20 मार्च, 2000 को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा की पूर्व संध्या पर दक्षिण कश्मीर के चिट्टी सिंहपोरा गाँव में सशस्त्र विद्रोहियों ने पैंतीस सिख पुरुषों की नृशंसा हत्या कर दी थी. कश्मीर घाटी में कई पीढ़ियों से मुस्लिम भाइयों के साथ सद्भावना के साथ रहने वाले “सबसे कम आबादी वाले अल्पसंख्यक” सिख समुदाय के साथ यह पहली हिंसक वारदात थी. यह वारदात उस इलाके में हुई थी जो जम्मू और कश्मीर के तीन अलग-अलग क्षेत्रों में से एक था, जिन्हें उग्रवाद का बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा था. हालाँकि हिंसा के पीछे के कारण और अपराधियों की पहचान अभी तक रहस्य के पर्दे में छिपी हुई है, फिर भी कश्मीरी-मुस्लिम और सिख दोनों समुदायों का मानना है कि हादसे का इरादा सांप्रदायिक सौहार्द्र को बिगाड़ना और सिख समुदाय को बाहर खदेड़ना था. लेकिन उन्नीस साल के बाद भी न्याय न मिलने के बावजूद सिख समुदाय अभी भी घाटी में बसा हुआ है.
हाल ही में अनुच्छेद 370 की समाप्ति और जम्मू-कश्मीर के केंद्रशासित क्षेत्र में परिवर्तन के बाद सारे भारत में इस विषय पर बहस छिड़ गई है. मोदी सरकार द्वारा उठाये गए असंवैधानिक कदम का एक सबसे बड़ा औचित्य यही है कि कश्मीर के अन्य अल्पसंख्यक समुदाय कश्मीरी पंडितों का पलायन,जो जनवरी 1990 में हिंसक वारदातों के बाद घाटी से रातों-रात हुआ इससे उस ऐतिहासिक भूल को सुधारा गया है.
लेकिन इस शर्मनाक और अन्यायपूर्ण पलायन के कारण कश्मीरी पंडितों का विस्थापन जातिगत हिंसा का एकमात्र उदाहरण नहीं है जिसमें भारत के एक समुदाय विशेष को जाति या धर्म के आधार पर हिंसा का शिकार बना दिया गया. ऐसी वारदातों के भारत में कई उदाहरण हैं. यदि आप नेल्ली (असम), दिल्ली, अहमदाबाद ( गुजरात) या मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) का उदाहरण लें तो पाएँगे कि जातिगत या धार्मिक आधार पर होने वाली हिंसा के कारण अक्सर उस समुदाय का विस्थापन होता रहा है. इसे देखते हुए कश्मीरी सिखों का मामला अलग क्यों है? आखिर कश्मीरी सिखों ने कश्मीर में ही रहने का निर्णय कैसे लिया ? हम इस बात कैसे समझ पाएँगे?
यह सवाल पूछना आवश्यक है क्योंकि कश्मीरी पंडितों के पलायन और आत्म-निर्णय के कश्मीरी संघर्ष से जुड़े सांप्रदायिक विमर्श को चुनौती देने के लिए आज सबसे अधिक महत्वपूर्ण सवाल यही है अनुच्छेद 370 के उन्मूलन से जुड़े उत्सव में भी इसी की गूँज सुनाई पड़ती है. और तो और यह पलायन कश्मीरी मुसलमानों और भारतीय मुसलमानों के साथ हिंसा को उचित जताने का कारण भी बन गया है.
मार्च और अक्तूबर 2018 के बीच नृवंशविज्ञान से संबंधित पूरे फ़ील्डवर्क के साक्ष्य का उपयोग करते हुए, मेरी रिसर्च यह दर्शाती है कि सिखों के कश्मीर में ही टिके रहने के निर्णय के पीछे अनेक कारण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक ज़रूरत, भूमि के प्रति लगाव और भारत के प्रति अविश्वास. इसके अलावा, हिंसा से तो सभी प्रभावित होते हैं और सभी इससे चिंतित भी रहते हैं, लेकिन धार्मिक उत्पीड़न सिख समुदाय के लिए कभी मुद्दा नहीं बना. हिंसा के बावजूद सिख और मुस्लिम पड़ोसियों की तरह एक-दूसरे के साथ ही रहते रहे हैं.
कश्मीरी सिख कौन हैं?
"विविधता में एकता” के मूल दर्शन के अनुरूप यह घाटी भी विभिन्न धार्मिक और जातीय समुदायों का घर है. जहाँ घाटी की आबादी में मुसलमान लगभग 96 प्रतिशत हैं, वहीं हिंदू 2.5 प्रतिशत और सिख मात्र 1 प्रतिशत हैं. सिख समुदाय के लोग मुख्य रूप से खेतिहर किसान हैं, उनके पास 5-180 कनाल (0.5-22.5 एकड़) ज़मीन है, जिस पर वे सेब के बगीचों और अखरोट के पेड़ों (नकदी फसल) के अलावा चावल, फलियाँ और सब्जियाँ (गैर-नकदी फसलें) उगाते हैं.
दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में 14 सिख गाँवों में से सबसे बड़ा गाँव है, चिट्टी सिंहपोरा. गाँव के अंदरूनी इलाके में लगभग 400 सिख परिवार रहते हैं. इसके अलावा वहाँ 30-40 मुस्लिम परिवार भी हैं. ये भी उसी अहाते में गाँव की बाहरी सीमाओं में निवास करते हैं.
क्योंकि घाटी में सिखों के साथ ऐसी हिंसक वारदात पहले कभी नहीं हुई थी, इसलिए सिख और मुस्लिम दोनों ही इस वारदात से चौकन्ने रह गए थे. यह सोचकर कि वे भी आतंकवादियों के निशाने पर आ गए हैं, सिख समुदाय के लोगों ने मिल-बैठकर तय किया कि वे भी कश्मीरी पंडितों की तरह ही सामूहिक हिंसा के शिकार हो सकते हैं, और उन्हें भी कश्मीरी पंडितों की तरह पलायन करना चाहिए.
कश्मीर में सिखों की जड़ों की व्याख्या
लेकिन उन्नीस साल बाद, न्याय की उम्मीद धूमिल पड़ जाने और हिंसा की वारदातें फिर से बढ़ जाने के बाद भी इस समुदाय के अधिकांश लोगों की जड़ें अभी-भी घाटी में हैं, क्योंकि कश्मीर के बाहर उनके लिए आर्थिक संभावनाएँ न के बराबर हैं और उनकी आय का मुख्य स्रोत कश्मीर में उनकी ज़मीनें ही हैं. पचास की उम्र के एक सरकारी कर्मचारी हरजंत सिंह का कहना है: “हम यहाँ क्यों पड़े हुए हैं? हमारी मज़बूरी है हमारी ज़मीनें. हम इन ज़मीनों से बँधे हुए हैं. वित्त विभाग के एक युवा अधिकारी पशौरा सिंह भी बताते हैं कि घाटी में सिखों की जड़ें दो चीजों से जुड़ी हैं, जमीनें और सरकारी नौकरी. लगभग सभी शहरी सिख परिवारों में कम से कम एक सरकारी “मुलाज़िम” (कर्मचारी) है. उनके पास पलायन का कोई और विकल्प नहीं बचता.
हालाँकि कई सिख परिवारों ने हालात ज़्यादा खराब होने की दशा में घाटी की अपनी कुछ ज़मीनों को बेचकर साथ लगे जम्मू इलाके में अपने घर बनाने के लिए कुछ संपत्ति खरीद ली है, लेकिन अधिकांश सिख व्यक्तिगत तौर पर उग्रवाद के किसी खतरे से आतंकित नहीं महसूस करते हैं. सिख समुदाय का कहना है कि यदि वे पलायन के लिए विवश हुए तो उसका कारण धार्मिक उत्पीड़न नहीं है, बल्कि घाटी में होने वाली हिंसा और उसके कारण बार-बार होने वाले बंद से जुड़ी आर्थिक परेशानियों का नतीजा होगा. पैंतीस वर्षीय इंजीनियर गुरपाल सिंह, जिनकी स्कूल जाने वाली दो छोटी बेटियाँ हैं, इंजीनियरिंग का कोई काम न मिलने के कारण प्राथमिक स्कूल में अध्यापक का काम करते हैं. उनके अनुसार, “जब तक आपके आर्थिक साधन नहीं होंगे, आप कहीं भी नहीं बस सकते.”
गुरपाल के परिवार के पास 120 कनाल (लगभग 15 एकड़) ज़मीन है, लेकिन उनके लिए यह ज़मीन मात्र आर्थिक संपत्ति नहीं है, बल्कि उनका इससे भावनात्मक लगाव है. उनके लिए यह वह ज़मीन है जिस पर उनके सात परिवार-जनों का भारत के विभाजन के बाद होने वाली हिंसा में खून बहा है. जंगलात विभाग में काम करने वाले कर्मचारी शेर सिंह जिनके पिता और चाचा हत्याकांड में मारे गए थे. उनको लगता है कि अगर वे इस ज़मीन को छोड़कर कहीं और चले जाते हैं तो यह उनके पिता के साथ विश्वासघात होगा. उनका कहना है, “जहाँ हमारे डैडी चले गए हमें भी वहीं जाना होगा.” 72 वर्षीय जसबीर सिंह बागबानी का काम करते हैं और अपने दुर्लभ जैविक सेब की पैदावार के बारे में गर्व से बताते हैं, “ हमें तो और कोई काम आता ही नहीं. मैं तो केवल खूबसूरत सेब ही उगा सकता हूँ.”
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जहाँ पुरानी पीढ़ी के लोग कश्मीर में ही रहने का कारण आर्थिक ज़रूरत और ज़मीनों से अपना लगाव बताते हैं, वहीं नई पीढ़ी के जवान सिख अपनी जड़ों से जुड़े रहने का कारण भारत में धार्मिक उत्पीड़न का डर मानते हैं.
उन्नीस वर्षीय कार्यकर्ता और सिख राजनैतिक व धार्मिक शिक्षा से जुड़े एक समूह के संयोजक जसपाल मानते हैं, “ यहाँ हमें मान-सम्मान मिलता है.” बीस वर्षीय छात्र और सिख कार्यकर्ता अमनप्रीत भी जसपाल से सहमत हैं और कहते हैं, “ यहाँ अगर हमें कुछ हो जाता है तो सारा राजनैतिक नेतृत्व मिनटों में हमारे पास आ जाएगा और माफ़ी माँगेगा.” भारत के प्रति इन नौजवानों के आक्रोश का कारण है, सन् 1984 में भारतीय सेना द्वारा पंजाब के स्वर्ण मंदिर पर किया गया नृशंस हमला. इस हमले के बाद ही सिख चरमपंथियों ने अलग देश की माँग की थी. दूसरा कारण यह भी है कि 1984 के सिख विरोधी दंगों से पीड़ित सिख परिवारों को अभी तक न्याय नहीं मिल पाया है.
इसके अतिरिक्त कश्मीर का मुस्लिम समुदाय सिख समुदाय की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करता है और हाल ही में पंजाब में दक्षिणपंथी हिंदू अतिवादियों द्वारा सिख धर्म पर हमले की वजह से सिखों की युवा और पुरानी पीढ़ी कश्मीर में अपने-आपको भारत से अधिक सुरक्षित महसूस करती है.
आने वाले कल का रास्ता
कश्मीरी पंडितों के पलायन की राजनीति और उसके बाद कश्मीर में जो सांप्रदायिक विचार-विमर्श हुआ, उसमें इस वारदात के दूसरे पक्ष की पूरी तरह से अनदेखी कर दी गई. ये अल्पसंख्यक आज भी कश्मीर में रह रहे हैं.
जब उन्होंने अपने पलायन का निर्णय लगभग कर लिया था, उस समय निशिता त्रिसाल का दस्तावेज़ सामने आया, जिसमें उन 7,000 कश्मीरी पंडितों के अनुभव बयान किये गए थे जो आर्थिक तंगी के कारण और ज़मीनों से लगाव होने के कारण हिंसा के बावजूद घाटी छोड़कर नहीं गए. सिखों की तरह ये कश्मीरी पंडित भी धार्मिक उत्पीड़न के शिकार नहीं हैं, लेकिन उनके लिए आर्थिक अवसर भी अधिक नहीं रहे, जबकि पलायन करने वाले प्रवासी परिवारों को उनकी तकलीफ़ें देखते हुए सरकार की ओर से उदारता पूर्वक मदद मिलती रही. चिट्टी सिंहपोरा की हिंसक वारदात के बावजूद सिखों की सबसे बड़ी चिंता धार्मिक उत्पीड़न नहीं, बल्कि आर्थिक तंगी थी. उन्हें सबसे अधिक दुःख इसी बात का है कि उनके बच्चों को नौकरियाँ नहीं मिलतीं. उनके अनुसार “ जहाँ 10,000 नौकरियाँ निकलती हैं, उन नौकरियों में से केवल एक नौकरी ही किसी सिख को मिलती है.”
अगर अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद सरकार की विकास योजना के अनुसार कश्मीर में आर्थिक समृद्धि आती है तो प्रवासी कश्मीरी पंडितों के नाम पर, जिन्हें पहले से ही भारी मात्रा में सरकारी मदद मिलती रही है, तो कश्मीर में बचे हुए सिखों और कश्मीरी पंडितों जैसे कम आबादी वाले अल्पसंख्यकों ( और बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय के साथ-साथ) की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. उनकी आर्थिक कठिनाइयों को भी दूर किया जाना चाहिए. जहाँ एक ओर प्रवासी कश्मीरी पंडितों की घाटी में फिर से बहाली के लिए विचार किया जा रहा है, वहीं सरकार को घाटी में बचे उन तमाम अल्पसंख्यकों के मामले पर भी विचार करना चाहिए जो हिंसा के बावजूद संघर्षों को झेलते हुए कश्मीर घाटी में ही डटे रहे. आगे और पलायन को रोकने के लिए सरकार को सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर नीतिगत कदम उठाने होंगे, ताकि घाटी के भूसांख्यिकीय ढाँचे को बचाये रखा जा सके.
खुशदीप कौर मल्होत्रा टैम्पल विश्वविद्यालय में भूगोल और शहरी अध्ययन की 5वें वर्ष की पीएच. डी की उम्मीदवार है. लेखिका ने इस लेख की सामग्री अपने शोध प्रबंध के लिए मार्च-अक्तूबर, 2018 के दौरान लिये गए साक्षात्कारों से ली है.