पिछले कुछ महीने भारत में काफ़ी उथल-पुथल के रहे हैं. जहाँ एक ओर आर्थिक मंदी और कोविड-19 पर मीडिया का पूरा ध्यान केंद्रित रहा, वहीं दो दिखने में असंबंधित रिपोर्टें भी तेज़ी से बढ़ने वाले समाचार चक्र में आईं: महिलाओं के विवाह की कानूनी उम्र 21 तक बढ़ाने का प्रस्ताव और पूर्वी भारत में बाढ़. हालाँकि बाल विवाह अधिनियम (2006) के लागू होने के बाद से बाल विवाह का स्तर 38.69 प्रतिशत से कम होकर 16.1 प्रतिशत हो गया है, पूर्वी भारत में यह समस्या अभी भी जस की तस बनी हुई है. लगभग 30 प्रतिशत बाल विवाह इस क्षेत्र के चार राज्यों (बिहार, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल) में होते हैं.
संक्रमण के दौर में भारत (India in Transition)

15 अगस्त, 2020 को भारत के स्वाधीनता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस आश्वासन के साथ राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (NDHM) की शुरुआत के समय घोषणा की थी कि यह मिशन भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा. भारत सरकार के अनुसार राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (NDHM) भारत की स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत बनाने और संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्य 3 अर्थात् सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज की प्राप्ति की दिशा में पहला कदम है.



भारत की सामाजिक संरचना की आम जानकारी रखने वाला हर आदमी, ग्रामीण भारत में जाति और धर्म के दायरे में बँटे हुए रिहाइशी ठिकानों के अलगाव से अच्छी तरह वाकिफ़ है. रिहाइशी ठिकानों के अलगाव कृषि प्रधान भारत में सामाजिक जीवन का एक कठोर सत्य है. अम्बेडकर ने ग्रामीण भारत की इस प्रमुख विशेषता को जब “ स्थानीयता की खाई ” (sink of localism) और “संकीर्णता का अड्डा ” (den [of] narrow-mindedness) का खास नाम दिया था, उस समय उन्होंने भारत के गाँवों में ऐसे स्थानिक अलगाव के विरोध में ये उल्लेखनीय टिप्पणी की थी.


पिछले कुछ सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक तीन बड़े झटके लगे: 2016 में नोटबंदी, 2017 में वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) का लचर क्रियान्वयन और 2020 में कोविड-19 वैश्विक महामारी. ऐसे मौकों पर विश्वसनीय आँकड़े समय पर न मिलने से सरकार के हाथ बंध जाते हैं और सरकारी सूचनातंत्र की कमियां भी सामने आ जाती हैं. हाल ही में सरकार कोविड-19 महामारी के आँकड़ों को लेकर सवालों के घेरे में रही है. कोविड-19 के आँकड़े न केवल देरी से मिल रहे हैं बल्कि उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध है.


कोविड-19 के लॉकडाउन के दौरान भारत में बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों ने अपने घर लौटते समय और आवश्यक सेवाएँ जुटाने के लिए बहुत तकलीफ़ें झेलीं. देश के तीव्र शहरीकरण के कारण काम-धंधे की तलाश में श्रमिक भारी संख्या में गाँवों से शहरों की ओर पलायन करने लगे और इस तरह एक बड़ी आबादी के स्थानांतरण की प्रक्रिया शुरू हो गई. कई लोगों को इस बात में संदेह है कि भारत के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण कारण भूसांख्यिकीय स्थानांतरण है. फिर भी महामारी के शुरुआती दिनों में स्थानांतरण करने वाले श्रमिकों के प्रति दुर्व्यवहार के अनेक मामले सामने आए. इसे एकबारगी घटना भी नहीं माना जा सकता.

इस वर्ष के आरंभ में भारत में विरोध प्रदर्शन फूट पड़े. इन विरोध प्रदर्शनों से एक ऐसी नई रचनात्मक राजनीति का उदय हुआ, जिनमें यह संभावना है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों के ह्रास को थाम सकें. निश्चय ही यह क्षण भारत में सिविल सोसायटी के लिए जीवंत उत्सव मनाने सरीखा था, क्योंकि निकट भविष्य में इस प्रकार के विरोध प्रदर्शन अभूतपूर्व थे. दुर्भाग्यवश कोविड-19 की महामारी के प्रकोप और इसके कारण मार्च में लॉकडाउन लगने के कारण यह आरंभिक विक्षोभ थम-सा गया.

20 मई, 2020 को एक भयानक चक्रवात का बवंडर बंगाल की खाड़ी से टकराया और उसने सुंदरबन के तटबंध को तोड़कर कोलकाता के बड़े हिस्से को जलमग्न कर दिया. पर्यावरण की नियमित विनाश लीला की तरह यह कांड भी हर छमाही में तबाही मचा देता है. इस भयानक चक्रवात के साथ जो बवंडर और ज्वार-भाटा आता है, वह डेल्टा पारिस्थितिकी और इस क्षेत्र के जलविज्ञान के साथ-साथ इस कंक्रीट महानगर की अग्रभूमि में भी विचित्र ढंग से कहीं गहरे में अंतर्निहित हो गया है.

जून 2020 में भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद (UNSC) का अस्थायी सदस्य चुना गया था. मौजूदा बहुपक्षीय व्यवस्था का यह ऐसा महत्वपूर्ण दौर है जब बहुत से प्रेक्षक संकट के दौर से गुज़र रहे हैं. जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 केवल दो ऐसे भयानक संकट हैं जिनके कारण वैश्विक सहयोग की तत्काल आवश्यकता महसूस की जा रही है. युद्ध के बाद से अब तक वैश्विक व्यवस्था कभी भी एकपक्षीय और राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों से घिरी नहीं रही.

इसी ग्रीष्म ऋतु के आरंभ में इंडिया रिव्यू ने एक विशेषांक प्रकाशित किया था, जिसमें भारत की लोकतांत्रिक राजनीति के संदर्भ में 2019 के आम चुनावों के निहितार्थों पर विचार किया गया था. मिलन वैष्णव और मैंने इसके निबंधों का संपादन किया था.


कोरोना वायरस से फैली महामारी के कारण भारत सरकार द्वारा देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने के दो महीने के बाद भुखमरी के कगार पर खड़े लाखों मज़दूर हज़ारों किलोमीटर दूर अपने गाँवों के अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थलों की ओर पैदल निकल पड़े. जिस रेल के डिब्बे में सवार होकर वे अपने गाँवों से शहरों की ओर गए थे, उसी रेल की उन्हीं परिचित पटरियों पर चलते हुए वे अपने गाँवों की ओर लौटने लगे. 8 मई को औरंगाबाद के पास रेल की पटरी पर सोते हुए सोलह प्रवासी मज़दूरों को मालगाड़ी ने अपने पहियों से रौंद दिया.