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भारत में स्वतःस्फूर्त विरोध का महत्त्व

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12/10/2020
गणेशदत्त पोद्दार

इस वर्ष के आरंभ में भारत में विरोध प्रदर्शन फूट पड़े. इन विरोध प्रदर्शनों से एक ऐसी नई रचनात्मक राजनीति का उदय हुआ, जिनमें यह संभावना है कि वे  लोकतांत्रिक मूल्यों के ह्रास को थाम सकें.  निश्चय ही यह क्षण भारत में सिविल सोसायटी के लिए जीवंत उत्सव मनाने सरीखा था, क्योंकि निकट भविष्य में इस प्रकार के विरोध प्रदर्शन अभूतपूर्व थे. दुर्भाग्यवश कोविड-19 की महामारी के प्रकोप और इसके कारण मार्च में लॉकडाउन लगने के कारण यह आरंभिक विक्षोभ थम-सा गया.

इस प्रकार के स्वतःस्फूर्त और छुट-पुट विरोध प्रदर्शन के पीछे विरोधी दलों का हाथ रहा है, ऐसा आरोप सच्चाई  से कोसों दूर है. जहाँ एक ओर विरोध प्रदर्शनों का तात्कालिक  कारण नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (CAA) / राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) और छात्रों पर पुलिस की बर्बर कार्रवाई थी, वहीं कहीं गहरे में इसके कारण थे, संविधान की भावना के प्रति भारी अनादर, सार्वजनिक जीवन में मूल्यों का ह्रास, असहमति के लिए असहिष्णुता और सार्वजनिक क्षेत्र में चुनावी लाभ के लिए धार्मिकता का बढ़ता प्रयोग. इन विरोध प्रदर्शनों को उन मूल्यों के पुनरुद्धार के लिए किए गए संघर्ष के रूप में देखना चाहिए जो भारतीय संविधान में अंकित हैं ताकि प्रतिरोध के जरिए समाज में  सहानुभूति, करुणा और कल्पना का समावेश कराया जा सके.

हाल ही में एक पत्रकार द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का उत्तर देते हुए शाहीन बाग के विरोध प्रदर्शन में भाग लेने वाली एक प्रदर्शनकारी ने पहले तो प्रधानमंत्री के घर पर लगी छोटी-सी आग की दुर्घटना में प्रधानमंत्री के कुशलक्षेम की जानकारी लेनी चाही और उसके बादउसने प्रधानमंत्री के इस संवेदना-रहित वाक्य की भर्त्सना की कि “प्रदर्शनकारियों की पोशाक से ही उनका पता चल जाता है”. उसके बाद उसने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (CAA)के प्रति अपनी चिंता प्रकट की और दृढ़ता से कहा कि वह अपने देश से प्यार करती है, क्योंकि यहीं उसका जन्म हुआ है. जामिया मिलिया इस्लामिया के एक छात्र ने एक रिपोर्टर के सवाल का जवाब देते हुए कहा, “आप जामिया का मतलब क्या समझते हैं?” इसने मुझे तहज़ीब दी है, संविधान दिया है और पढ़ना, लिखना और सोचना सिखाया है. इस विश्वविद्यालय ने मुझे अपने देश के बारे में सिखाया है. मैं गाँधी जी के सपने को चरितार्थ करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दूँगा. मैं अपना धर्मनिरपेक्ष भारत वापस चाहता हूँ.” इन विरोधकर्ताओं की सच्चाई और निष्ठा सार्वजनिक पदों पर चुनकर आए हुए राजनेताओं के बयानों में छिपी धूर्तता और मूर्खता के ठीक विपरीत है.

चार मुद्दे ऐसे हैं जिन पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है.पहला मुद्दा तो यह है कि गाँधी द्वारा प्रतिपादित धर्मनिरपेक्षता की भावना के संरक्षण के लिएये विरोध प्रदर्शन उस समय हुए थे, जब नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (CAA) ने भारत की धर्मनिरपेक्षता की भावना पर सीधे प्रहार किया था. भारतीय संविधान के निर्माताओं ने धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करने के सिद्धांत को पूरी तरह से नकार दिया था. भारतीय संविधान की इस भावना के विपरीत नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (CAA)धर्म के आधार पर नागरिकतादेने की वकालत करता है. गाँधी जी मानते थे कि विभिन्न धर्मों के लोगों का शांतिपूर्ण  सह-अस्तित्व भारत की आत्मा है  हालाँकि जो परिस्थितियाँ थीं, उन्हें देखते हुए  सन् 1931 में कराची कांग्रेस के सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने राज्य को सलाह दी थी कि  ‘हमें अपने दैनंदिन व्यवहार में राज्य की तटस्थता के सिद्धांत को अपना लेना चाहिए’ और सांप्रदायिक राजनीति के कारण समाज की शांति भंग होने की आशंका होने पर सरकारी तंत्र को सक्रिय होकर उसके खिलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए. तटस्थता के साथ कार्रवाई करने के बजाय सांप्रदायिक भावना के साथ मिली-भगत करके सरकारी तंत्र सत्ताधारी शासक पार्टी के एजेंडा में ही इसे अक्सर शामिल कर लेता है और यह बात जामिया मिलिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों के असंतोष के कारण हाल ही में हुए विरोध प्रदर्शनों में पुलिस द्वारा कार्रवाई करने या कार्रवाई न करने के दृष्टांत से सिद्ध हो गई.

दूसरा मुद्दा यह है कि इन विरोध प्रदर्शनों में विरोधकर्ताओं ने यह प्रेरणा गाँधीवादी नैतिक दर्शन से ली. इस नैतिक दर्शन के अनुसार नागरिक हर उस कानून का शांतिपूर्वक विरोध कर सकते हैं जिसे वे सामाजिक दृष्टि से न्यायसंगत नहीं मानते. गाँधी ने सत्याग्रह की प्रेरणा Thoreau केThe Duty of Civil Disobedience से ली. “हमें कानून से ज़्यादा अपने अधिकारों के प्रति सम्मान की भावना विकसित करनी चाहिए.” सन् 1922 में ब्रूमफ़ील्ड की अदालत में गाँधी का मुकदमा इसका अनुकरणीय उदाहरण है. गाँधी पर यह मुकदमा उच्च नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए अन्यायपूर्ण कानून का विरोध करने के उद्देश्य से दांडी मार्च निकालने पर चलाया गया था. मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला को भी बेहतर और समतामूलक समाज के निर्माण के उद्देश्य से किये गए उनके संघर्ष की प्रेरणा गाँधी के विचारों से ही मिली थी. इसी तरह भारत के युवाओं और महिलाओं को भी ऐसे कानूनों का शांतिपूर्वक विरोध करने की प्रेरणा गाँधी दर्शन से ही मिली थी, जिन्हें वे भेदभावपूर्ण और न्यायसंगत न मानते हों.

तीसरा मुद्दा यह है कि लगता है कि भारतीय गणतंत्र के इतिहास में पहली बार आम आदमी  ने संविधान को केंद्र में रखकर अपनी कल्पना का ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया है. लगभग निरपवाद रूप में ही विरोध प्रदर्शनों में संविधान की प्रस्तावना का सामूहिक वाचन किया गया, राष्ट्रगीत गाया गया, संविधान में निहित मूल्यों को पोस्टरों और तख्तियों पर चिपकाया गया और उनसे संबंधित नारे लगाये गए, सत्तासीन पार्टी द्वारा अपनाई गई विभाजक रणनीतियों को  चुनौती दी गई और तिरंगे झंडे के साथ-साथ महात्मा गाँधी और बाबा  साहेब अम्बेडकर के चित्र लगाये गए. पुणे के अपने विरोध प्रदर्शनों में ये नारे लगाए: “मोदी-शाह सावधान,हम लेकर आए हैं संविधान!” ये तमाम नारे और सूक्तियाँ यही सिद्ध करती हैं कि इन विरोध प्रदर्शनों में न्याय, स्वाधीनता, समानता और भाईचारे के मूल्य निहित थे और वे यह संदेश देना चाहते थे कि संविधान के मूलभूत ढाँचे में किसी तरह की छेड़छाड़ स्वीकार्य नहीं होगी. साथ ही इनसे यह संकेत भी मिलता है कि वे स्वाधीनता के हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में प्रतिपादित समावेशी समाज के पक्षधर हैं, वे आम आदमी और देश की युवा शक्ति की सामूहिक चेतना में विश्वास करते हैं.

और अंत में, जैसा कि अमित चौधरी नपे-तुले शब्दों में कहते हैं, भारत का संविधान मात्र धर्मनिरपेक्षता का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि “यह राष्ट्रवादी होने के बजाय मानवीय दस्तावेज़ है”. ये आंदोलन हमारी सामाजिक अस्मिता के मानवीय पक्ष को उजागर करते हैं. कुछ सिख किसान शाहीन बाग में आए और उन्होंने विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने वाली अपनी मुस्लिम बहनों के लिए लंगर खोल दिया. सिख समुदाय का यह संकेत हमारी सामासिक संस्कृति और समधर्मी परंपराओं के प्रति उनके विश्वास का प्रतीक है.शाहीन बाग में मौजूद एक सिख भाई ने बहुत भावुक होकर कहा था, “हम अपने भाईचारे को सत्ताधारी पार्टी द्वारा किसी भी कीमत पर मिटने नहीं देंगे.”

महामारी के बिगड़ते हालात और बढ़ती बेरोज़गारी के बीच भारत में समाज के अलग-अलग समुदायों द्वारा पिछले कुछ हफ्तों में भारी विरोध प्रदर्शन किये गए. संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित दोनों कृषि विधेयकों का हरियाणा और पंजाब के किसानों ने व्यापक विरोध किया. ये किसान इन दोनों विधेयकों को “किसान-विरोधी” मानते हैं. उन्हें डर है कि इन विधेयकों से उनकी आजीविका पर बुरा असर पड़ेगा और इनसे कॉर्पोरेट और कारोबारी जगत् के लोगों को अधिक फ़ायदा होगा. 17 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी के70 वें जन्मदिन को देश-भर के अलग-अलग इलाकों में बेरोज़गार युवाओं ने राष्ट्रीय बेरोज़गार दिवस के रूप में मनाया. 9 सितंबर को रात 9 बजे उन्होंने अपने मोबाइल की लाइट या टॉर्चलाइट जलाकर और अपने बर्तन बजाकर बेरोज़गारी के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज किया. अखिल भारतीय रेलवेमैन फ़ैडरेशन (AIRF) और राष्ट्रीय रेलवे मज़दूर यूनियन (NRMU) ने 14 से 19 सितंबर तक रेलवे के प्रस्तावित निजीकरण के विरोध में विरोध सप्ताह मनाया.रेलवे की यूनियनों को लगता है कि रेलों के निजीकरण से न केवल रेलकर्मियों के हितों को चोट पहुँचेगी, बल्कि आम मुसाफ़िरों को भी नुक्सान होगा. अपने इस आंदोलन से वे अपने मुद्दे उठाने के अलावाइन मुद्दों पर जनता का समर्थन भी हासिल करना चाहते थे.

How to Save a Constitutional Democracy में Tom Ginsburg और Aziz Z. Huq ने लोकतांत्रिक ढंग से चुने हुए अपने प्रतिनिधियों के काले कारनामों के खिलाफ़ जनांदोलन करने और आम जनता को जुटाने के महत्व पर प्रकाश डाला है. निश्चय ही देश के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाये रखने के लिए समाज को यही कीमत चुकानी होगी कि उसके नागरिक जागरूक बने रहें. 2020 की शुरुआत में अपने असंतोष को प्रकट करने के लिए जो विरोध प्रदर्शन हुए, उन्होंने भारत में विरोध की संस्कृति औरजनांदोलनोंमें फिर से जान फूँक दी है और धर्मनिरपेक्षता के गाँधी दर्शन और सामाजिक बदलाव के उद्देश्य सेराजनैतिक आंदोलनों के लिए शांतिपूर्ण उपाय अपनाने के प्रति हमारे विश्वास को मज़बूत किया है. इन विरोध प्रदर्शनों ने संवैधानिक मूल्यों को न केवल लोकप्रिय बना दिया है, बल्कि मानवता और समावेशन के प्रति हमारी सभ्यता केमूल्यों पर हमारा विश्वास फिर से मज़बूत हुआ है. हाल ही के विरोध प्रदर्शनों ने यह दिखा दिया है कि भारत की जनता विषम से विषम परिस्थिति में भी सार्वजनिक मुद्दों के प्रति सजग रहती है और सत्ता पर आसीन लोगों से जवाबदेही की माँग करती है.

गणेशदत्त पोद्दार पुणे स्थित FLAME विश्वविद्यालय में सह प्राध्यापक हैं.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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