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भारत में इनडोर वायु प्रदूषण में कमी लाने के लिए महिलाओं का सशक्तीकरण

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28/01/2013
अविनाश किशोर

इनडोर अर्थात् घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण का सेहत पर पड़ने वाले भारी नकारात्मक दुष्परिणामों के बावजूद दुनिया के लगभग पचास प्रतिशत घरों के लोग खाना पकाने के लिए ठोस जैवपिंड का ईंधन ही इस्तेमाल करते हैं. भारत में हालात और भी खराब हैं, जहाँ 83 प्रतिशत ग्रामीण घरों के लोग और लगभग 20 प्रतिशत शहरी घरों के लोग अभी-भी खाना बनाने के प्राथमिक ऊर्जा स्रोत के रूप में लकड़ी या गोबर का इस्तेमाल करते है. एक अनुमान के अनुसार परंपरागत चूल्हे में इस प्रकार की बिना प्रोसेस की हुई जैवपिंड की ऊर्जा को जलाने से लगभग आधे मिलियन लोग हर साल अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं. वैश्विक भार के हाल ही के रोग संबंधी अध्ययन 2010 के अनुसार भारत में ठोस ईंधन जलाने से इनडोर अर्थात् घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण के कारण सेहत पर सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि इससे अन्य किसी एक कारण के मुकाबले सबसे अधिक मौतें और बीमारियाँ होती हैं. महिलाओं और बच्चों पर सबसे अधिक बुरा असर पड़ता है क्योंकि खाना बनाने के लिए आवश्यक सभी काम करने के लिए वे ही सबसे अधिक समय घर के अंदर (इनडोर) बिताती हैं.

मिट्टी के तेल, लिक्विड गैस या बायोगैस जैसे ईंधन के साफ़-सुधरे विकल्प का प्रयोग करने से कई जानें बचायी जा सकती हैं और इनडोर अर्थात् घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण के खतरों को कम किया जा सकता है. परंतु अफ़सोस की बात तो यह है कि भारत में इस संक्रमण की गति बहुत धीमी है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के डेटा से पता चलता है कि खाना बनाने के लिए प्रयुक्त गंदे ईंधन के कारण इनडोर अर्थात् घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण से प्रभावित होने वाली कुल आबादी पिछले दो दशकों में और भी बढ़ गयी है जबकि इस प्रकार के ईंधन का प्रयोग करने वाले घर के लोगों के प्रतिशत में कुछ हद तक कमी आयी है.

भारत में इसके सेहतमंद विकल्प के संक्रमण की गति इतनी धीमी क्यों है? निश्चय ही इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं, बढ़ती गरीबी, साफ़-सुथरे ईंधन के विकल्प की बढ़ती कीमतें (सहायता राशि में बढ़ोतरी होने के बावजूद), ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी सीमित पहुँच और लकड़ी बीनने और गोबर जुटाने के मुकाबले समय की कम लागत होना. भारतीय महिलाओं के प्रति भेदभाव भी इसका एक महत्वपूर्ण कारण है. महिलाओं के पास निर्णय लेने के सीमित अधिकार हैं और वे ही अपने बच्चों के साथ भारी तकलीफ़ सहते हुए भी और अपनी और अपने बच्चों की सेहत को खतरे में डालकर भी खाना बनाने की अधिकांश गतिविधियों में संलग्न रहती हैं. अगर महिलाओं के हाथ में अपनी सेहत और कल्याणकारी कामों से संबंधित निर्णय के समान अधिकार हों तो भारत में साफ़-सुथरे ईंधन के विकल्प के प्रति संक्रमण की गति में तेज़ी आ सकती है. 

इस अनुमान का परीक्षण तब हुआ था जब राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफ़एचएस) और ज़िला स्तरीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण ( डीएलएचएस)  द्वारा भारतीय परिवारों की सेहत और कल्याणकारी कामों पर किये गये दो सर्वेक्षणों के डेटा का प्रयोग किया गया था और यह पाया गया था कि ऐसे घरों में जहाँ महिलाओं के पास निर्णय लेने का समान अधिकार होता है या अंतिम निर्णय लेने का अधिकार होता है वहाँ साफ़-सुथरे ईंधन के विकल्प का उपयोग करने की संभावना अधिक होती है.   

इसके अलावा शहरी भारत के ऐसे घरों में जहाँ महिलाओं की पहली संतान बेटे के रूप में होती है, वहाँ उन घरों की तुलना में जहाँ महिलाओं की पहली संतान बेटी के रूप में होती है, साफ़-सुथरे ईंधन के विकल्प का उपयोग करने की संभावना अधिक होती है.बच्चे के लिंग और साफ़-सुथरे ईंधन के विकल्प का उपयोग करने की संभावना के बीच का संबंध मात्र संयोग नहीं है, बल्कि सकारण है.

भारतीय घरों के लोगों में बच्चे के लिंग का संबंध ईंधन का साफ़-सुथरा विकल्प चुनने के निर्णय पर क्यों आधारित है? सबसे पहली बात तो दस्तावेज़ों से भी तय यह है कि बेटा होने से ऐसे समाज में जहाँ सबकी पहली पसंद ही बेटा हो, औरत की सामाजिक हैसियत बढ़ जाती है. मिशिगन विश्वविद्यालय की डॉक्टरेट की एक छात्रा लॉरा ज़िमरमैन का कहना है कि भारतीय महिलाओं की बेटे को जनने के बाद घरेलू मामलों में निर्णय लेने की हैसियत बढ़ जाती है. यही हाल चीनी महिलाओं का भी है. बेटे को जनने के बाद  महिलाओं की परिवार में निर्णय लेने की हैसियत बढ़ने से अपनी सेहत और जीवन की स्थितियों में सुधार लाने के लिए खाना बनाने के लिए ईंधन का साफ़-सुथरा विकल्प चुनने का उनका अधिकार भी बढ़ जाता है.

दूसरी बात यह है कि इनडोर अर्थात् घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण का बच्चों की सेहत पर बुरा असर पड़ता है. यदि बेटा पैदा होता है तो घर वाले उसकी सेहत में निवेश करने के लिए जैवपिंड ईंधन से निकलने वाले असुरक्षित धुएँ से उसका बचाव करने की कोशिश करते हैं और यदि बेटी पैदा होती है तो वे ऐसा नहीं करते, क्योंकि उसकी सेहत के लिए परिवार को कोई चिंता नहीं होती. भारत के अधिकांश भागों में वयस्क महिलाएँ अपने पति के परिवार के साथ ही रहती हैं ताकि घर के लोग बेटों के आरंभिक जीवन में अधिकाधिक निवेश का लाभ उठा सकें.

इन परिणामों से पता चलता है कि भारतीय घरों में रहने वाले लोग लैंगिक आधार पर भेदभाव करते हैं और इसका महिलाओं और बच्चों की सेहत और कुशलक्षेम पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. T

इस अनुसंधान के अलावा भी और भी कई प्रमाण मिले हैं जिनसे यह ज़ाहिर होता है कि महिलाओं की हैसियत और सशक्तीकरण तथा ईंधन का साफ़-सुथरा विकल्प चुनने के बीच संबंध है. उदाहरण के लिए ऐस्थर डफ़्लो और उनके सहलेखकों ने पाया है कि “ ग्रामीण ओडीसा के ऐसे घरों में जहाँ बचत समूहों की सदस्य होने के कारण महिलाओं का अधिक सशक्तीकरण हो गया है, वहाँ इस बात की संभावना है कि 2 से 3 प्रतिशत अधिक महिलाएँ ईंधन के साफ़-सुथरे विकल्प को ही चुनें.”  इसी प्रकार पड़ोसी बंगला देश में किये गये एक प्रयोग से ज़ाहिर होता है कि यदि सुधरी किस्म के स्टोव मुफ़्त में मिलते हों तो पुरुषों की तुलना में महिलाएँ ऐसे स्टोव लेने का प्रयास करती हैं और यदि ऐसे स्टोवों के लिए कुछ पैसा देना पड़ता हो तो वे इन्हें नहीं ले पातीं, क्योंकि इन्हें खरीदने के लिए जिस पैसे की दरकार होती है उस पर उनका नियंत्रण नहीं होता. 

यदि ईंधन के साफ़-सुथरे विकल्प को चुनने की धीमी गति का संबंध महिलाओं की हैसियत से है तो भारत में और संपूर्ण दक्षिण पूर्वेशिया में जहाँ बच्चों की देखभाल का अधिकतर दायित्व महिलाओं पर है और उनके परिवार में उनकी हैसियत ऊँची नहीं है तो बच्चों की सेहत को सुधारने में यह एक बहुत बड़ी बाधा है. महिलाओँ की अस्थिर हैसियत के कारण ईंधन के साफ़-सुथरे विकल्प को चुनने का अधिकार न होने के कारण गर्भ में पल रहे शिशु या अपनी माँ के साथ अधिकतर समय बिताने वाले बच्चे भी इनडोर अर्थात् घर के अंदर होने वाले खतरनाक वायु प्रदूषण से अक्सर प्रभावित होते हैं. भारत और संपूर्ण दक्षिण पूर्वेशिया में विशेषकर बच्चों की सेहत खराब रहने का यह एक महत्वपूर्ण कारण हो सकता है. 

भारत सरकार अपनी प्रमुख नीति के तहत मिट्टी के तेल और एलपीजी पर उदारतापूर्वक सहायता प्रदान करती है और इस प्रकार ईंधन के साफ़-सुथरे विकल्प को चुनने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करती है. आज के समय में घरेलू उपभोक्ता मिट्टी के तेल की वास्तविक लागत से लगभग एक तिहाई कम कीमत पर और एलपीजी की कुल लागत से लगभग आधी कीमत देकर इन्हें प्राप्त कर लेते हैं. यदि सहायता की यह राशि घर की महिलाओं के हाथ में सीधे ही आ जाती है तो जैवपिंड के ईंधन से संक्रमण की प्रक्रिया में सहायता की राशि देकर ही तेज़ी लायी जा सकती है, लेकिन ज़रूरी है कि नकद राशि बेहतर कल्याणकारी परिणामों के लिए सीधे महिलाओं के हाथ में ही हस्तांतरित की जाए. खाना बनाने के लिए ईंधन और अन्य कल्याणकारी कामों के लिए सीधे प्रस्तावित लाभ अंतरण प्रणाली (डीबीटी) को लागू करते समय नीतिनिर्माताओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए.

 

अविनाश किशोर आईएफ़पीआरआई में पोस्ट डॉक्टरल फ़ैलो हैं. वे पर्यावरण, विकास, कृषि अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और पोषाहार में दिलचस्पी रखते हैं. उनसे इस ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है : avinash.kishore@gmail.com.

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>