कोविड-19 ने न केवल भारत में एक जैविक आपदा को जन्म दिया है, बल्कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक असमानताओं को भी बढ़ाया है. अनगिनत लोग ऐसे भी हैं जो अपने-आपको बहुत अभागा समझ रहे हैं. इन अभागे लोगों में सबसे अधिक दयनीय लोग वे हैं जो शरणार्थी हैं और जिनका कोई वतन नहीं हैं.
2018 में भारत में 195,891 शरणार्थी थे. नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार इनमें से लगभग 11,000 शरणार्थी अफ़गानिस्तान से आए थे. इनमें शरण पाने को इच्छुक और अन्य शरणार्थी शामिल नहीं हैं, जिनका पंजीकरण संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) कार्यालय में नहीं हुआ है या जिनके पास कोई दस्तावेज़ नहीं है. भारत में लगभग 74 प्रतिशत अफ़गानी शरणार्थी सिख या हिंदू हैं और शेष शरणार्थी ईसाई कन्वर्ट या मुसलमान हैं. शरणार्थियों के संदर्भ में भारत सरकार की नीति चुने हुए समूहों को ही शरण देने की रही है. तिब्बती शरणार्थी या श्री लंका से भागकर आए उत्पीड़ित शरणार्थियों को भारत सरकार ने शरणार्थी का जो दर्जा दिया, वह दर्जा अफ़गानी शरणार्थियों को नहीं दिया गया. ऐसा करने से, भारत अफ़गानिस्तान की परिस्थितियों पर राजनयिक टिप्पणी कर बैठता, जो वह नहीं कर सकता. निहित क्षेत्रीय हितों को देखते हुए भारत आसानी से कोई निर्णय नहीं कर सकता. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हितों के टकराव में फँसे लोगों के जीवन की परवाह करना कठिन हो जाता है और यही कारण है कि इन अफ़गानी शरणार्थियों को बहुत सावधानी से अपना समय गुज़ारना पड़ता है.
इन समूहों के किसी एक देश या दूसरे देश की परिधि में रहने के बावजूद विश्व भर के शासनाध्यक्षों के राजनीतिक प्रवचनों में कहीं भी इनकी गूँज सुनाई नहीं देती. अपने देश में या फिर विदेश में रहकर कोरोना विषाणु से लड़े जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों में इन तमाम राष्ट्रीयता विहीन लोगों का कोई ज़िक्र नहीं होता. इस विश्वव्यापी महामारी से लड़ाई में जुटी भारत सरकार की प्रतिक्रिया भी भारतवासियों तक ही सीमित रहती है. यह समूह किसी भी तरह से एक समान नहीं है. इस समूह में अनेक दरारें हैं. दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर और ठेके पर काम करने वाले अस्थायी रूप में काम करने वाले लोग इस प्रकार के विषाणुओं से आसानी से आक्रांत हो सकते हैं. संकट के इस दौर में कम से कम भारतीय नागरिकों का तो ध्यान रखा ही जाएगा, लेकिन उन तमाम शरणार्थियों या नागरिकता-विहीन लोगों पर, जिनके अस्तित्व पर ही खतरा मँडरा रहा है, यह महामारी कई गुना भारी पड़ेगी. भारत में रहने वाले शरणार्थियों ने, जिनके लिए मैं काम करती हूँ, संसाधनों और बाहरी सहायता के अभाव को लेकर इसी तरह की चिंता प्रकट की है.
भारत का लॉकडाउन और अफ़गानी शरणार्थी
फ़ारसी के नये वर्ष नवरोज़ के दिन मैंने दिल्ली के अफ़गानी ईसाइयों के छोटे-से समुदाय के पादरी को लिखा था. यह नया पुरोहित फ़ादर अपनी दुनिया में मस्त रहता है, लेकिन कुछ समय से उन तमाम अन्य ईसाई परिवारों को लेकर चिंतित रहने लगा है जिनकी अक्सर मदद करना बदली हुई परिस्थिति में उसके लिए आवश्यक है. उन्होंने मुझसे 20 मार्च को मोदी के उस भाषण में की गई अपील का अनुवाद करने के लिए कहा, जिसमें उन्होंने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लगाने की घोषणा की थी. मैंने उन्हें बताया कि वह रविवार के दिन सामूहिक प्रार्थना सभा आयोजित नहीं कर सकेंगे. तीन दिनों के बाद सारे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया गया.
लॉकडाउन शुरू होने से पहले मुझे इस अफ़गानी समुदाय से उनकी सामूहिक प्रार्थना सभा में मिलने का अवसर मिला. इस सभा में व्यक्तिगत बचाव के साधनों के साथ एन-95 मास्क और रबड़ के दस्तानों के साथ छोटे-बड़े, पुरुष और स्त्रियाँ सभी लोग सामाजिक दूरी बनाये रखने के नियम का भी पालन कर रहे थे, जबकि तब तक इसे अनिवार्य घोषित नहीं किया गया था. लेकिन बीमार न होने के कारण मैंने बचाव के साधन के रूप में मास्क पहनने की ज़रूरत नहीं समझी. मैं अपने हाथों और चेहरे को ढककर भीड़ में खड़ी रही. मैं बीच-बीच में सैनिटाइज़र निकाल कर दिखा देती थी ताकि लोगों को लगे कि मैं भी इस महामारी के प्रति सचेत हूँ, लेकिन निश्चय ही उनकी तुलना में मैं कम ही सचेत थी. भारतीय नागरिक होने के कारण और पूरी तरह अपने ही देश में होने के कारण मैं आश्वस्त थी कि ज़रूरत पड़ने पर मेरी कोई भी मदद कर सकता है, लेकिन इन शरणार्थियों को किसी तरह की बाहरी मदद की उम्मीद नहीं है. भारत ने शरणार्थियों के संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन (1951) और तत्संबंधी प्रोटोकॉल (1967) पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं और देश में शरण माँगने वाले लोगों को शरण देने की ज़िम्मेदारी UNHCR पर ही छोड़ दी है.
“वसुधैव कुटुम्बकम्”
सर्विस के दौरान सावधानी बरतने और सामाजिक व्यवहार में क्या करना है और क्या नहीं करना है, जैसी बातों का बार-बार उल्लेख किया जा रहा था. दूसरों के लिए की जाने वाली प्रार्थना के दौरान ये लोग एन-95 मास्क उतारकर अफ़गानिस्तान, ईरान और भारत में बसे अपने भाइयों और उनके परिवार के स्वास्थ्य और कुशल-क्षेम की प्रार्थना कर रहे थे. मौजूदा स्थिति में भी भारत सरकार इन अफ़गानियों और अन्य शरणार्थी समूहों को चिकित्सा सुविधा प्रदान नहीं कर रही है. सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा और निजी चिकित्सा ढाँचे की सीमित पहुँच के कारण ये अफ़गान शरणार्थी एक दूसरे की मदद और मार्गदर्शन पर ही निर्भर रहते हैं. आखिरी बार उस दिन जब उन्होंने मास्क और दस्ताने उतारे, ईसाई धर्म में माने जाने वाले अंतिम भोज के लिए, तब सामूहिक रूप में ब्रैड को तोड़ते और रूहअफ़जा -शराब की चुस्की लेते हुए “एक-दूसरे से और ईश्वर से” ही मदद की कामना की.
ये शरणार्थी और वतन-विहीन लोग आज संख्या में कम होने के कारण अक्सर ही गुमनाम आँकड़ों के संकेतकों में कहीं खो जाते हैं. इन लोगों की गिनती दुनिया के किसी देश के रजिस्टर में नहीं हो पाती, क्योंकि सभी देश केवल अपने नागरिकों की ही परवाह करते हैं. ये लोग अपने ही भरोसे पड़े रहते हैं, लेकिन आज आवश्यकता इस बात की है कि हम मानवता के आधार पर इन वतन-विहीन लोगों पर ध्यान दें ताकि वे उपेक्षा के शिकार न हों. इसका समाधान यही हो सकता है कि “वसुधैव कुटुम्बकम्” के गाँधी के मंत्र के अनुसार सारी दुनिया को एक परिवार मानने वाले देश में इनका भी ध्यान रखा जाए.
भारत सरकार ने महामारी से पूरे क्षेत्र के संरक्षण के लिए सार्क कोविड निधि की घोषणा करके इस दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया है. सामूहिक कार्रवाई करके ही हम भारतीय तट के अंदर रहने वाले बिना राष्ट्रीयता वाले लोगों को संरक्षण प्रदान कर सकते हैं. इस संकट ने हमें सिखा दिया है कि ऐसी महामारी का विषाणु इससे संक्रमित होने वाले लोगों में कोई फ़र्क नहीं करता तो हमें भी इसके इलाज में किसी तरह का भेदभाव नहीं करना चाहिए.
चयनिका सक्सेना सिंगापुर के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (NUS) के भूगोल विभाग में प्रैज़िडेंट की ग्रेजुएट फ़ैलो और डॉक्टरेट की प्रत्याशी हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919