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आँकड़ों का खेलः 2014 के आम चुनाव का एक विश्लेषण

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16/06/2014
नीलांजन सरकार

 

2014 के आम चुनाव का अगर शव-परीक्षण किया जाए तो यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि भाजपा ने इस चुनावी मुकाबले में 282 (अर्थात् 52 प्रतिशत) सीटें जीती हैं और उनका वोट शेयर मात्र 31 प्रतिशत रहा है. यदि इस चुनाव से सन् 2009 के चुनाव की तुलना की जाए हो हम पाएँगे कि उस समय कांग्रेस ने उस चुनावी मुकाबले में  206 अर्थात् 38 प्रतिशत सीटें जीती थीं और उनका वोट शेयर मात्र 29 प्रतिशत रहा था. समान वोट शेयर के बावजूद जीती गई सीटों की संख्या में इतना अधिक अंतर क्यों है? इससे क्या अर्थ निकलता है?

शुरू में ही हम यह बात साफ़ कर लें कि वोट शेयर और सीट के शेयर में बहुदलीय प्रथम 'पास्ट और पोस्ट' प्रणाली में जो अंतर होता है, वह आम बात है, कोई अपवाद नहीं है. उ.प्र. के विधान सभा के पिछले चुनाव में सपा ने 224  सीटें जीती थीं जबकि उनका वोट प्रतिशत 29.15 था. इसी प्रकार बसपा ने जब मात्र  80 सीटें जीती थीं तो भी उनका वोट प्रतिशत 25.91 था. चुनावी आँकड़ों को ध्यान से देखने से ही पता चल पाता है कि भाजपा ने किस तरह से वोट प्रतिशत को जीत की सीटों में बदलने में कामयाबी हासिल की है. इससे भारतीय मतदाता के रुझान का भी पता चलता है.  

भाजपा ने अपनी ये सीटें कहाँ-कहाँ जीती हैं?

इस विश्लेषण में दो संकल्पनाओं का उपयोग किया गया है जिनसे चुनावी परिणामों की छान-बीन में मदद मिलती है:स्ट्राइक रेट और प्रतियोगी पार्टी. किसी भी पार्टी का स्ट्राइक रेट  उसके चुनाव क्षेत्रों का वह अनुपात है जिससे पार्टी किन्हीं चुनाव क्षेत्रों में जीत हासिल करती है और पार्टी को उस चुनाव क्षेत्र में प्रतियोगी मान लिया जाता है अगर वह उस चुनाव क्षेत्र में सर्वाधिक वोट पाने वाली दो पार्टियों में से एक है.

भाजपा ने कुल मिलाकर 428 चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ा और 282 में जीत हासिल की. इस प्रकार उनका स्ट्राइक रेट 66 प्रतिशत रहा. लेकिन स्ट्राइक रेट  में क्षेत्र की दृष्टि से और प्रतिपक्षी पार्टी की दृष्टि से काफ़ी अंतर है. 

भाजपा की सीटें क्षेत्रीय दृष्टि से बहुत ही अधिक केंद्रित हैं. सिर्फ़ छह राज्यों – बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश,महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश– में ही भाजपा की 194 सीटें हैं अर्थात् भाजपा ने इन राज्यों में 69 प्रतिशत सीटें जीती हैं. इन राज्यों में भाजपा का शानदार स्ट्राइक रेट  91 प्रतिशत केवल उन सीटों पर है, जिन पर उन्होंने चुनाव लड़ा था. ( चुनाव-पूर्व तालमेल के कारण भाजपा ने बिहार और महाराष्ट्र में सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा था), लेकिन आम चुनाव में लड़ी जा सकने वाली इन सीटों पर उनका प्रतिशत केवल 39 ही था.  

भाजपा खास तौर पर उन मोर्चों पर अधिक सफल रही जहाँ उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से हुआ. उन चुनाव क्षेत्रों के बारे में सोचें जहाँ भाजपा और कांग्रेस दोनों सबसे अधिक वोट पाने वाली पार्टियाँ थीं. ऐसे चुनाव क्षेत्रों की संख्या 189 थी, जिनमें भाजपा ने 166 सीटें जीती हैं और उनका शानदार  स्ट्राइक रेट 88 प्रतिशत रहा. इसकी तुलना में उन तमाम शेष चुनाव क्षेत्रों में भी जहाँ से भाजपा ने चुनाव लड़ा, स्ट्राइक रेट 49 प्रतिशत रहा. कुल मिलाकर देखें तो चुनावी मुकाबले वाले 35 प्रतिशत चुनाव क्षेत्रों में भाजपा और कांग्रेस का सीधा मुकाबला हुआ,लेकिन इन चुनाव क्षेत्रों में भाजपा द्वारा जीती गई सीटों की कुल संख्या का प्रतिशत 59 रहा.   

 
कांग्रेस के साथ हुए सीधे मुकाबले को छोड़कर और बिहार और उत्तर प्रदेश (जहाँ स्ट्राइक रेट 85 प्रतिशत था) को भी छोड़कर जहाँ भाजपा ने 144 चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ा और इनमें से केवल 56 सीटें ही प्रतियोगी थीं और जब ये सीटें प्रतियोगी थीं तो भी भाजपा का स्ट्राइक रेट कम से कम 63 प्रतिशत था. संक्षेप में इन आँकड़ों से पता चलता है कि इस चुनाव में भाजपा की सफलता का कारण कांग्रेस के खिलाफ़ शानदार स्ट्राइक रेट और बिहार और उत्तर प्रदेश में इसका शानदार प्रदर्शन था. इन दो कारणों से भाजपा ने इस चुनाव में 282 सीटों में से 247 सीटों पर जीत हासिल की.

इससे यह कैसे पता चलता है कि वोट शेयर को सीटों में बदलने की भाजपा की क्षमता कैसी थी? इसका उत्तर भी उपर्युक्त विश्लेषण में दर्शाये गये स्ट्राइक रेट में ही निहित है. जब भाजपा कांग्रेस के साथ सीधा मुकाबला कर रही थी या फिर बिहार और उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ रही थी तो भी इसका स्ट्राइक रेट बहुत ही अधिक था. लेकिन इनके बाहर भाजपा खास तौर पर प्रतियोगी नहीं थी. दूसरे शब्दों में भाजपा के “बेकार वोट” बहुत ही कम थे. जब भी लोगों ने भाजपा के पक्ष में वोट डाले हैं तो संभावना इस बात की रही है कि ये वोट उन्हीं चुनाव क्षेत्रों में डाले गये जहाँ भाजपा ने जीत हासिल की है.

वे कौन-से इलाके हैं जहाँ भाजपा ने अपनी सीटें नहीं जीती हैं?

भले ही भाजपा ने इन चुनावों में भारी जीत हासिल की हो, लेकिन कुछ राज्य ऐसे हैं जहाँ क्षेत्रीय पार्टियाँ और क्षेत्रीय व्यक्तित्व बहुत मज़बूत हैं और भाजपा को उनके दुर्ग में सेंध लगाने में कतई सफलता नहीं मिली. यह पुरानी बात है जब लोग कहा करते थे कि भाजपा ने बिहार और उत्तर प्रदेश में इसी कारण से सफलता पाई क्योंकि इन राज्यों में उनका आधार पहले से ही मज़बूत था, लेकिन अधिकांश लोग यह नहीं मानते कि इन राज्यों में भाजपा का आधार मज़बूत था. बिहार में भाजपा जून, 2013  तक सत्ताधारी गठबंधन का ही एक भाग थी और 1999 के उत्तर प्रदेश के लोक सभा के चुनावों (और तब से इसकी  संख्या दोहरे आँकड़े में ही रही है) में यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. इस अर्थ में इन राज्यों में भाजपा ने “सेंध” नहीं लगाई है.

इस बात को समझने के लिए पश्चिम बंगाल पर विचार करना होगा. यह वह राज्य है जिसमें भाजपा का सर्वाधिक वोट शेयर 17 प्रतिशत है. इस राज्य में भाजपा ने सभी 42 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन उसे मिलीं केवल 2 सीटें ही (एक सीट तो वे 2009 में ही जीत चुके थे). मात्र  3 और चुनाव क्षेत्रों में भाजपा प्रतियोगी पार्टी रही. इन चुनाव क्षेत्रों में भाजपा न केवल अपने वोट शेयर को सीटों में बदलने में विफल रही, बल्कि उसके आसपास भी नहीं रही. बहरहाल यह ज़रूर माना जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में भविष्य में माकपा के कमज़ोर पड़ने के कारण भाजपा सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख विरोधी दल के रूप में अपनी जगह बना सकती है. मज़बूत क्षेत्रीय व्यक्तित्व वाले अन्य अनेक राज्यों में इसी प्रकार की स्थिति देखी गई है. आंध्र प्रदेश में भाजपा ने 12 चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ा लेकिन केवल 3  सीटों पर ही जीत हासिल की. तमिलनाडु में 8 चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ा लेकिन केवल 1 सीट पर ही जीत हासिल की. ओड़िशा में 21 में से केवल 1 सीट पर ही जीत हासिल की और केरल में 18 में से एक सीट पर भी जीत हासिल नहीं की. इन पाँच राज्यों में भाजपा का स्ट्राइक रेट मात्र 7 प्रतिशत ही रहा.

आँकड़ों की व्याख्या

लोक फ़ाउंडेशन द्वारा किये गये सर्वेक्षण के आधार पर उच्च भारतीय अध्ययन केंद्र (कैसी) द्वारा किये गये चुनाव-पूर्व विश्लेषण में हमने यह तर्क दिया है कि मतदाता के सामने महत्वपूर्ण सरोकार हैं,  बृहत्तर व्यापक अर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार और मुद्रास्फीति. इन सरोकारों की पैकेजिंग नरेंद्र मोदी ने अपने करिश्मे से की और राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रभावशाली अभियान चलाया. दूसरी ओर कांग्रेस के पास कोई शख्सियत ही नहीं थी. वे कोई ठोस राष्ट्रीय व्यक्तित्व भी नहीं खोज पाए और ऐसी चुनौती का सामना करने के लिए किसी मज़बूत क्षेत्रीय व्यक्तित्व के अभाव में भारत के अनेक हिस्सों में वे बहुत कमज़ोर साबित हुए. हालाँकि कांग्रेस ने अपने-आपको एक कल्याणकारी दल के रूप में पेश करने की कोशिश ज़रूर की, लेकिन उनके इस अभियान की शुरू में ही हवा निकल गई. मतदाता इस बात को भलीभाँति समझ चुके थे कि कोई भी कल्याणकारी कार्यक्रम तभी सफल हो सकता है, जब  नौकरशाहों के माध्यम से उसे समन्वित किया जाए और उसका कार्यान्वयन भी राज्य स्तर ही किया जाए. भ्रष्टाचार के अनेक घोटालों के कारण कांग्रेस की विश्वसनीयता इतनी कम हो चुकी थी कि लोगों को यह भी भरोसा नहीं रह गया था कि कांग्रेस के माध्यम से लागू की गई इन कल्याणकारी योजनाओं से लोगों को कोई लाभ मिल भी पाएगा या नहीं.

भाजपा की कांग्रेस से जिन चुनाव क्षेत्रों में सीधी भिड़ंत हुई, वहाँ पर तो मानो इन दोनों दलों के बीच उनके राष्ट्रीय एजेंडे को लेकर जनमत संग्रह ही हो गया. इन चुनाव क्षेत्रों में भाजपा के शानदार स्ट्राइक रेट को देखकर तो लगता है कि कांग्रेस में अभी परिपक्वता ही नहीं आई है.

अब तो इस बात पर भी चिंतन करना दिलचस्प होगा कि यहाँ से अब ये पार्टियाँ किस दिशा में आगे बढ़ेंगी. आँकड़ों को देखकर तो लगता है कि भाजपा के लिए उन राज्यों में सेंध लगाना सचमुच बहुत ही मुश्किल होगा जहाँ के क्षेत्रीय व्यक्तित्व बहुत सबल हैं. क्या भाजपा अपने महत्वपूर्ण संसाधनों का उपयोग इन राज्यों में घुसपैठ के लिए करेगी या फिर अपने आधार को उन क्षेत्रों में मज़बूत बनाएगी जहाँ उसे पहले ही सफलता मिल चुकी है. कांग्रेस पार्टी को तो अपने-आपको पूरी तरह से फिर से खड़ा करना होगा, नेतृत्व के उलझे प्रश्न को सुलझाना होगा और अधिक प्रभावी राष्ट्रीय दृष्टि विकसित करनी होगी.

इस चुनाव में भाजपा एकमात्र पार्टी है जो अपनी प्रभावी राष्ट्रीय दृष्टि के साथ उभरी है, लेकिन इसके वोट शेयर को देखकर लगता है कि यह पूरे भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती. भारत के मुस्लिम समुदाय की आशंका के अलावा भारत के और भी ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ “मोदी लहर”  का कोई प्रभाव नहीं था. नई सरकार के सामने यह भी चुनौती होगी कि वह क्षेत्रीय ध्रुवीकरण से उत्पन्न विषमताओं से कैसे निपटे. बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि प्रधानमंत्री किस तरह से क्षेत्रीय नेतृत्व के साथ व्यक्तिगत समीकरण बनाते हैं. तमिलनाडु के साथ तो अपेक्षाकृत आसान होगा, ओड़िशा के साथ कुछ मुश्किल होगा, लेकिन प. बंगाल के साथ तो शायद बहुत ही कठिन होगा.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com> /<malhotravk@gmail.com>/ Mobile: +91 9910029919