भारत सरकार जवाबदेही के अपने तंत्र को पूरी तरह से बदल डालने की भारी आवश्यकता महसूस कर रही है. सन् 2010 में किये गये प्यू रिसर्च पोल के अनुसार 98 प्रतिशत भारतीय नागरिक सरकारी भ्रष्ट्राचार को देश की “बहुत बड़ी” या “काफ़ी बड़ी” समस्या मानते हैं. इसे लेकर नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक है. हर साल रिश्वत या गबन के कारण सरकार को करोड़ों रुपये की हानि होती है. रुपयों की हानि के कारण मानव-घंटों की भी हानि होती है. कामगारों की गैर-हाज़िरी को बिना किसी वाजिब कारण के ही काम से दूर रहने की पद्धति के रूप में परिभाषित किया जाता है. यह दूसरी बड़ी समस्या है. हाल ही में हार्वर्ड और प्रिंसटन के अर्थशास्त्रियों द्वारा किये गये अध्ययन से यह पता चला है कि सार्वजनिक प्राथमिक स्कूलों के 25 प्रतिशत अध्यापक और 40 प्रतिशत सरकारी स्वास्थ्यकर्मी हर रोज़ ही अपने काम से गैर-हाज़िर रहते हैं.
दुर्भाग्यवश, जवाबदेही की नयी व्यवस्था लागू होने के परिणाम भी निरुत्साहित करने वाले हैं. यह कहना अपने-आपमें समस्या का बहुत सरलीकरण है कि भारतीय संस्कृति और समाज अपने-आपमें अनूठा है,लेकिन कई संस्थाएँ और जवाबदेही की पद्धतियाँ उस समय पारदर्शी लगती हैं जब उनकी नकल (खास तौर पर पश्चिमी) समाज से की जाती है लेकिन जब उन्हें उप-महाद्वीप पर लागू किया जाता तो वे ठप्प हो जाती हैं. साथ ही जवाबदेही के अनेक रूप लागू होने के बाद भारत जैसे विकासशील देशों को बहुत महँगे लगते हैं. आइए अध्यापकों की गैर-हाज़िरी की समस्या पर विचार करें. ऊपर से नीचे तक की सिफ़ारिशों की विशेष व्यवस्था के अंतर्गत प्रधानाचार्य ( इस मामले में सरकार) के एजेंट (अध्यापक) से उनके संबंध को या तो अच्छे व्यवहार को प्रोत्साहित करके या खराब व्यवहार के कारण उन्हें दंडित करके या इन दोनों का समन्वय करके फिर से परिभाषित किया जा सकता है. ऐसे प्रोत्साहन और दंड के लिए करीब से निगरानी की व्यवस्था करके सरकार को यह जानना होगा कि कौन-से अध्यापक अपना काम करते हैं और कौन नहीं. ऐसे व्यवहार की करीब से निगरानी करना उस समय बहुत चुनौतीपूर्ण लगेगा जब आपको यह पता लगेगा कि देश-भर के शहरी केंद्रों से लेकर दूर-दराज़ के इलाकों में फैले गाँवों के प्राथमिक स्कूलों में लगभग 2.5 मिलियन अध्यापक हैं और यदि हम निगरानी करने पर होने वाले खर्च को छोड़ दें तो भी प्रोत्साहन-राशि और दंड देने पर होने वाला खर्च बहुत अधिक होगा.
यद्यपि सरकारी तंत्र में व्यापक स्तर पर सुधार की आवश्यकता है, इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि भारत की सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार और गैर-हाज़िरी का बोलबाला है. वस्तुतः सरकारी तंत्र में अनेक ऐसी एजेंसियाँ हैं जहाँ जवाबदेही पर निगरानी रखी जाती है और जवाबदेही की व्यवस्था को लागू किया जाता है. चूँकि ये संस्थाएँ बहुत अच्छी तरह से काम कर रही हैं, इसलिए हम उपर्युक्त चिंताओं को दर-किनार कर सकते हैं और जवाबदेही के उनके तंत्र को समझते हुए उनसे मूल्यवान् सलाह ले सकते हैं. इनमें से एक सरकारी एजेंसी है, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) जो अपने मिशन को साकार करने के लिए विख्यात है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) भारत के शीर्ष इंजीनियरिंग और विज्ञान विश्वविद्यालयों में से एक है. हर साल उनके कई पूर्व स्नातक विश्व भर के शीर्षस्थ स्नातक पाठ्यक्रमों में पंजीकृत हो जाते हैं; और कई छात्र भारत के कॉर्पोरेट रैंक में अपना स्थान बना लेते हैं. इनके सभी सोलह कैम्पसों में उच्च स्तर का शोध-कार्य किया जाता है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि अन्य बड़े इंजीनियरिंग विश्वविद्यालयों की तुलना में बहुत कम बजट होने के बावजूद इनमें उत्कृष्ट स्तर का शोध-कार्य होता है.
प्राध्यापक-वर्ग या संकाय-वर्ग किसी भी विश्वविद्यालय का हृदय होता है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) भी इसका अपवाद नहीं है. प्राध्यापक प्रवेश परीक्षा को पूरी तरह से योग्यतापरक बनाने का प्रयास करते हैं. यह परीक्षा एक ऐसी जबर्दस्त प्रक्रिया है जिसके माध्यम से अन्य अनेक विश्वविद्यालयों और सरकारी एजेंसियों में प्रवेश प्राप्त किया जा सकता है. पैसे लेकर ग्रेड देने की घटना भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कभी नहीं होती और यह बहुत बड़ी बात है. और सबसे बड़ी बात यो यह है कि आईआईटी के प्राध्यापक अपनी कक्षाओं को बहुत मेहनत से पढ़ाते हैं. वहाँ पर गैर-हाज़िरी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. इसके अलावा, कई प्राध्यापक अध्यापन के साथ-साथ छात्रों को मार्गदर्शन भी देते हैं और प्रयोगशालाओं में अधिकाधिक समय बिताते हैं और शोध-कार्य भी करते हैं.
जब आप यह सोचते हैं कि आईआईटी के प्राध्यापक केंद्र सरकार के ही कर्मचारी हैं, तो उच्च स्तर के उनके निष्पादन को देखकर और भी हैरत होती है भारत के दूसरे नौकरशाहों की तरह ही उन्हें भी पूरा संरक्षण मिलता है और उन्हें कोई आसानी से निकाल नहीं सकता. वस्तुतः आईआईटी राष्ट्रीय महत्व की संस्थाएँ मानी जाती हैं, राजनीतिज्ञों और बाहरी मंत्रालयों के लिए दोषी प्राध्यापकों को डाँटना भी इतना आसान नहीं होता. अन्य नौकरशाहों की तरह समय के साथ-साथ प्राध्यापकों का वेतन और वेतन ग्रेड भी बढ़ता जाता है. इस प्रकार उनकी स्थिति अन्य सरकारी अधिकारियों के समान ही होती है. अगर सीधी बात करें तो आईआईटी के प्राध्यापक को प्रधानाध्यापक-एजेंट के तंत्र का सामना नहीं करना पड़ता. ऐसे सुसंचालित और जवाबदेह संगठन से ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती.
आईआईटी के प्राध्यापकों के उत्कृष्ट निष्पादन की मूल प्रेरणा के स्वरूप को समझने और जवाबदेही के तंत्र को चिह्नित करने के लिए मैंने 2011-12 के शैक्षिक वर्ष के दौरान आईआईटी संस्थानों का गहन अध्ययन किया. भारत भर के अनेक विभिन्न कैम्पसों के प्राध्यापकों का साक्षात्कार करने के अलावा मैंने आईआईटी के सभी प्राध्यापकों के सर्वेक्षण की योजना बनायी और तदनुसार सर्वेक्षण कराया. मुझे 1,141 पूर्ण प्रतिक्रियाएँ मिलीं, जो कुल सोलह कैम्पसों की 30 प्रतिक्रियाएँ थीं.
परिणामों से पता चला कि आईटीटी के प्राध्यापकों का उच्च निष्पादन जवाबदेही के उच्च-निम्न तंत्र के कारण नहीं था, बल्कि इसके बजाय यह आंतरिक जवाबदेही के कारण संभव हुआ है. खास तौर पर प्राध्यापकों में अपने स्थानीय विभागों और व्यापक विद्वत् समाज के प्रति गंभीर दायित्व बोध होता है. यह व्यापक विद्वत् समाज विभिन्न विश्वविद्यालयों और महाद्वीपों में फैला हुआ है. अर्ध-नियोजित साक्षात्कारों के दौरान जब कभी प्राध्यापकों से पूछा गया कि वे कक्षाओं में इतनी मेहनत क्यों करते हैं तो किसी ने भी यह नहीं कहा कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों के डर के कारण वे इतनी मेहनत करते हैं और न ही उन्होंने किसी प्रकार के आर्थिक प्रोत्साहन की चर्चा की. उन्होंने व्यावसायिक प्रतिष्ठा का ही उल्लेख कियाः सभी प्राध्यापक आदर्श अध्यापक के रूप में ही अपनी छवि चाहते थे. वे नहीं चाहते थे कि छात्र उन्हें ऐसे अध्यापक के रूप में याद न करें जो ज़िम्मेदारी से बचते हैं या अध्यापन के अपने दायित्व से जी चुराते हैं. इसी प्रकार जब उनसे शोध-कार्यों की मूल प्रेरणा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वे चाहते हैं कि उनकी विशेषज्ञता के क्षेत्र में उनकी अच्छी पहचान होनी चाहिए. आईआईटी के प्रोफ़ेसर अपने शैक्षणिक नैटवर्क के माध्यम से व्यावसायिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए जी-जान से कोशिश करते हैं, क्योंकि वे चाहते हैं कि उन्हें एक महत्वपूर्ण शोधकर्ता के रूप में याद रखा जाए. इसके अलावा आईआईटी के प्रोफ़ेसरों को उत्कृष्ट स्तर का अपना काम करने की प्रेरणा इसी बात से मिलती है कि वे विद्वत् समाज में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं. इस मामले में आईआईटी के प्रोफ़ेसरों की तुलना अन्य अनेक विश्वविद्यालयों से भी नहीं की जा सकती. अमरीका के कई निर्धारित कार्यकाल वाले प्राध्यापक (जिन्हें भी अचानक बिना नोटिस के निकाले जाने का कोई खतरा नहीं होता) भी यह मानते हैं कि अपनी व्यावसायिक उत्कृष्टता के क्षेत्र में वे इसीलिए संलग्न रहते हैं क्योंकि कि वे विद्वत् समाज में अपनी प्रतिष्ठा को निरंतर आगे बढ़ते हुए देखना चाहते हैं.
हम आईआईटी से क्या सीख सकते हैं? सबसे पहले तो बिना आंतरिक जवाबदेही के आईआईटी पर जवाबदेही के उन मुद्दों का भी असर होगा जिनसे भारत सरकार के अन्य विभाग भी प्रभावित हो रहे हैं अर्थात् प्राध्यापक वेतन तो पूरा ले रहे हैं लेकिन अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रहे हैं. यद्यपि आंतरिक जवाबदेही का यह तर्क दूसरे सरकारी अधिकारियों, जैसे अध्यापकों,स्वास्थ्यकर्मियों, न्यायाधीशों और सैनिकों पर भी लागू हो सकता है, इसे भारत के अन्य विश्वविद्यालयों पर भी तत्काल लागू किया जाना चाहिए. भारतीय भूभाग में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारी मात्रा में परिवर्तन हो रहे हैं. इन परिवर्तनों में माँग पर आधारित नाटकीय विस्तार से लेकर सरकार की वह कार्रवाई भी शामिल है, जिसमें सरकार मान्यता और लाइसेंस देने वाले विश्वविद्यालयों से अपने –आपको अलग कर रही है और आंतरिक जवाबदेही की संस्कृति को अन्य भारतीय विश्वविद्यालयों में भी विकसित करने का प्रयास कर रही है ताकि वे भी सकारात्मक परिणाम लाने में अधिक प्रभावी सिद्ध हों. दूसरी बात यह है कि आंतरिक जवाबदेही का यह ढंग कहीं अधिक प्रभावी सिद्ध होगा और हम जानते ही हैं कि यह भारत में पहले से ही कारगर सिद्ध हो रहा है. यह बहुत किफ़ायती भी होगा. यद्यपि शैक्षणिक जर्नल में रैफ़री बनना कोई प्रेरक तत्व नहीं है, लेकिन फिर भी प्रोफ़ेसर विद्वत् सेवा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बनाये रखते हैं. इसी प्रकार विभाग द्वारा जब कोई सम्मान दिया जाता है, उस समय क्लर्क से लेकर सह-प्राध्यापकों में इसे लोकर होड़ लगी रहती है लेकिन इससे उनके वेतन में किसी भी प्रकार कोई वृद्धि नहीं होती, फिर भी यह बहुत प्रतिष्ठित सम्मान माना जाता है. ऐसे प्रोत्साहन वाले कार्य असाधारण रूप में किफ़ायती होते हैं और विभाग के दूसरे प्राध्यापक जो प्रत्याशी को जानते हैं और दूसरे विश्वविद्यालयों के विद्वान् प्राध्यापकों से भी राय लेते हैं, इस प्रकार के निर्णयों में भागीदार रहते हैं. आंतरिक जवाबदेही के ऐसे तंत्र को विकसित और लागू करने से सरकारी विभागों में जवाबदेही बढ़ेगी और साथ ही भारत के सरकारी कार्यालयों में जवाबदेही में सुधार लाया जा सकेगा और इस प्रकार उनकी दृष्टि बहुत व्यावहारिक और आर्थिक दृष्टि से भी किफ़ायती होगी.
दिनशा मिस्त्री प्रिंसटन विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग में पीएचडी के छात्र हैं. उनसे इस पते पर संपर्क किया जा सकता हैः dmistree@princeton.edu.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>