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सत्ता, सुदूर परिधि पर बसे राज्य और भारतीय संघ

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16/03/2020
उद्दीपना गोस्वामी

मैंने दिल्ली में एक दशक से अधिक समय बिताया है, यही कारण है कि भारत की राजधानी में हुई ताज़ा हिंसक घटनाओं ने मुझे मर्माहत कर दिया है, लेकिन मुझे इससे कोई हैरानी नहीं हुई। हो सकता है कि इसकी वजह यही हो कि मैं भारत के उस अशांत पूर्वोत्तर राज्य से हूँ, जहाँ हिंसा का तांडव नृत्य दैनंदिन जीवन का एक हिस्सा है। या हो सकता है कि मुझे यह एहसास इसलिए भी है कि आज जो कुछ हो रहा है, वह भारत के बीचों-बीच हो रहा है। मुझे लगता है कि भारत के सुदूर परिधि पर बसे क्षेत्र की घटनाओं का यह विस्तार ही है, क्योंकि यह क्षेत्र अब भारतीय संघ का अंग बन गया है: मानो पितृसत्तात्मक भारतीय संघ दंभ के साथ अपने सैन्यबल को प्रदर्शित करते हुए, हाशिए पर रहने वाले समुदायों को अपनी मर्दानगी दिखा रहा हो और उन्हें विस्थापित करने के लिए उनकी एकजुटता को खंडित करने का प्रयास कर रहा हो।

पूरे देश में नागरिकता संशोधन बिल/अधिनियम (CAB/CAA) के विरोध में आंदोलन फैलने से पहले ही दिसंबर, 2019 के आरंभ में असम और त्रिपुरा के पूर्वोत्तर राज्यों में इसका व्यापक विरोध शुरू हो गया था। दो सप्ताह तक चलने वाले इस आंदोलन में असम में पाँच लोग मारे गए थे, जिनमें से दो किशोर वय के थे, 17 वर्षीय सैम स्टैफ़ोर्ड और 18 वर्षीय दीपांजल दास।  इस इलाके के लोगों को इससे कोई हैरानी नहीं हुई, क्योंकि इन राज्यों की स्थापना के समय से ही भारतीय संघ इस इलाके में अपनी बहादुरी और सैन्य शक्ति का ऐसा ही प्रदर्शन करता रहा है। सैम और दास को असम में गोलियों से तब भूना गया, जब असम में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में थी और नब्बे के दशक में जब कांग्रेस सत्ता में थी, उस समय कुछ नागरिकों को उनके घर से घसीट कर बाहर लाया गया और सरकारी सैन्यबल ने एक “गुप्त” मिशन के अंतर्गत उनकी हत्या कर दी थी। पूर्वोत्तर के आठों राज्यों में किसी भी दल की सरकार रही हो, उन सबका सरकार की ओर से प्रेरित हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। उदाहरण के लिए सन् 1966 में कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा इंदिरा गाँधी ने भारतीय वायुसेना को मिज़ोरम के नागरिकों पर बम बरसाने का आदेश दिया था और जनता दल के मोरारजी देसाई ने सन् 1973 में नागालैंड के राष्ट्रवादी नेता को धमकी दी थी, “ मैं नागालैंड के सभी विद्रोहियों को खत्म कर दूँगा। किसी पर भी रहम नहीं किया जाएगा।”   

परिधि पर बसे इन राज्यों को भारतीय संघ का अखंड हिस्सा बना पाने में असमर्थ रहने और यहाँ रहने वाले लोगों को नागरिक समझने के बजाय अपनी प्रजा मानने की प्रवृत्ति के कारण ही इन इलाकों में हिंसा का तांडव रचा गया और मानवाधिकारों का व्यापक उल्लंघन किया गया।  लेकिन हिंसा की इस संस्कृति पर बयानबाज़ी करके सरकारी तंत्र देश को असहाय सिद्ध करते हुए अपने देश के सपूतों को देश की रक्षा-हेतु निर्णायक और आक्रामक युद्ध करने के लिए सन्नद्ध रहने का आह्वान करने लगता है। इस कल्पना के कारण ही रोज़ा (1992) और बॉर्डर (1997) जैसी बॉलीवुड की मुख्यधारा की फ़िल्मों को बल मिलता है और देशवासियों को साहस के साथ आगे बढ़कर देश के सम्मान की रक्षा करने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है, लेकिन यह विडंबना ही है कि प्रतीकात्मक रूप में भी राष्ट्र की कल्पना हमेशा एक नारी के रूप में ही की जाती है। कभी यह नारी माता के रूप में होती है तो कभी प्रेमिका के रूप में। आज मुख्यधारा के समाचार मीडिया में भी “युद्धोन्माद” बढ़ता जा रहा है और यह माँग की जाने लगी है कि राष्ट्रीय “स्वाभिमान” की रक्षा के लिए देश को अपनी आक्रामक क्षमता का प्रदर्शन करना चाहिए। नफ़रत फैलाने वाली तकरीरें और ध्रुवीकरण के लिए वाग्युद्ध ही राजनीतिक विमर्श बनता जा रहा है और देश की राजधानी की सड़कों पर आज यही रक्त प्रवाहित हो रहा है।

देश की राजधानी में पूर्वोत्तर के लोग हमेशा ही जातिगत आधार पर अलग-थलग पड़ जाते हैं और कभी-कभी तो उन्हें मौत के घाट भी उतार दिया जाता है। सन् 2014 में नई दिल्ली में अरुणाचल के एक छात्र नीडो तानिया की मौत इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि परिधि पर बसे इन राज्यों के लोगों के प्रति आम लोगों की क्या धारणा है और इस संदर्भ में भारतीय संघ की नीति क्या है। आज यही धारणा मूर्त रूप में दिखाई पड़ रही है और हाशिये पर रहने वाले लोगों को देश के अंदर ही लैंगिक और / या धार्मिक आधार पर अलग-थलग करने का प्रयास हो रहा है और इसके साथ ही नफ़रत के साथ सैन्य हमले करते हुए परिधि पर बसे राज्यों में दशकों से उबलते हुए आक्रोश को हवा दी जा रही है। मुस्लिम विरोधी नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के विरोध में महिलाओं द्वारा लगातार किये जा रहे धरने को लेकर जब स्थानीय राजनेताओं ने उन पर आरोप लगाना शुरू किया, उसी समय दिल्ली में हिंसक दंगे भड़क गये। यह इसी बात का परिचायक है। 

आखिरकार सीमांतता एक संबंधपरक अवधारणा ही तो है और जब सत्ता का गणित बदलता है तो उसकी प्रतिक्रिया में केंद्रबिंदु बदलने पर नये सीमांत बन जाते हैं। जब देश के मुख्य इलाके में नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के खिलाफ़ आंदोलन शुरू हुए तो सरकारी मशीन का ध्यान परिधि पर बसे इलाकों से हटकर मुख्य इलाके पर केंद्रित हो गया। इसी सरकारी मशीनरी ने जब परिधि पर बसे राज्यों में राजनैतिक विरोध का मुकाबला किया था तो नेतृत्व के साथ सहयोग के करने के लिए इसी मशीनरी ने अपने सैन्यबल का उपयोग ठीक वैसे ही किया था, जैसे इतिहास में अब तक करती रही है। इस प्रकार पूर्वोत्तर के कुछ भागों में मोबाइल कनेक्टिविटी को काट दिया गया, कर्फ्यू लगा दिया गया और विरोध करने वाले निहत्थे प्रदर्शनकारियों को मौत के घाट उतार दिया गया और ‘उच्च-स्तरीय’ समिति गठित करके उस समुदाय के नेताओं को आर्थिक प्रलोभन देकर एक करार पर हस्ताक्षर करवा लिये गए। जब नागरिक कलाकार नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने लगे तो चमक-धमक वाले बॉलीवुड ने इस आंदोलन से किनारा कर लिया और इतिहास में पहली बार बॉलीवुड फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार समारोह का आयोजन मुंबई से बाहर असम में किया गया। और उसके बाद सरकार का ध्यान मेनलैंड की ओर गया, जहाँ सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रक्रिया चलने लगी, नीतिगत निर्णय होने लगे और लच्छेदार भाषा में धीरे-धीरे लोगों का ध्रुवीकरण होने लगा, कुछ लोगों को विशेषाधिकार मिलने लगे और शेष जनता हाशिये पर डाल दी गई।  

जब हाशिये या मार्जिन का मुकाबला सत्ता के केंद्र से होता है तो केंद्रबिंदु द्वयंकों के बीच सिमट जाता है; नारीवाद की महत्वपूर्ण अवधारणा से हमें यह पता चलता है कि इसके कारण ही दो विपरीत सिरों पर रहने वाली संस्थाओं के बीच का अंतर अक्सर जटिल हो जाता है। मेनलैंड के भीतरी अंतर गहरा जाते हैं और पूर्वोत्तर की जातीय विखंडन की प्रक्रिया के समान ही दो समुदायों के बीच के सीमापथ भी सख्त हो जाते हैं। राजनीति और समाज के पितृसत्तात्मक ढाँचे के बीच की खाई बढ़ जाने के कारण दूसरा नारीकृत और / या अमानवीकृत पक्ष कमज़ोर पड़ जाता है, वैकल्पिक विमर्श मौन हो जाता है और आक्रामक सैन्यबल की मर्दानगी के कारण उन्हें विभाजित करने और हिंसक बनाने की प्रक्रिया को बल मिलने लगता है। यही कारण है कि शक्तिशाली असमिया समुदाय भी असम में बसे अपने से छोटे और वहाँ बसने वाले समुदायों के साथ संबंध बनाते समय उत्तर साम्राज्यवादी भारतीय संघ की हेकड़ी दिखाने वाली पौरुष-मानसिकता के अनुरूप ही व्यवहार करने लगता है जैसा कि भारतीय संघ अब तक करता रहा है। जब भी कभी पूर्वोत्तर क्षेत्र के जातीय समुदाय भारतीय संघ के भीतर अपने विधिसंगत अधिकारों की माँग करने लगते हैं तभी यह प्रक्रिया दोहरायी जाती है जिसे अनंत काल से पूर्वोत्तर क्षेत्र में जातीय समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ़ इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसी तरह से आज मेनलैंड में शांति और एकजुटता की आवाज़ को कुचला जा रहा है।

भारतीय संघ शांति और एकजुटता के हथियार की महत्ता को समझता है। इन हथियारों से ही सत्ता की हेकड़ी दिखाने वाली “ऊपर” की सत्ता की अवधारणा को “साथ” मिलकर चलने की अवधारणा रखने वाले हाशिये पर रहने वाले लोगों के बीच के समुदायों के बीच संघर्ष को जारी रखा जा सकता है। यह सत्ता ही है जो पूर्वोत्तर के उन तमाम अन्य राज्यों के लोगों को प्रलोभन देती है जो इस तथ्य के बावजूद कि इनमें अधिकांश राज्य नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के दायरे में नहीं आते, असम और त्रिपुरा में होने वाले विरोध प्रदर्शनों का समर्थन करते हैं। यह भी सत्ता है जिसके कारण दिल्ली के दंगों में हिंदू मुसलमानों की मदद कर रहे थे और सिख अपने गुरुद्वारों में हिंसा से प्रभावित लोगों को शरण दे रहे थे। यह सत्ता ही है जिसके कारण हाशिये पर रहने वाले लोगों को सभी जगह मदद की ज़रूरत पड़ती है। इसका यह मतलब भी है कि मेनलैंड के लोगों को भारत के साथ पूर्वोत्तर के विलय के जटिल और संघर्षपूर्ण समझौते के इतिहास को भी समझना होगा। असम के उन लोगों पर जो नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के मुस्लिम-विरोधी स्वरूप का विरोध नहीं कर रहे हैं, विदेशियों को नापसंद करने और “जातीय फासीवाद” का आरोप लगाया जा रहा है। वे इस अधिनियम का विरोध सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उनके मन में हाल ही के उग्रवाद के बाद के वर्षों में जो भय समाया हुआ था वह फिर से अपना सर उठाने  लगा है और यही भय अस्थायी शांति को भी भंग कर सकता है। 

पूर्वोत्तर के हाशिये पर रहने वाले बहुत कम आबादी वाले समुदायों के सिर पर संख्या बल की दृष्टि से अधिक मज़बूत और राजनैतिक दृष्टि से अधिक शक्तिशाली लोगों से अपनी पहचान और आजीविका खोने का खतरा मँडराने लगा है। इतिहास को देखें तो यह एक वास्तविक भय है। उदाहरण के लिए त्रिपुरा के कोकबोरक या असम के असमिया लोगों पर इतिहास के अलग-अलग दौर में पूर्व बंगाल (अब बांग्ला देश) और पश्चिम बंगाल (भारतीय मेनलैंड) के बंगाली प्रवासी हावी रहे हैं। यह वही डर है जिसका इस्तेमाल राज्य की मशीनरी स्थानीय बाशिंदों और अपने क्षेत्र के लोगों को अमानवीय दुर्व्यवहार से पीड़ित प्रवासी लोगों से लड़ाने के लिए करती रही है। भारत के पूर्वी अंतर्राष्ट्रीय पड़ोस में रहने वाले भौगोलिक और जातीय दृष्टि से एक-दूसरे से जुड़े लोगों के आवागमन को और नियमित व्यापार को बढ़ावा देने के लिए स्पष्ट नीति अपनाने की आवश्यकता है। इसके विपरीत इनकी सरकारें छाया अर्थव्यवस्था और जातीय संघर्ष को बढ़ावा देकर इस क्षेत्र में भू-राजनैतिक असुरक्षा का खेल खेलती रहती हैं। मेनलैंड के साथ परिधि पर बसे राज्यों को जोड़ने वाले 21 कि.मी. चौड़े ज़मीनी कॉरीडोर-चिकन नैक- का एक प्रतीकात्मक अर्थ है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत हाशिये पर बसे राज्यों के बीच आपसी सूझ-बूझ बढ़ाने का प्रयास करे ताकि वे एकजुट होकर साथ-साथ खड़े हो सकें। हिंसा के ढाँचे को खत्म करके और विखंडन की राजनीति को त्यागकर ही शांतिपूर्ण और स्थायी भविष्य की नींव रखी जा सकती है। इसके लिए मेनलैंड को परिधि पर बसे राज्यों की सीमांतता और सत्ता के साथ भारतीय संघ के परीक्षणों से सीख लेनी होगी। परिधि पर बसे राज्यों और मेनलैंड को साथ मिलकर घावों पर मरहम लगाना होगा।

उद्दीपना गोस्वामी Conflict and Reconciliation: The Politics of Ethnicity in Assam (Routledge 2014) की लेखिका हैंउनकी प्रकाशनाधीन पुस्तक में भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में होने वाले जातीय-राष्ट्रीय संघर्षों का लैंगिक विश्लेषण किया गया है। 



हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmailcom> / मोबाइल : 91+9910029919