भारत में हाल ही में हुए चुनाव पर विचार करते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वैकल्पिक राजनीति के बीज बोये जा चुके हैं, लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि मीडिया के जबर्दस्त समर्थन और दिल्ली में अपनी ऐतिहासिक जीत दर्ज कराने के बावजूद आम आदमी पार्टी के खाते में लोकसभा की केवल चार सीटें ही आईं? मेवात के चश्मे से चुनावों के समाजशास्त्र को समझने की इस कोशिश में इसका एक पहलू उजागर हुआ है. मेवात पर केंद्रित होते हुए भी ज़रूरी नहीं है कि ये निष्कर्ष इसी क्षेत्र तक ही सीमित हों. ये निष्कर्ष सूक्ष्म रूप में अन्य भौगोलिक क्षेत्रों पर भी लागू हो सकते हैं, खास तौर पर ग्राणीण भारत पर और फिर भी ये उतने ही प्रासंगिक हैं.
मेवात ज़िला गुड़गाँव के संसदीय क्षेत्र में पड़ता है. 2011 की जनगणना के अनुसार मेवात ज़िले की आबादी 1,089,406 है. इस क्षेत्र की लगभग 75 आबादी मियो या जाट मुसलमानों की है और इसका 90 प्रतिशत क्षेत्र ग्रामीण इलाके में पड़ता है. इसके अलावा मेवात से दिल्ली की दूरी 150 किलोमीटर से भी कम है और फिर भी विकास के मानदंड और बुनियादी ढाँचे के आधार पर यह सबसे नीचे पायदान पर है. स्थानीय लोग परंपरागत राजनैतिक पार्टियों से और उनके खोखले आश्वासनों से तंग आ चुके हैं. यहाँ भ्रष्टाचार का बोलबाला है और विकास के नज़रिये से भी इसकी तस्वीर धूमिल ही दिखाई पड़ती है, इसलिए ऊपर से देखने पर तो मेवात की ज़मीन ‘आम आदमी पार्टी ’ जैसे राजनीतिक दलों के नये खिलाड़ियों के लिए काफ़ी अनुकूल मालूम पड़ती है, लेकिन मेवात की चुनावी प्रवृत्ति के अध्ययन से दूसरी ही तस्वीर सामने आती है.
भारत के अधिकांश शहरी इलाकों और खास तौर पर महानगरों की स्थिति को देखकर हमें तो यही लगता है कि अपना वोट डालने का निर्णय लेने की छूट और मतदाता की अपनी व्यक्तिगत पहचान का तो मेवात में सवाल ही नहीं है. उदाहरण के लिए, मेवात की औरतें अधिकांशतः उसी पार्टी को वोट देती हैं जिसके लिए उनके मर्द कहते हैं. गैर कानूनी होते हुए भी यह आम बात है कि मर्द ही औरतों की तरफ़ से वोट डाल देते हैं. इसी तरह मेवात का औसत आदमी किसी न किसी थोंडे से जुड़ा हुआ है और वह वही करता है जो उसका थोंडा कहता है. हर थोंडे का अपना वोट बैंक होता है और वह अपने प्रभाव क्षेत्र के अनुसार दो हज़ार से अधिक मतदाताओं को प्रभावित कर सकता है. थोंडों और स्थानीय लोगों के बीच के इसी ताने-बाने से क्षेत्र के राजनैतिक संबंध बनते–बिगड़ते हैं. यही कारण है कि मेवात में स्वतंत्र मतदान या निर्दलीय लोगों के चुनाव का सवाल ही पैदा नहीं होता.
‘‘आम आदमी पार्टी ’’ को छोड़कर शेष पुरानी पार्टियाँ, जो इस क्षेत्र में काफ़ी अरसे से सक्रिय हैं, आम तौर पर सीधे मतदाताओं को लुभाने के लिए चुनाव प्रचार में अपनी ताकत ज़ाया नहीं करतीं. सच तो यह है कि वे अपनी पूरी ताकत इन्हीं थोंडों को लुभाने में ही लगा देती हैं. जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आने लगते हैं, ये थोंडे मेवात के अनेक चाय-हुक्का स्टॉलों पर चर्चा करते हुए और चुनावी हिसाब-किताब करते हुए देखे जा सकते हैं. जब कभी कोई स्थानीय व्यक्ति परेशानी में होता है तो वह इन्हीं थोंडों के पास जाता है क्योंकि इन थोंडों की चुने हुए प्रतिनिधियों के पास सीधी पहुँच होती है. इसके एवज़ में थोंडे इन प्रतिनिधियों को चुनाव में मदद का आश्वासन देते हैं और इस प्रकार वह प्रतिनिधि भी अपने वोट बैंक के प्रति आश्वस्त हो जाता है. इन प्रतिनिधियों को वोट बैंक के प्रति आश्वस्त करने के एवज में संबंधित राजनैतिक पार्टी के हाई कमान में उसकी व्यक्तिगत पहुँच भी हो जाती है और इसके बदले में उसे नकदी या दूसरे तरह की मदद मिलने लगती है. संक्षेप में, मेवात के लोग एक-दूसरे के उपकार और वफ़ादारी से बँधे होते हैं.
मेवात के लोगों को लगता है कि वे हमेशा ही संकटों से घिरे रहते हैं. स्थानीय लोगों के लिए ज़रूरी है कि राजनैतिक आकाओं से उनके रिश्ते बने रहें और यही कारण है कि थोंडों के प्रति उनकी निष्ठा बनी रहती है. हालाँकि आम आदमी पार्टी द्वारा चुनाव के समय सुशासन, स्वच्छ राजनीति और असली विकास के जो वादे किये गये थे, लोगों ने उसकी सराहना भी की थी, लेकिन मियो लोगों को अपने निकट भविष्य की चिंता ज़्यादा रहती है और वे अपने पुराने आकाओं की छत्रछाया में ही सुरक्षित महसूस करते हैं और जब वे सुरक्षित जीवन की बात करते हैं तो उनके सामने केवल रोज़गार, सिंचाई सुविधाओं, पीने के पानी, सड़कों, स्कूलों या स्वास्थ्य सेवा का ही मसला नहीं होता, बल्कि ढाल की तरह वे ऐसे लोग चाहते हैं जो मुसीबत के समय उनकी पुलिस से रक्षा कर सकें या फिर हर संकट में उनके साथ खड़े रहें. आम आदमी पार्टी एक ऐसी पार्टी है जो थोंडों की अनदेखी करके सीधे मतदाता से ही संवाद करना चाहती है और यही कारण है कि वे मेवात में पैर जमाने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं. स्थानीय लोग आम आदमी पार्टी की विचारधारा को सही तो मानते हैं और उनके प्रत्याशियों को भी अच्छा समझते हैं, लेकिन ज़िले के मौजूदा सरकारी तंत्र के जर्जर ढाँचे के स्थान पर विश्वसनीय सेवा का एक और विकल्प खड़ा करने के लिए अभी तैयार नहीं हैं. अभी-भी मेवाटी लोग अपेक्षित लाभ पाने के लिए थोंडा प्रणाली के परंपरागत तंत्र पर ही भरोसा करते हैं.
थोंडागिरी अर्थात् थोंडों का धंधा खूब चल रहा है और ज़ोरों से उसी अनुपात में आगे भी बढ़ रहा है और इसके फलने-फूलने का कारण भी यही है कि एक ओर इस क्षेत्र की शासन-व्यवस्था जर्जर है और दूसरी ओर भ्रष्टाचार का भी बोलबाला है. स्थानीय लोगों में व्याप्त भय, असुरक्षा और चिंता के कारण ही अव्यवस्था, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बल मिलता है और थोंडों और राजनैतिक आकाओं की मिलीभगत के कारण ही ये हालात जस के तस बने रहते हैं. यह एक दुश्चक्र है, जिसके कारण यह धंधा खूब फलता-फूलता है और इन लोगों की इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं होती कि लोकतांत्रिक संस्थाएँ या ढाँचा मजबूत हो. जहाँ एक ओर सुशासन के अभाव में थोंडागिरी पनपती है वहीं स्थानीय लोग पुरानी सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने का साहस भी नहीं जुटा पाते और इस डर के कारण किसी वैकल्पिक व्यवस्था का समर्थन नहीं करते कि कहीं राजनैतिक संरक्षण से वे वंचित न हो जाएँ. नई पीढ़ी में भी थोंडागिरी लोकप्रिय होती जा रही है, क्योंकि इस धंधे में खूब पैसा कमाने के मौके मिलते है.
मेवात के लिए पिछला चुनाव खास था. युवाओँ और अच्छी-खासी संख्या में स्थानीय लोगों को भी, जिसमें महिलाएँ भी शामिल थीं, आम आदमी पार्टी की विचारधारा और तौर-तरीके बहुत अच्छे लग रहे थे. रैलियों में आने वाली भारी भीड़ को देखकर आम आदमी पार्टी भी यह मानने लगी थी कि उन्हें मेवात में भारी जन समर्थन मिल रहा है. अनजाने में ही स्थानीय लोग अपने इरादों को जाहिर भी करने लगे थे. स्थिति को भाँपकर थोंडों का परंपरागत नैटवर्क सक्रिय हो गया और वे आम आदमी पार्टी के प्रति बढ़ते जन समर्थन में सेंध डालने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने लगे. स्थानीय लोगों पर दबाव बढ़ने लगा और नई पार्टी के प्रति हमदर्दी रखने वाले लोग घबराकर पुरानी व्यवस्था के प्रति ही अपनी निष्ठा प्रकट करने लगे. आम आदमी पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं को मेवात में इस प्रकार के नकारात्मक प्रभाव से निपटने का कोई अनुभव नहीं था.
थोंडे चुनावी खेल के पुराने और सधे हुए खिलाड़ी थे. स्थानीय चुनावों के परिणामों की सही गणना के आधार पर राजनैतिक पार्टियाँ अपने वोट शेयर पर चुनाव से पहले ही उनसे समझौता कर लेती हैं. चुनाव के दिन थोंडा लोग पहले से ही आम सहमति बना लेते हैं. जो भी इस मामले में दखल देता है या उनकी योजना को चौपट करने की कोशिश करता है, उससे वे सख्ती से निपटते हैं. कोई भी कोर-कसर बाकी नहीं रखते और इस प्रकार मेवात में लोकतांत्रिक प्रणाली को उलट दिया जाता है. शहरी मतदाता जो सैद्धांतिक रूप में या किसी अन्य ढंग से लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के आदी होते हैं, मेवात जैसे चुनाव क्षेत्रों से हेराफेरी, बूथ कैप्चरिंग या गैर-कानूनी मतदान की खबरें सुनकर परेशान हो जाते हैं, लेकिन इस क्षेत्र में “जिसकी लाठी, उसकी भैंस” वाली कहावत अभी-भी चरितार्थ होती है.
मेवात का उदाहरण हमें बार-बार याद दिलाता है कि भारतीय लोकतंत्र में असली और काल्पनिक दुनिया में अभी-भी बहुत भारी अंतर हैं. मेवात और भारत के अन्य हिस्सों में जो होता है, वह पूरे देश को प्रभावित कर सकता है. यह कहावत भी मशहूर है कि “मेवात या तो चुनाव को सुधार सकता है या फिर बर्बाद कर सकता है”. मेवात में हाल ही में हुए संसदीय चुनाव से यही एक उचित निष्कर्ष निकाला जा सकता है और यही बात एक इंटरव्यू में एक पुराने और समझदार मेवाती ने आम आदमी पार्टी को सचेत करते हुए मुझसे कही थी, “यह देहात का मामला है और देहात और शहर के चुनाव में बहुत फ़र्क होता है”.
प्रीति मान अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में सामाजिक मानव विज्ञानवेत्ता (ऐंथ्रोपॉलॉजिस्ट) हैं.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@hotmail.com> मोबाइल: 91+9910029919.