से प्रचलित ही है, वहीं अब राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा और मोदी के स्तर पर यह हथकंडा अपनाया जाने लगा है. जैसा कि मैंने अन्यत्र तर्क दिया है कि राजनीति के इस हथकंडे का मुख्य निहितार्थ यह है कि एक राजनीतिक दल की लोकप्रियता नीतिगत परिणामों और वायदों को पूरा करने के बजाय उसके नेता की कथित सत्यनिष्ठा पर निर्भर करती है.

इस प्रकार, हम राजनीतिक केंद्रीकरण के जिस स्वरूप का निरीक्षण कर रहे हैं, यह उस मॉडल का विरोध है जिसमें नागरिक अपने सीधे प्रतिनिधि को आर्थिक निष्पादन की गुणवत्ता के लिए जवाबदेह ठहराते हैं.

प्रौद्योगिकीय बदलाव,कल्याणवाद और राजनीतिक अधिकारों का केंद्रीकरण
राजनीतिक अधिकारों के केंद्रीकरण की प्रक्रिया में नागरिकों को सीधे लक्षित अंतरण की सुविधा प्रदान करने में प्रौद्योगिकीय बदलाव से महत्वपूर्ण मदद मिलती रही है. खास तौर पर नये कल्याणकारी ढाँचे ने कल्याणकारी योजनाओं की डिलीवरी की ब्रैंडिंग के द्वारा अधिकाधिक स्थानीय नेताओं के स्थान पर पार्टी के राजनीतिक प्रमुख के इर्द-गिर्द राजनीतिक अधिकारों की केंद्रीकरण की प्रक्रिया को आसान बना दिया है.

भारत के संदर्भ में यह नीतिगत और प्रौद्योगिकीय बदलाव दो प्रमुख कारणों से ही संभव हो पाया है. पहला प्रमुख कारण है, भारत का सार्वभौमिक पहचान कार्यक्रम (आधार) और भारत की ब़ड़ी आबादी को औपचारिक बैंकिंग प्रणाली से समन्वित करने के लिए जन-धन बैंक खातों का विस्तार किया गया है. जन-धन बैंक खातों के इसी विस्तार के कारण सरकार बहुत कुशलता से अनेक सरकारी योजनाओं की लाभकारी रकम को बैंक खातों में सीधे ही अंतरित करने की शुरुआत कर सकती है. इससे सरकार बहुत कुशलता से स्थानीय बिचौलियों और अन्य स्थानीय नेताओं की अनदेखी कर सकती है और उन्हें आर्थिक लाभ प्रदान करने के श्रेय से वंचित कर सकती है. यह प्रत्यक्ष लक्षित लाभ ही वह मूलबिंदु है,जिसे अरविंद सुब्रमणियम ने नाम दिया था, “अनिवार्य निजी वस्तुओं और सेवाओं का सार्वजनिक प्रावधान”. दूसरा कारण यह है कि अनेक प्रकार की नवाचार संबंधी ब्रैंडिंग के माध्यम से पार्टी प्रमुख ने बहुत सावधानी से तैयार किये गए लक्षित विज्ञापनों, मीडिया प्रबंधन और पार्टी संगठन पर अपना नियंत्रण मज़बूत करके कल्याणकारी योजनाओं का श्रेय लेने में सफलता प्राप्त की है. इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ.

दिलचस्प बात तो यह है कि केंद्रीकरण की यह प्रक्रिया नागरिकों की ओर से सरकार से वार्ता करने वाले तमाम स्थानीय राजनीतिक बिचौलियों की जीवंत प्रणाली के समानांतर चल रही है. स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ने वाले इस अंतर्विरोध को तर्कसंगत बनाने के लिए यह देखना ज़रूरी हो है कि भारत को व्यापक तौर पर एक ऐसी “कमज़ोर संस्थागत प्रणाली” के रूप में देखा जाता है जिसमें मतदाता और पार्टी के बीच संबंधों का आधार कोई मज़बूत विचार प्रणाली नहीं होता, बल्कि यह संबंध आर्थिक डिलीवरी पर आधारित होता है. इसका यह मतलब नहीं है कि भारत की राजनीति में विचारधारा के स्पष्ट आयाम नहीं हैं. हो सकता है कि विचारधारा का यह अंतर मात्र पार्टी की प्रतिस्पर्धा और प्रत्याशियों के चयन के लिए निर्णायक न हो. फिर भी भारत में बजट आबंटन और कल्याणकारी निधि के विनिधान का निर्णय पार्टी और सरकारी नेतृत्व द्वारा किया जाता है. इन प्रौद्योगिकीय नवाचारों से आबंटन के निर्णय और श्रेय लेने के बीच परस्पर संबंध बन गए हैं और इससे राजनीतिक अधिकार अधिकाधिक केंद्रीकृत होने लगी है.

इसके अलावा पार्टी के टिकटों का वितरण अभी भी पार्टी नेतृत्व के द्वारा बेहद केंद्रीकृत रूप में किया जाता है (किसी भी बड़ी पार्टी में प्राथमिक चुनाव नहीं होता) और इस तरह प्रत्याशियों का पुनर्नामांकन पार्टी नेतृत्व के व्यापक उद्देश्यों पर निर्भर करता है. इसका अर्थ यह है कि स्थानीय प्रदर्शन के बावजूद  “अंतर्दलीय लोकतंत्र की कमी” वाली केंद्रीकृत पार्टियों में आम तौर पर स्थानीय सत्ता की पतनोन्मुख प्रक्रिया को रोकने के लिए उसी प्रत्याशी के पुनर्नामांकन की संभावना नहीं होती. 

वस्तुतः 2014 के भारत के राष्ट्रीय चुनाव में, जिसमें मोदी चुनकर सत्ता में आए थे, संसद के वर्तमान सदस्यों के पास चुनाव में खड़े होने के लिए पुनर्नामांकन के केवल 53 प्रतिशत ही  अवसर होते हैं. भले ही उनका पुनर्नामांकन हो जाए तो भी पदधारी प्रत्याशी के पास 27 प्रतिशत की समग्र पदधारिता की दर से चुने जाने का अवसर केवल 50 प्रतिशत ही होता है. और यह पैटर्न राज्य स्तर पर भी रहता है. भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पहली बार चुनकर आने वाले विधायकों का प्रतिशत 1977 से अब तक कम से कम 60 प्रतिशत रहा है और बिल्कुल हाल ही के राज्य-स्तर के चुनावों में पहली बार चुनकर आए विधायकों का प्रतिशत 78 प्रतिशत रहा है. इन प्रक्रियाओं से यह सुनिश्चित होता है कि स्थानीय नेता केंद्रीय नेतृत्व के राजनीतिक अधिकारों से विमुख नहीं रह सकते.

इन तमाम तथ्यों के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में राजनीतिक केंद्रीकरण की प्रक्रिया में भाजपा के पार्टी संगठन और नरेंद्र मोदी के हिंदू राष्ट्रवाद की विशेष भूमिका नहीं होती. फिर भी यह समझना महत्वपूर्ण होगा कि केंद्र में मौजूदा राजनीतिक केंद्रीकरण भारत की राज्य-स्तर पर विकसित मौजूदा प्रणाली का ही बदला हुआ स्वरूप है. मेरा आशय यहाँ यही दर्शाना है कि राजनीतिक केंद्रीकरण की प्रक्रिया एक से अधिक नेता या पार्टी के बारे में नहीं है, बल्कि यह पूरे देश में व्याप्त संगठनात्मक वास्तविकता है.

नीलांजन सरकार नई दिल्ली स्थित नीतिगत शोध केंद्र में वरिष्ठ फ़ैलो हैं. वह CASI Fall 2021 में विज़िटिंग स्कॉलर और 2013-15 के दौरान पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च फ़ैलो रहे हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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