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शिक्षा के नये प्रतिमान की ओर: प्रणाली और तत्व

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03/02/2020
रोहन संधु

जैसे-जैसे हम नये दशक की ओर बढ़ रहे हैं, भारत भी शिक्षा अधिकार अधिनियम (RTE) की दसवीं वर्षगाँठ मना रहा है. यह अधिनियम अप्रैल, 2010 में लागू हुआ था. जहाँ एक ओर शिक्षा अधिकार अधिनियम (RTE) प्रशासन और शिक्षण के सीमित परिणामों पर ही केंद्रित होने के कारण प्रतिबंधित रहा है, वहीं पिछले दस वर्षों में इसके कारण स्कूलों में जो सुधार हुए हैं, उससे भी इंकार नहीं किया जा सकता. शिक्षा अधिकार अधिनियम (RTE) भी एक ऐसा ज़रिया बन गया है, जिसके माध्यम से अनेक हितधारक इस क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगे हैं. 

लेकिन जब इस अधिनियम की बुनियाद पक्की हो गई है तो भी भारत के शिक्षा-परिणाम बहुत निचले स्तर पर ही बने हुए हैं. स्वास्थ्य की देखभाल और कृषि की तरह शिक्षा की गुणवत्ता के सरोकार पर उसे राजनीतिक प्राथमिकता बनाकर कोई चर्चा नहीं की जाती. लेकिन खास तौर पर बेरोज़गारी के आँकड़ों में प्रतिबिंबित भारत की मानव-पूँजी के संकट को देखते हुए इन सरोकारों की अब और अनदेखी नहीं का जा सकती. इसके अलावा, अर्थशास्त्री शमिका रवि मानती हैं कि शिक्षा न पाने वाले लोगों की तुलना में उच्च शिक्षाप्राप्त लोगों के बेरोज़गार होने की अधिक आशंका है: “शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में बहुत-से इंजीनियर और अन्य पेशेवर लोग डिग्रियों को बेकार मानने लगे हैं.”

शिक्षा के वैश्विक कारोबार गठबंधन के 2030 के कौशल स्कोर बोर्ड में इन सरोकारों को रेखांकित करते हुए दर्शाया गया है कि दक्षिण एशिया में 2030 तक भारत में माध्यमिक स्कूल के स्नातकों की संख्या सबसे अधिक हो जाएगी, लेकिन इनमें से लगभग आधे लोग ऐसे होंगे जो कौशल के अभाव में रोज़गार नहीं पा सकेंगे.  

अब तक तो इस प्रकार के संकटों का ऊपरी और तात्कालिक समाधान यही रहा है कि स्कूली शिक्षा में भारी सुधार लाने के बजाय इसके लिए कौशल मंत्रालय की स्थापना कर दी जाए.  भारत को आगे बढ़कर इस अस्थायी संतुलन का समाधान खोजना होगा और शिक्षा को मानव-पूँजी के व्यापक ढाँचे में रखकर देखना होगा. आगामी दशक में शिक्षा प्रणाली के मूलभूत लक्ष्य को समायोजित करते हुए भारत के शिक्षा क्षेत्र को व्यापक प्रणाली के स्तर पर स्केल और तत्व पर ध्यान देना होगा.

अतीत में अच्छी से अच्छी शिक्षा-नीति और उस पर आधारित पाठ्यक्रम भी कमज़ोर प्रशासन के कारण अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल होते रहे हैं. इसलिए शिक्षा-क्षेत्र के प्रशासनिक स्तंभ को निश्चय ही अधिक महत्व प्रदान करना होगा. ऑस्ट्रेलिया की पूर्व प्रधानमंत्री और शिक्षा संबंधी वैश्विक भागीदारी की अध्यक्ष जूलिया जिलार्ड के अनुसार   शिक्षा में शासन की केंद्रीय भूमिका होनी चाहिए. “ठीक उसी तरह, जैसे ऑर्केस्ट्रा का कोई अच्छा कंडक्टर अलग-अलग प्रकार के वाद्ययंत्रों का समन्वय करते हुए यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक वाद्य अपना सुर निकालते हुए भी अद्भुत संगीत की सृष्टि करता रहे.”

पिछले कुछ वर्षों में हरियाणा, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश सहित भारत के अनेक राज्यों ने शिक्षा को व्यवस्थित करने के लिए व्यापक स्तर पर परिवर्तन करके उसका नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया है. इनमें से अनेक राज्यों ने इसकी शुरुआत स्कूलों के समन्वय से की थी. ऐतिहासिक रूप में सरकारी स्कूलों का उदय बिना किसी समन्वित रणनीति के स्वतः स्फूर्त रूप में हुआ है. इनका असंगठित नैटवर्क बहुत व्यापक रहा है, लेकिन इसका उपयोग कुछ विद्यार्थी ही कर पाये हैं. इस प्रकार की प्रणाली के प्रबंधन की सरकारी क्षमता सीमित है और इसका कारण यही है कि स्कूलों में प्रशासन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, सूचनाओं में भारी अंतराल है और मुख्य अध्यापकों और अध्यापकों के अनेक पद खाली पड़े हुए हैं. आवश्यकता इस बात की है कि स्कूलों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ बुनियादी ढाँचे में सुधार किया जाए, पर्याप्त संख्या में अध्यापकों की भर्ती की जाए और स्कूलों में वरिष्ठ अधिकारियों और स्कूल के स्तर पर ही पदाधिकारियों की भर्ती की जाए और इन कर्मचारियों की क्षमता को भी बढ़ाया जाए. इसके अलावा, सभी विद्यार्थियों की ग्रेड स्तर की क्षमता को बढ़ाने के लिए “पुनर्व्यवस्था” पर अधिक से अधिक ज़ोर दिया जाए. जहाँ तक प्रशासन का प्रश्न है, सभी राज्यों के कार्यक्रमों में कुछ समान तत्व भी हैं: पुनरीक्षा और निगरानी को बढ़ाने के लिए प्रबंध सूचना प्रणाली, वीडियो कॉन्फ़रेंस और व्हाट्सऐप जैसी परस्पर लाभ उठाने की टैक्नोलॉजी ; सरकार के सभी स्तरों पर संचार प्रणाली; और राज्य, ज़िला और ब्लॉक के स्तर पर परियोजना प्रबंधन प्रोटोकॉल.

राजस्थान में, जहाँ अंतर्राष्ट्रीय नवाचार निगम ने बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, कैवल्य शिक्षा प्रतिष्ठान और मिशेल व सूज़न डैल फ़ाउंडेशन जैसे संस्थानों के साथ मिलकर कार्य किया है, वहीं राज्य सरकार ने प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक स्कूल का चुनाव करते हुए लगभग 10,000 “आदर्श” माध्यमिक स्कूलों को विकसित किया है और वहाँ अपने आदर्श कार्यक्रम के अंतर्गत बढ़िया बुनियादी ढाँचे के साथ-साथ प्राथमिकता के आधार पर मुख्य अध्यापकों और अध्यापकों की भर्ती की है. बाद में इन मुख्य अध्यापकों को पंचायत शिक्षा अधिकारी बना दिया गया और उन्हें अपने ग्राम पंचायतों के अधीन आने वाले अन्य स्कूलों (विशेषकर एक मॉडल ऐलिंमैंट्री स्कूल) की निगरानी का प्रशिक्षण दिया गया. इन प्रयासों से चार वर्षों में अध्यापकों की रिक्तियों की संख्या 50 प्रतिशत से घटकर 19 प्रतिशत रह गई और फ्रंटलाइन प्रशासन का एक कैडर निर्मित हो गया, जो नियमित रूप में स्कूलों की निगरानी करता है. राज्य सरकार ने राष्ट्रीय प्रवृत्तियों की अनदेखी करते हुए एक नई व्यवस्था का निर्माण किया और इसके फलस्वरूप विद्यार्थी निजी स्कूलों से निकलकर सरकारी स्कूलों में आने लगे. राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण और बोर्ड-दोनों के परिणाम यही दर्शाते हैं कि माध्यमिक स्कूलों के परिणामों में सुधार हुआ है.  

अन्य राज्यों में भी ऐसे ही सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं. उदाहरण के लिए, ग्रे मैटर्स इंडिया के मूल्यांकन से यह अनुमान सामने आया है कि 119 में से 94 ब्लॉकों के विद्यार्थी अब “ग्रेड स्तर पर सक्षम” हो गए हैं. इसका श्रेय हरियाणा के मुख्यमंत्री द्वारा चलाए गए सक्षम हरियाणा कार्यक्रम को है. इस कार्यक्रम में अन्य अनेक हस्तक्षेपों के अलावा उपचारात्मक शिक्षा पर ज़ोर देने का कार्यक्रम भी शामिल था. इस प्रक्रिया में इस कार्यक्रम के माध्यम से डैटा संग्रह और विश्लेषण के नये तंत्र की स्थापना की गई और नियोजन, समन्वय और निगरानी के साथ-साथ ज़िला-स्तर पर और ब्लॉक-स्तर पर भी निगरानी की व्यवस्था को पुनर्गठित किया गया.

इन सफलताओं को आगे बढ़ाते हुए नीति आयोग और ओडिशा, मध्य प्रदेश और झारखंड के तीन राज्य SATH-E कार्यक्रम के माध्यम से इन प्रयासों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में शामिल हो गए हैं. इसके अलावा, नीति आयोग के स्कूली शिक्षा के नये गुणवत्ता सूचकांक के तीस में से चौदह संकेतक शासन प्रक्रिया से जुड़े हुए हैं. इस प्रक्रिया में अध्यापकों की उपलब्धता, प्रशिक्षण, जवाबदेही और पारदर्शिता भी शामिल हैं.  

शिक्षा प्रणाली के बेहतर प्रबंधन के लिए राज्यों के क्षमता-निर्माण पर अधिक ज़ोर देने से इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई दे रहा है. उक्त उदाहरणों से यह भी सिद्ध हो जाता है राज्य की क्षमता के विकास से शिक्षा व्यवस्था में सुधार भी लाया जा सकता है. इन तमाम सफलताओं के बावजूद इन प्रयासों को शुरुआत या प्रस्थान बिंदु की तरह ही देखना चाहिए. पहली बात तो यह है कि ये प्रयास पब्लिक स्कूल प्रणाली तक ही सीमित हैं और अधिक सार्थक बदलाव लाने के लिए यह ज़रूरी है कि सरकार की भूमिका मात्र सुविधा-प्रदाता की नहीं, बल्कि नियामक और मार्गदर्शक की होनी चाहिए. हाल ही में प्रतिस्पर्धा की भावना बहुत बढ़ गई है और अब तो सरकारें अपने कार्य-परिणामों में पब्लिक स्कूलों को पीछे छोड़ने का दावा भी करने लगी हैं. जहाँ एक ओर इस प्रतिस्पर्धा से बेहतर परिणामों के लिए सकारात्मक दबाव बना रह सकता है, वहीं वास्तविकता यह है कि कुछ संभ्रांत स्कूलों के अलावा अधिकांश निजी स्कूलों के पास संसाधनों का अभाव है और गुणवत्ता, सुरक्षा और परिणामों का पर्याप्त नियमन भी नहीं है. कुल विद्यार्थियों की आधी संख्या तो इन स्कूलों में ही है.

बुनियादी बात तो यह है कि कार्यान्वयन की प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए ज़रूरी है कि पक्के इरादे के साथ इसका बार-बार मूल्यांकन किया जाना चाहिए. भारत की शिक्षा प्रणाली मानक और महत्वाकांक्षी पाठ्यक्रम पर केंद्रित रहनी चाहिए और विद्यार्थियों का वर्गीकरण शिक्षा के स्तर और बोर्ड की भारी-भरकम परीक्षाओं के बजाय विद्यार्थियों की आयु पर आधारित होना चाहिए. अर्थशास्त्री कार्तिक मुरलीधरन के अनुसार इसका परिणाम होता है “चयन प्रणाली”, न कि मानव पूँजी प्रणाली. इस संदर्भ में हमें यह सवाल करना चाहिए कि यदि मात्र प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने से दोषपूर्ण प्रक्रिया के प्रबंधन में अपने-आप ही सुधार हो सकता है तो शिक्षा के भारी मात्रा में उत्पादन वाले मॉडल या “प्रशियन मॉडल” को, जिसकी उपयोगिता भी शायद अब नहीं रही, अपनाकर क्या होगा.    

परंपरागत तौर पर सारी दुनिया में शिक्षा प्रणाली में प्राथमिकता का सीधा-सा तर्क अपना लिया गया है. इसके अनुसार स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या को बढ़ाना चाहिए, मूल अकादमिक विषयों की गुणवत्ता को बढ़ाना चाहिए और अंततः दुनिया में तरक्की करने के लिए आवश्यक कौशलों को विकसित करना चाहिए, लेकिन सार्वभौमिक शिक्षा केंद्र, रेबेका विनथ्रॉप के सह-निदेशक यह मानते हैं कि विकसित बनाम विकासशील देशों की शिक्षा की उपलब्धियों में सौ वर्ष का अंतराल है. इसके अलावा, लगातार तेज़ी से बदलती दुनिया में यह भी निश्चित नहीं है कि किस प्रकार का कौशल अपेक्षित है. हम स्कूलों से किस प्रकार के परिणामों की अपेक्षा करते हैं और क्या ये परिणाम समाज और अर्थव्यवस्था के विकास में सार्थक भूमिका के निर्वाह के लिए विद्यार्थियों में व्यक्तिगत स्तर पर गुण पैदा कर सकते हैं? विनथ्रॉप इसकी व्याख्या करते हुए बताते हैं कि इन तथ्यों से यह अर्थ निकलता है कि इस साधारण तर्क को छोड़कर उससे बाहर निकलने की आवश्यकता है और “छलाँग” लगाकर एक ऐसी प्रणाली की ओर बढ़ना होगा, जो साक्षरता और “कौशलों की व्यापकता” की तादाद बढ़ाते हुए परिणामों की इस संकल्पना को और आगे बढ़ा सके.

अंततः आवश्यकता इस बात की है कि प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ करना बहुत ज़रूरी है, लेकिन राज्य की क्षमताओं के विकास में विलंब के कारण समस्या इतनी भयावह हो गई है कि कई दशकों से भारत में सार्वजनिक सेवा ही पंगु बनी हुई है. नई शिक्षा नीति के अंतर्गत शिक्षा प्रणाली के उद्देश्यों को फिर से परिभाषित करने के लिए ऊर्जा से भरे इस नये प्रशासनिक तंत्र का पूरा लाभ उठाया जाना चाहिए. इसके लिए आवश्यक है कि भारी-भरकम परीक्षाओं पर ज़ोर देने के बजाय मूल्यांकन के तंत्र को बुनियादी तौर पर बदल दिया जाए ताकि विद्यार्थियों के व्यवहार में व्यापक परिवर्तन लाया जा सके. शिक्षा के इन व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपेक्षित उपायों को समन्वित करने के उद्देश्य से माता-पिता, विद्यार्थियों, स्कूली स्तर के प्रशासकों और निजी संगठनों (NGOs) आदि हितधारकों के बीच नई साझेदारी विकसित की जाए.   

“परिणामों पर तो ज़ोर देना ही होगा”, लेकिन सर्वसमावेशी मानव पूँजी की रणनीति को अपनाकर इसे और अधिक आगे बढ़ाना होगा. कुछ वर्षों में विद्यार्थियों की वह पीढ़ी, जो अब तक शिक्षा से वंचित रही है, शिक्षा अधिकार अधिनियम (RTE) के कारण स्कूली शिक्षा के चक्र को पूरा कर चुकी होगी, लेकिन अगले दशक में मुख्य प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि शिक्षा नीति ऐसी हो जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि विद्यार्थियों के लिए स्कूली शिक्षा केवल अंतिम लक्ष्य नहीं है, बल्कि अवसर पाने का एक साधन है.

रोहन संधु अंतर्राष्ट्रीय नवाचार निगम के पूर्व सह निदेशक रहे हैं और इस समय हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में कार्यरत हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.