तीन साल पहले, भारतीय अर्थव्यवस्था की त्रैमासिक विकास दर लगभग 9 प्रतिशत हो गई थी. लेकिन अब यह दर घटकर आधी रह गई है और पिछली तिमाही (अक्तूबर-दिसंबर 2019) में 4.7 प्रतिशत रह गई. अधिकतर अनुमानों के अनुसार मार्च 2020 को समाप्त होने वाले राजकोषीय वर्ष में विकास दर 5 प्रतिशत हो जाएगी और अगले वर्ष, 2020-21 में यह दर बढ़कर 6 प्रतिशत हो जाएगी. सारे देश के लिए यह गिरावट हैरान कर देने वाली थी. हाल ही में अभी तक हम शान से कहा करते थे कि हमारी अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है.
विकास-दर में आई इस गिरावट का कारण क्या है? हालाँकि यह एक चक्रीय घटक है, फिर भी इस बात पर आम सहमति है कि इस समस्या का मूल कारण बहुत हद तक संरचनात्मक ही है. विकास-दर में आई गिरावट के पीछे के संरचनात्मक कारणों को समझने के लिए हमें इस शताब्दी के अंत पर नज़र दौड़ानी होगी जब निवेश की बाढ़ आने के कारण भारत विकास के पथ पर असाधारण गति से आगे बढ़ने लगा था.
वर्ष 1991 में भारत में लागू किये गए ऐतिहासिक आर्थिक सुधारों के कारण उत्पादन पर नियंत्रण हटा दिया गया था और बाज़ार को उदार बना दिया गया था, जिसके कारण उद्यमिता का विशाल भंडार बनने लगा था और इसका प्रभाव अनेक दशकों तक बना रहा. जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे लेकिन पक्के तौर पर “विकास की हिंदू दर” के मुहावरे के अनुसार चंगुल से बाहर निकलने लगी, उद्यमी आतुरता से विकास के अवसरों की बाट जोहने लगे. इस बीच इन सुधारों का मौन परिणाम यह हुआ कि आर्थिक प्रबंधन में अब तक होने वाले शहरीकरण का झुकाव कम होने लगा और व्यापार का रुझान ग्रामीण क्षेत्रों की ओर उन्मुख होने लगा. ग्रामीण आय बढ़ने लगी और उपभोक्ता वस्तुओं की माँग बढ़ने लगी और इसके कारण निवेश की माँग और बढ़ गई.
निवेश के लिए सप्लाई और माँग का यह मेल अप्रत्याशित था; और यह भी ऐसे समय हुआ जब भारत ने सॉफ्टवेयर के पावरहाउस के रूप में विश्व के बाज़ार में प्रवेश किया था. जैसे-जैसे कैलेंडर नई सदी की ओर बढ़ने लगा, विश्व-भर की कंप्यूटर प्रणालियों में Y2K की दहलाने वाली समस्या को हल करने के लिए हज़ारों भारतीय इंजीनियर अग्रणी पंक्ति में आकर खड़े हो गए. संक्षेप में भारत चीन के समकक्ष विश्व के बैक ऑफ़िस के रूप में दुनिया का कारखाना बन गया. विदेशों के इच्छुक निवेशक अपने निवेश के लिए चीन के बजाय भारत को आकर्षक विकल्प मानने लगे. भारत के प्रति अपना रुझान प्रकट करते हुए उस समय प्रकाशित The Economist के अंक में यह टिप्पणी की गई थी कि तीन ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से चीन की तुलना में भारत का पलड़ा भारी पड़ता है....”अंग्रेज़ी, लोकतंत्र और बढ़िया कानूनी व्यवस्था”.
2000-01 में भारत की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में 24 प्रतिशत की वृद्धि के साथ-साथ निवेश में भी वृद्धि हुई थी और 2007-08 में जीडीपी में 38 प्रतिशत की अभूतपूर्व वृद्धि के साथ निवेश में भी वृद्धि हुई थी. वैश्विक वित्तीय संकट के बावजूद 2001-10 के दशक के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था 7 प्रतिशत की औसत वार्षिक दर पर आगे बढ़ गई थी. इस प्रकार भारत की विकास-गाथा का अगला अध्याय खुलने लगा था. सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश ने बहुत पहले ही विकास की दर में तेज़ी लाने का जादुई नुस्खा खोज लिया था और यही कारण है कि अब यह अनुमान लगाया जाने लगा कि विकास-दर में चमत्कारी वृद्धि लाने का अब अगला अवसर भारत का ही होगा.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
वर्ष 2010 के आसपास कुछ बातें ऐसी होने लगीं कि निवेश की गति तेज़ी से कम होने लगी, अशोध्य ऋणों का अंबार लगने लगा और वित्तीय क्षेत्र पर दबाव बढ़ने लगा. आम धारणा के अनुसार इसका मूलभूत कारण था क्रोनी पूँजीवाद. हो सकता है कि इस कारण से कुछ हुआ हो, लेकिन असल में और भी बहुत-से बड़े कारण थे, जिनकी वजह से ऐसे हालात बने.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश निवेश ऐसे बुनियादी ढाँचे के लिए किया गया, जिसकी पहले से न तो निगमों को कोई जानकारी थी और न ही ऋणदाता बैंकों को. उनके अति उत्साह के पीछे कोई तर्क नहीं था. निवेशकों की माँग का कोई आधार नहीं था और काल्पनिक रूप में वे यह अनुमान लगा रहे थे कि हमेशा ही समय अनुकूल रहेगा. उच्चतम न्यायालय ने वायरलैस स्पैक्ट्रम और कोयले के भंडार के सरकारी आबंटन को रद्द करने का आदेश दे दिया और कुछ खनन परियोजनाओं पर रोक लगा दी, जिसके कारण अनिश्चितता का माहौल बन गया और विलंब होने लगा. भ्रष्टाचार और घोटालों के इस आम वातावरण में अनेक मोर्चों पर लड़ते हुए सरकार अपना ही मखौल बनवाते हुए “नीतिगत पक्षाघात” की ओर बढ़ने लगी.
इस बीच कितनी ही परियोजनाएँ विलंब होने के कारण बंद होती गईं और अशोध्य ऋणों का अंबार लगने लगा. उधार लेने वाले निगमों और ऋणदाता बैंकों के तुलन पत्रों पर दबाव बढ़ने लगा. कुख्यात रूप में इसे जटिल “युग्म तुलन पत्र” की समस्या कहा जाता है.
इस प्रकार की नकारात्मक परिस्थितियों का परिणाम यह हुआ कि निवेश की गति मंद पड़ गई और 2010 के बाद से संरचनात्मक विकास का इंजन ही टूटकर बिखरने लगा और विकास मुख्यतः खपत पर ही केंद्रित रह गया. सन् 2014 की ग्रीष्म ऋतु में जब मोदी ने प्रधान मंत्री के रूप में पहली बार सत्ता की बागडोर सँभाली उस समय मोदी को एक इंजन से चलने वाली यही अर्थव्यवस्था विरासत में मिली थी.
पहले कार्यकाल (2014-19) में मोदी का भाग्य अच्छा था; वैश्विक स्तर पर तेल के दाम ठीक ही थे और बारिश भी अच्छी हुई थी. इसके कारण सरकार और उपभोक्ताओं दोनों की ही क्रय शक्ति अच्छी बनी रही. सरकार ने विकास को गति देने के लिए उधार लेने और खर्च करने की राजकोषीय ज़िम्मेदारी की सीमाओं को आज़माया. इस बीच अपने पहले कार्यकाल में राष्ट्रीय स्तर पर वस्तु व सेवा कर (GST) लागू करने और ऊँचे मूल्य की मुद्रा के विमुद्रीकरण के कारण निजी खपत ही भारत के विकास का मुख्य आधार बना रहा.
अपनी खपत के समर्थन के लिए घर-परिवारवालों ने पहले तो अपनी बचत को स्थिर रखा और फिर मुख्यतः गैर-बैंकीय वित्त कंपनियों (NBFCs) से उधार लेना शुरू कर दिया.अपनी बहु-प्रचलित टिप्पणी में अर्थशास्त्री हर्ब स्टेन ने प्रभावशाली ढंग से कहा कि “अगर कोई व्यवस्था हमेशा कायम नहीं रह सकती तो अंततः वह समाप्त हो जाती है.” यही स्थिति भारत की ऋण-आधारित खपत की भी है; ILFS जैसे विशाल गैर-बैंकीय समूह का भी यही हाल हुआ और 2018 के उत्तरार्ध में यह समूह समाप्त हो गया और NBFC क्रैडिट चैनल भी अंतिम साँसें गिनते हुए समाप्ति के कगार पर पहुँच गया.
विकास के इंजनों के तिरोहित होने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था भारी तूफ़ान में फँस गई और यही वह तूफ़ान था जिसका सामने मोदी ने तब किया जब वह 2019 की ग्रीष्म ऋतु में प्रधान मंत्री के पद की बागडोर सँभाल रहे थे.
आज आवश्यकता इस बात की है कि निजी निवेश को गति प्रदान करने के लिए अर्थव्यवस्था में स्थायी परिवर्तन किया जाए और उसे स्पष्टता से लागू किया जाए. युग्म तुलन पत्र की समस्या को भी हल करना होगा, लेकिन यही काफ़ी नहीं होगा. सरकार को चाहिए कि वह संरचना और शासन संबंधी गहन सुधारों को भी लागू करे.
इनमें से अधिकांश कार्य राजनैतिक तौर पर बहुत कठिन हैं. यही कारण है कि हमें भारी जनादेश के साथ ऐसे मज़बूत नेताओं को चुनना चाहिए जो राजनैतिक तौर पर कठिन कामों को भी अंजाम दे सकें. यूरोपियन संघ के अध्यक्ष जीन क्लाड जंकर ने एक बार बड़े दुःख से कहा था कि “हम सब जानते हैं कि हमें क्या करना है, लेकिन हम यह नहीं जानते कि यह सब कुछ करने के बाद हम दुबारा कैसे चुनकर आएँ.”
मोदी जैसा सबल भारतीय नेता दशकों के बाद भारत के राजनैतिक क्षितिज पर उभरा है, वह चुनौतियों का सामना करके और अवसर का लाभ उठाकर जंकर को गलत सिद्ध कर सकते हैं.
दुव्वरी सुब्बाराव CASI 2019-20 के विशिष्ट अंतर्राष्ट्रीय फ़ैलो हैं और वह भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर (2008-13) रहे हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.