Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

क्या कोविड-19 भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन ला सकेगा

Author Image
30/03/2020
रौशन किशोर

भारत ने देश में बढ़ती कोविड-19 की महामारी के फैलाव को रोकने के लिए 25 मार्च से 21 दिन का देशव्यापी लॉकडाउन घोषित कर दिया है. इस अवधि के दौरान खाद्य सप्लाई, स्वास्थ्य-सेवा, बैंकिंग और कानून के प्रवर्तन जैसी अनिवार्य सेवाओं को छोड़कर शेष सभी सेवाओं को बंद कर दिया गया है. इसका अर्थ यह भी है कि भारत के 400 मिलियन से अधिक कामगारों का एक बहुत बड़ा हिस्सा न तो श्रम बाज़ार में उपलब्ध होगा और न ही वे उससे कोई कमाई कर सकेंगे. इस अनदेखी आपदा से भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के परिदृश्य में बुनियादी परिवर्तन होने की संभावना है.

हालाँकि भारत को अपने अधिकांश कामगारों के लिए “अच्छे काम-धंधे” जुटाने में कामयाबी नहीं मिली है, फिर भी अनौपचारिक बाज़ारों ने कामगारों को बहुत बड़ी तादाद में विभिन्न प्रकार के निम्न-स्तरीय संतुलन जाल में फँसा रखा है. हम यह नहीं भूल सकते कि भारत ने कभी-भी ग्रामीण-शहरी कामगारों पर या श्रमिकों के अंतर्राज्यीय आवागमन पर रोक नहीं लगाई है. इस प्रकार की रोक पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में आम बात नहीं है. भारत में अकुशल कामगार भी रोज़गार की तलाश में हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करते हैं. अनौपचारिक क्षेत्र में जीवन के लगभग हर क्षेत्र में बीमारी की अवस्था में भी जीवित रहने की असमान स्थितियों के बावजूद आम माँगों को पूरा करने के लिए सामूहिक रूप में “एक वर्ग के रूप में मिलकर कार्रवाई” करने की सीमित संभावनाएँ हैं. यही कारण है कि परंपरागत ट्रेड यूनियनें एक लंबे अरसे से नीतिगत फैसलों या राजनीति को बहुत हद तक प्रभावित करने के लिए संघर्ष करती रही हैं.

यह संकट खत्म होने के बाद इस स्थिति में परिवर्तन आ सकता है. कहीं भी जाकर काम करने के लिए आज़ाद और पूरी तरह से असंरक्षित श्रमिकों को पहली बार सरकार की ओर से सीधा झटका लगा है और अपनी श्रम-शक्ति को बेचने की उनकी क्षमता पर असर पड़ा है. इस संकट के खत्म होने के बाद भी हमें उम्मीद करनी चाहिए कि देर-सबेर इस आघात की यादें और इसके कारण जो आर्थिक कठिनाइयाँ उन्हें झेलनी पड़ी हैं, उसका गहरा असर उनके ज़ेहन पर बना रहेगा.  

भारत की अर्थव्यवस्था में, खास तौर पर “ आर्थिक सुधार लागू होने के बाद” पिछले तीन दशकों में बहुत तरह के बड़े परिवर्तन हुए हैं. इनमें सबसे भारी परिवर्तन हुआ है कृषि से अलग हटकर गैर-कृषि क्षेत्र में कामगारों के आवागमन का. जहाँ तक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का प्रश्न है, इस समय कृषि का हिस्सा कुल आर्थिक उत्पाद का 15 प्रतिशत से भी कम है. 1990 के वर्ष में यह आँकड़ा 27 प्रतिशत था. फिर भी कृषि से जुड़े कामगारों का हिस्सा काफ़ी अधिक है. 2017-18 के दौरान आवधिक श्रमशक्ति सर्वेक्षण (PLFS) के अनुसार 40 प्रतिशत से अधिक मज़दूर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में खेती-बाड़ी के काम में लगे हुए थे. सही तौर पर देखा जाए तो आय-रोज़गार शेयरों के ये प्रमुख आँकड़े भ्रामक भी हो सकते हैं. गाँवों में और खेती-बाड़ी के कामकाज में जुटे परिवारों की भी खेती-बाड़ी से इतर आमदनी सचमुच बहुत अधिक है और समग्र आमदनी में उसका हिस्सा बढ़ता ही जा रहा है.

यह निष्कर्ष परिवार स्तर की आमदनी के डेटा और गाँव-आधारित अध्ययन जैसे अन्य तरीकों से निकला है. ऐसा एक उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले के पालनपुर गाँव में पाँच दशकों तक किये गए इसी तरह के अध्ययन के आधार पर दिया जा सकता है. हिमांशु, लंजाओ और निकोलस स्टर्न ने अपनी पुस्तक  How Lives Change: Palanpur, India and Development Economics में गाँव स्तर का डेटा यह दर्शाने के लिए इस्तेमाल किया है कि सत्तर के दशक में परिवारों की कुल आमदनी में खेती-बाड़ी का 60 प्रतिशत हिस्सा 2008-09 में घटकर एक तिहाई रह गया था. दूसरी ओर, खेती-बाड़ी से इतर शेयर इसी अवधि में लगभग 10 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 50 प्रतिशत हो गये थे.

खेती-बाड़ी से इतर शेयर के महत्व को मात्र कुल आमदनी में इसके शेयर से ही स्पष्ट नहीं किया जा सकता. अपने ही गाँव में कुछ खास तरह के हाथ से किये जाने वाले कामों को आम तौर पर गाँव में रहकर नहीं किया जा सकता, लेकिन गाँव से बाहर जाकर प्रवासी मज़दूर के तौर पर खेती-बाड़ी से इतर काम करने की आज़ादी के कारण ये मज़दूर वे सब काम भी कर लेते हैं, जिन्हें अपने गाँव में रहकर नहीं कर पाते थे. उदाहरण के तौर पर पालनपुर में रहने वाले ऊँची जाति के ठाकुर पड़ोस के कस्बे में जाकर अपनी आजीविका के लिए रेल के मालडिब्बों से माल उतारने का काम भी कर लेते थे, जबकि पालनपुर में रहते हुए ऐसे काम को हाथ भी नहीं लगाते थे, क्योंकि यहाँ ऊँची जाति के लिए यह सामाजिक प्रतिष्ठा का काम नहीं समझा जाता था. संक्षेप में बात यह है कि प्रवासी के तौर पर खेती-बाड़ी से इतर काम करने से न केवल उनकी आमदनी बढ़ जाती है, बल्कि इससे बड़ी संख्या में कामगारों को रोज़गार के नये अवसर भी मिल जाते हैं. इसलिए इस बाज़ार के बंद हो जाने के कारण दिहाड़ी कमाने वालों पर डबल आफ़त आ गई है.

हमें यह याद रखना होगा कि प्रवासी और अनौपचारिक दोनों ही प्रकार के कामों में लगे भारत के अधिकांश कामगार मुश्किल से दो जून रोटी कमा पाते हैं. 2011-12 में औसत भारतीयों ने खाने-पीने की चीज़ों पर कुल उपभोक्ता व्यय का लगभग आधा हिस्सा खर्च किया था. यह हिस्सा कुल आबादी के सबसे निचले स्तर के लोगों के लिए काफ़ी अधिक है.  

चूँकि सरकार ने राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (NSO) द्वारा किये गए 2017-18 के उपभोग व्यय सर्वेक्षण (CES) के परिणाम जारी नहीं किये हैं, इसलिए अभी इन आँकड़ों की हमें कोई जानकारी नहीं है.

खाने-पीने की चीज़ों पर उपभोक्ता व्यय के इतने बड़े हिस्से का मतलब यह भी है कि इस देश के अधिकांश कामगार मुश्किल से अपना गुज़ारा कर पाते हैं और अगर रोज़मर्रे का कामकाज ठप्प हो जाता है तो ये मज़दूर मुश्किल से दो जून रोटी भी नहीं कमा पाएँगे. भारत के पास खाद्य सुरक्षा का अपना कार्यक्रम है, जिससे दो तिहाई आबादी का पेट भर सकता है. भोजन का यह अधिकार सबको सुलभ कराने का काम अभी चल रहा है. इसका यह अर्थ है कि अल्पकालिक प्रवासी कामगारों को इससे लाभ मिलने की संभावना नहीं है. इसके अलावा अपने घर से बाहर रहने वाले प्रवासी कामगारों के लिए केवल खाने का ही एकमात्र ज़रूरी खर्च नहीं होता. उनके लिए नियमित काम के अभाव में किराया भरना भी बहुत बड़ा सिरदर्द है. लाखों कामगारों के लिए यह बेहद मुश्किल की घड़ी होगी. अपुष्ट रिपोर्ट के अनुसार हज़ारों कामगार पैदल ही हज़ारों किलोमीटर दूर अपने घर के लिए निकल पड़े हैं. इससे पता चलता है कि वे कितनी मुश्किल में फँसे हुए हैं.

निश्चय ही हमेशा यह तर्क दिया जा सकता है कि लॉकडाउन के कारण जो मौजूदा आर्थिक संकट आया है वह अनुचित नहीं है. आखिर भारत जैसे विशाल देश में अगर किसी महामारी से लोग भारी मात्रा में संक्रमित होने लगते हैं तो उसके परिणाम बहुत भयावह हो सकते हैं. लेकिन इस पूरी व्यापार बंदी में भी एक बुनियादी गड़बड़ है. जहाँ एक ओर संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन का लाभ सबको समान रूप से मिलेगा, लेकिन इसकी भारी कीमत गरीबों को चुकानी होगी. अमीर लोगों की तरह ये गरीब लोग घर में बैठकर न तो अपना काम कर सकते हैं और न ही उनके पास इतना पैसा होता है कि वे न कमाने पर भी अपना खर्च चला सकें. ऐसे हालात में यही कहा जा सकता है कि यह बीमारी विदेश में ही जन्मी है और अमीर लोग इस बीमारी को घर पर ले आए हैं. इस बीमारी को फैलाने में गरीबों की कोई भूमिका नहीं है.

सामान्य हालात में भी यही होता है कि असल में बीमारी के कारण भी गरीब लोगों की मौत आसानी से हो जाती है, क्योंकि उनके पास न तो अपनी बीमारी के इलाज के लिए पैसा होता है और न ही अपनी बीमारी से ठीक होने के लिए पर्याप्त खुराक होती है. 2015 में हिंदुस्तान टाइम्स ने दिल्ली में स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ( AIIMS) नाम के भारत के एक प्रमुख सरकारी अस्पताल में किये गए अनुसंधान को उद्धृत करते हुए यह दर्शाने के लिए लिखा था कि सिर पर भारी चोट लगने के कारण 50 प्रतिशत रोगी बेहद गरीबी के कारण ही दम तोड़ देते हैं, क्योंकि उनके परिवार के पास न तो पर्याप्त खुराक के लिए और न ही सेवा-सुश्रूषा के लिए आर्थिक साधन होते हैं. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ( AIIMS) के अध्ययन का यही इकलौता मामला नहीं है. भारत के मानव विकास सर्वेक्षण (IHDS) संबंधी डेटा पर आधारित अनुसंधान में दर्शाया गया है कि स्वस्थ अमीर लोगों की तुलना में लगभग दुगुनी संख्या में सबसे अधिक गरीब लोगों के मरने की आशंका रहती है. और जब वे बीमार पड़ते हैं तो यह संख्या तिगुनी हो जाती है. इन आंकड़ों को देखने का एक और नज़रिया भी है. 20 प्रतिशत की सबसे अधिक गरीब आबादी के व्यक्ति के लिए बीमार होने पर मरने के 1.9 गुणा अवसर होते हैं और 20 प्रतिशत की सबसे अमीर आबादी के व्यक्ति के लिए बीमार होने पर मरने के 1.2 गुणा अवसर होते हैं. 

उक्त आँकड़े रुग्णता के साथ और रुग्णता के बिना मरने वाले लोगों के संभावित आँकड़ों को दर्शाते हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था की भयावह वास्तविकता को भी प्रकट करते हैं. हमारी आबादी के अधिकांश लोग इस उम्मीद के साथ जीते हैं कि वे या तो बीमार नहीं होंगे या फिर बीमारी के साथ ज़िंदगी जीते हुए मुश्किल से दो-जून रोटी ही कमा ही लेंगे.

लोगों ने ऐसी भीषण परिस्थितियों में जीने की मजबूरी को क्यों स्वीकार कर रखा है? इसके दो कारण हो सकते हैं. एक कारण तो यह हो सकता है कि यह संकट प्रकट रूप में कभी सामने नहीं आया. इसलिए सीधे क्रोध के रूप में या किसी और रूप में इसकी कोई और प्रतिक्रिया भी सामने नहीं आई. इसका एक स्पष्ट उदाहरण तो यही है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में कुछ ही दिनों में मस्तिष्क शोथ (एनसिफ़ेलिटिस) की विभिन्न प्रकार की बीमारियों से सैंकड़ों बच्चे मर गए थे. इस बीमारी से मरने वाले लोगों की संख्या मौजूदा विश्वव्यापी महामारी से कई देशों में मरने वाले लोगों की संख्या से अक्सर कहीं अधिक होती है. लेकिन ऐसी भयावह मौत के स्पष्ट उदाहरणों के बावजूद इन लोगों ने प्रकट रूप में कोई ऐसा आंदोलन नहीं किया जिसमें यह माँग की गई हो कि गरीबों को किफ़ायती दर पर बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ. दूसरा और इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि सरकार ने इन समस्याओं से ग्रस्त लोगों की मदद के लिए बहुत कम प्रयास किये और लॉकडाउन घोषित करके सामान्य अर्थव्यवस्था को ठप्प करके गरीबों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ नहीं डाला. संभवतः इसी कारण ऐसी स्थिति बनी रही कि ये लोग व्यक्तिगत स्तर पर बचत करने पर ही सारा ज़ोर देते रहे और वास्तविक तौर पर प्रकट रूप में सामने आने वाली समस्याओं को सुलझाने में ही जुटे रहे. मौजूदा लॉकडाउन की लागत और लाभ के बीच की विषमता को देखते हुए गरीब लोग असल में पहली बार प्रकट रूप में समस्या के तौर पर व्यवस्थित असमानताओं को देख सकते हैं और सरकार से उसके समाधान की अपेक्षा कर सकते हैं.

हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि मौजूदा संकट कब समाप्त होगा और यह भय स्पष्ट रूप में बना ही रहेगा कि हम इस महामारी के दूसरे या तीसरे चरण का सामना करेंगे या नहीं. यह तर्क करना मुश्किल नहीं है कि नीतिगत परिवर्तन लाकर गरीबों को भावी महामारियों के कारण होने वाले संभावित भारी आर्थिक खर्चों और आर्थिक व्यवस्था के ठप्प होने से बचाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है. इसके बहुत से उदाहरण हो सकते हैं, जैसे- ऐसी आपात् स्थिति में आमदनी बढ़ाकर / खाद्यान्न इधर से उधर पहुँचाकर, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में मात्रा और गुणवत्ता के स्तर पर सुधार लाकर ऐसे संकट में गरीबों को संरक्षण दिया जा सकता है और बीमार होने पर कामकाज न कर पाने की स्थिति में दिहाड़ी पर काम करने वाले कामगारों को दैनिक भुगतान किया जा सकता है.

अगर राजनीतिक दल ऐसे नीतिगत परिवर्तन कर सकते हों तो ऐसी माँग करने वाले अधिकांश गरीबों के लिए सफलतापूर्वक ये सुविधाएँ सुलभ कराई जा सकती हैं. भले ही गरीब लोग भारत के बौद्धिक या सार्वजनिक विमर्श को बदलने में सक्षम न हों फिर भी राजनीतिक परिणामों को तय करने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है.

यह संभव है या नहीं, यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है, भले ही वे दल सत्ता पक्ष में हों या विपक्ष में, राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय दल. ये तमाम राजनीतिक दल लोगों के व्यापक समर्थन के साथ स्पष्ट रूप में माँग करें और इन मुद्दों को उठाएँ. भारत में और विदेशों में भी हम सब देखना चाहेंगे कि सरकार किस तरह से मौजूदा संकट को हल करती है. लेकिन यह देखना अभी बाकी है कि भारत के राजनीतिक दल मौजूदा वैश्विक महामारी से निपटते हुए राजनीतिक अर्थव्यवस्था को गरीबों के पक्ष में पुनः परिभाषित करने में सफल होते हैं या नहीं.

रौशन किशोर हिंदुस्तान टाइम्स में डैटा व राजनीतिक अर्थव्यवस्था के संपादक हैं और CASI Spring 2020 के विज़िटिंग फ़ैलो हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919