इस साल विभाजन के अच्छे और बुरे दोनों ही पहलुओं का हिसाब-किताब किया गया. फ़िलिस्तीन और आयरलैंड के विभाजन के परिदृश्य आम तौर पर भारत और पाकिस्तान से जुडे हुए होते हैं. पिछले कुछ महीनों में विभाजन की प्रक्रिया के गुण-दोषों और उसकी परिणति पर तात्कालिकता के आधार पर वाद-विवाद होते रहे हैं. खास तौर पर आज के संदर्भ में जब विभाजन की यादों को राजनैतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश हो रही हो, इन दोनों देशों से प्राप्त सीख भारत के लिए बहुत मूल्यवान् होनी चाहिए.
सन् 1998 में लंबे समय से चले आ रहे क्षेत्रीय और राजनैतिक विवाद को निपटाने के लिए उत्तरी आयरलैंड प्रोटोकोल पर विभिन्न हितधारकों ने सामूहिक रूप में हस्ताक्षर किये थे, जिसके कारण इस क्षेत्र में न केवल स्थिरता और शांति की बहाली हुई, बल्कि लगभग एक शताब्दी से चले आ रहे विभाजनकारी संघर्ष का भी अंत हो गया. अब ब्रैक्सिट के संदर्भ ने आयरिश सवाल को भी अपने मार्ग में ही समेट लिया है और फिर से इस क्षेत्र में हिंसा और असंतोष की संभावना का दौर लौट आया है, जबकि पिछले दो दशकों से हिंसा में काफ़ी कमी आ गई थी.
आयरिश शांति प्रक्रिया में एक ऐसे संघीय मॉडल की परिकल्पना की गई थी, जिसके यूरोपियन करार के ढाँचे के अंतर्गत एक ऐसा राजनैतिक करार किया गया था जिसमें सीमाओं और शासन-व्यवस्था में शिथिलता दी गई थी. ब्रैक्सिट मतदान के बाद यू.के. में फिर से खोली गई प्रक्रिया भारतीय दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देने वाली हो सकती है, क्योंकि भारत में लगातार एक के बाद एक शासन व्यवस्थाएँ सात दशकों की बेहतर अवधि में मोटे तौर पर वैसा ही काल्पनिक समाधान प्राप्त करने में बुरी तरह से जुटी रही हैं.
ब्रैक्सिट समाधान यही था कि यू.के. में एकतरफ़ा तौर पर आयरिश सागर की ओर सीमा-शुल्क की सीमाओं को पीछे ढकेल दिया जाए. कई मायनों में तो यह कार्रवाई ऐसी थी मानो सीमाएँ एकतरफ़ा ही बदल दी गई हों. इसके परिणामस्वरूप उत्तरी आयरलैंड के प्रोटेस्टेंट समुदाय को खतरा महसूस होने लगा कि गणतंत्र में बहुसंख्यक होने के कारण बहुमत में होने से उनका जोखिम बढ़ गया है. बहुत-से टिप्पणीकार हिंसा का दौर फिर से लौटने की चेतावनी दे रहे हैं और यह संकेत दे रहे हैं कि उत्तरी आयरलैंड में टकराव और समुदायों के बीच शत्रुता फिर से बढ़ सकती है और विभाजन के संबंध में हुए समझौते के कारण जो उपलब्धियाँ हासिल की गई थीं, वे सब खत्म हो सकती हैं.
मई माह में पूर्वी जेरूसलम की अक्सा मस्जिद में जो हिंसा हुई थी, उसकी परिणति “11 दिनों के युद्ध” में हुई और इस युद्ध के दौरान इज़राइल ने वैस्ट बैंक में बस्तियों को निशाना बनाया और 230 फ़िलिस्तीनी नागरिकों को मार गिराया. जिस तरह से इज़रायली सरकार कई दशकों से फिलिस्तीनियों के ठिकानों को निशाना बनाती रही है, वह तो सर्वविदित ही है, लेकिन अभी हाल में जिस तरह से हिंसक वारदात हुई है, उसकी तुलना दक्षिण एशियाई विभाजन से की जा सकती है, इसलिए इसकी गहरी छानबीन करना ज़रूरी है.
पूर्वी जेरूसलम में इज़राइल द्वारा विवादग्रस्त बस्तियों के 300 परिवारों की संपत्ति के हक पर उठाये गए सवाल के कारण उन्हें वहाँ से हटाने का खतरा मँडराने लगा है, क्योंकि इज़राइल का कहना है कि ये बस्तियाँ यहूदियों की हैं. इज़राइल सरकार का कहना है कि पूर्वी जेरूसलम में विरोध प्रदर्शन करने वाले लोग जेरूसलम में “हिंसा भड़काने के लिए राष्ट्रीय उद्देश्य की तरह निजी पार्टियों के बीच के रियल इस्टेट विवाद को उठा रहे हैं.”
फ़िलिस्तीनी निवासियों की स्थिति इस तथ्य के कारण और भी दयनीय हो जाती है कि उनके सहारे के स्रोत और भी क्षीण होते जा रहे हैं और उनकी अपील करने की क्षमता भी व्यवस्थित रूप में नष्ट कर दी जाती है. इज़राइल और फ़िलिस्तीन पर टिप्पणी करने वाले पत्रकारों द्वारा जनवरी, 2020 में लागू की गई “ट्रंप शांति योजना” की व्यापक आलोचना की गई थी. फ़िलिस्तीनियों को मिले वास्तविक देश के मालिकाना हक धीरे-धीरे खत्म होने का यह एक और उदाहरण है.
इसके अलावा, दो-देशों के कमज़ोर राष्ट्रीय ढाँचे के कारण शरणार्थियों के लिए "वापसी के अधिकार" की स्वीकृति को और अधिक कठिन बना दिया गया है. सन् 1948 में निष्कासन प्रक्रिया के विद्वान् यह बताते हैं कि "नाबका" के अंतर्गत किस प्रकार 750,000 फिलिस्तीनियों को इजरायल के निर्माण के वर्ष में ही अपने घरों से बाहर निकाल दिया गया था, क्योंकि अर्धसैनिक संगठनों की यह धारणा थी कि फिलिस्तीनियों को लंबे समय तक वहाँ बनाये रखना व्यावहारिक नहीं होगा. निष्कासन की इस प्रक्रिया में हिंसा का सहारा लिया गया था और लगातार कानाफूसी के अभियान द्वारा इसे अंजाम दिया गया था. फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए लौटने या इज़राइल में अपनी संपत्ति को पुनः प्राप्त करने के अधिकारों पर आज तक विवाद चल रहा है.
इस प्रक्रिया को किस हद तक रोका जा सकता है, इसमें सबकी अलग-अलग राय है. लेकिन पचास के दशक की शुरुआत में भारत और पाकिस्तान के संदर्भ इस बारे में दिलचस्प नज़रिया प्रदान करते हैं. पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल में प्रवासियों के अनियंत्रित प्रवाह को रोकने के लिए, भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने कई समझौते किये. पहला समझौता 1948 में प्रांतीय स्तर पर किया गया और फिर 1950 में नेहरू लियाकत संधि में इसकी परिणति हुई. इसके अलावा, खाली संपत्ति पर, भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने भी एक साथ आगे बढ़ने का प्रयास किया, आंशिक रूप से इस विश्वास के कारण कि दूसरे देश में होने वाली चोरी में प्रभावी सुरक्षा की कमी के कारण विभाजन के बाद के संदर्भों में संपत्ति के विनियोग को बिना रोक-टोक के जारी रखा जा सकता है. 1950 के दशक में दक्षिण एशिया में विभाजन के आंशिक रूप से अलग-अलग रास्ते अपनाये जाने के कारणों का संबंध इस कारण से भी था कि भारत-पाकिस्तान संबंधों पर इसका प्रभाव पड़ सकता था.
भारत की नई घरेलू और विदेश नीति के संचालन के लिए एक नए प्रतिमान को बदलने के प्रयास में दक्षिण एशियाई देशों के विभाजन के बाद की बस्तियों की स्थापना के मूलभूत प्रश्नों पर सवाल उठते समय, सरकार को उत्तरी आयरलैंड और फिलिस्तीन की विफलताओं के कारणों पर भी विचार करना चाहिए. अंततः ऐसे समाधान जिन्हें किसी एक देश द्वारा एकतरफ़ा तौर पर ही दूसरे देश को कमज़ोर बनाने के लिए तय कर लिया जाता है, लंबे समय तक टिकते नहीं हैं. अपने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की कीमत पर किसी एक क्षेत्रीय राष्ट्र की जबरन कार्रवाई, जैसा कि इन स्थितियों से स्पष्ट होता है, सभी के लिए सबसे अधिक अदूरदर्शी समाधान सिद्ध होगा.
पल्लवी राघवन अशोक विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की सहायक प्रोफ़ेसर हैं. उनकी पुस्तक Animosity at Bay: An Alternative History of the India-Pakistan Relationship, 1947-1952, सन् 2020 में C. Hurst & Co. (UK) and Harper Collins द्वारा प्रकाशित की गई थी.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919