जब मैंने डेरेक समुदाय केंद्र के शिक्षा कार्यक्रम के निदेशक राजशेखरम सेल्वम से पूछा कि भारतीय इतिहास के सबसे बड़े राष्ट्रीय लॉकडाउन ने उनके घुमंतू समुदाय पर कैसा प्रभाव डाला है तो उन्होंने बताया कि उनकी स्थिति बहुत चिंताजनक हैः पानी का एक ही नल है. उसका उपयोग भी बहुत कम लोग ही कर पाते हैं. शौचालय नहीं हैं, बच्चे भूखे रहते हैं और सरकारी मदद भी न के बराबर ही मिल पाती है. उन्होंने बताया कि “लॉकडाउन के दौरान एक ही घर में दस से बारह लोग रहते हैं. हमसे कहा जाता है कि स्वच्छता का ख्याल रखें, लेकिन नहाने-धोने और स्वच्छ रहने के लिए पानी की ज़रूरत पड़ती है और पानी की तो वैसे ही बेहद कमी रहती है.”
सेल्वम तमिलनाडु के पेराम्बलूर में बसे एरियूर गाँव के नारिकुरवर समुदाय से हैं. वैसे तो समुदाय के कई सदस्यों की तरह उनका अपना डाक का पता है और वह सरकारी बस्ती में रहते हैं, लेकिन वे अपने समुदाय के सदस्यों की तरह अपने-आपको घुमंतू ही मानते हैं. लगभग 30,000 लोगों (वैसे तो असली तादाद इससे दुगुनी ही हो सकती है, क्योंकि उनकी गणना जनगणना के अंतर्गत नहीं की गई है ) का नारिकुरवर का यह छोटा-सा समुदाय है. परंपरागत तौर पर नारिकुरवर शिकारी रहे हैं, लेकिन अब वे सड़कों के फ़ुटपाथों पर मोती के मनके और सौंदर्य के उत्पाद बेचकर अपना गुज़ारा करते हैं और दर-दर भटकते हुए काम-धंधे की खोज में नये-नये बाज़ार और ग्राहक खोजते रहते हैं. पिछले पचास वर्षों से सरकार इस समुदाय को बसाने के प्रयास में नारिकुरवरों के लिए पेराम्बलूर जैसी बस्तियाँ बनाकर देती रही है.
मौजूदा कानून के अंतर्गत तमिलनाडु के नारिकुरवर समुदाय को सबसे अधिक पिछड़े वर्ग (MBC) के अंतर्गत सूचीबद्ध किया गया है और कई दशकों से वे अनुसूचित जनजाति (ST) में स्थान पाने के लिए संघर्ष करते रहे हैं. इस वर्ग में आने के बाद उन्हें शिक्षा और रोज़गार के आरक्षण का अधिकार मिल सकेगा. अथक प्रयास के बावजूद भी उन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) के रूप में मान्यता नहीं मिल पाई है. यह समुदाय अभी तक भारी गरीबी में जी रहा है. ये लोग अपने उत्पाद बेचकर किसी तरह गुज़ारा करते हैं. भारत में लॉकडाउन के कारण उनको यह आंदोलन और अपनी आजीविका भी छोड़नी पड़ी. अभी तक कोविड-19 से पेराम्बलूर बस्ती के लोग बुरी तरह संक्रमित तो नहीं हुए हैं, लेकिन लॉकडाउन के कारण नारिकुरवर समुदाय के ये लोग वायरस के बजाय भूख और अभाव से अधिक भयभीत रहते हैं.
आदत के मुताबिक नारिकुरवर समुदाय के लोग परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं और इनके विस्तारित परिवार के सदस्य क्षेत्रीय और राज्य की सीमाओं के आर-पार रहते हैं. जब लॉकडाउन का आदेश लागू हुआ तो ये लोग या तो सरकार द्वारा आबंटित बस्तियों में रहने लगे या फिर अपने विस्तारित परिवारों के घर पर, लेकिन ये घर भी कम से कम पचास साल पहले बने थे और अब इनकी हालत भी बहुत खराब है. पेराम्बलूर में लगभग 750 लोग 120 घरों में रहते हैं. अब इन घरों में एक ही छत के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या बढ़कर (अक्सर दस से ज़्यादा) हो गई है. आबादी का घनत्व बढ़ने के कारण सामाजिक दूरी बनाये रखने के सरकारी आदेश का पालन करना इनके लिए असंभव हो गया है और इसके कारण कोविड-19 के फैलाव का खतरा और भी बढ़ गया है.
इनमें से नारिकुरवरों के लिए अधिकांश बस्तियाँ एम.जी. रामचंद्रन/AIADMK पार्टी के शासन-काल में बनाई गई थीं और इनमें शौचालय की सुविधा भी प्रदान की गई थी, लेकिन पिछले कई वर्षों के दौरान ये घर इस लायक नहीं रह गए हैं कि इनमें ज़रूरत पड़ने पर ज़्यादा से ज़्यादा लोग एक साथ रह सकें. शौचालयों का प्रयोग उनके रहने या सामान रखने के लिए किया जाने लगा है और इन बस्तियों में सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था न होने के कारण ये लोग शौच के लिए सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग करने लगे हैं और इसके लिए वे तड़के सुबह ही निकल जाते हैं, क्योंकि उस समय लॉकडाउन के नियमों का पालन कराने के लिए पुलिस भी नहीं होती. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कहा है कि "कुछ साक्ष्यों से पता चलता है कि कोविड-19 आँतों में संक्रमण का कारण बन सकता है और यह मल में मौजूद हो सकता है.” इसलिए शौचालयों की कमी के कारण इस विषाणु के फैलने का खतरा और भी बढ़ सकता है. सार्वजनिक स्थानों पर शौच करने के लिए मज़बूर होने के कारण पानी की कमी का संकट भी बढ़ने लगा है. संक्रमण के संभावित फैलाव को रोकने के लिए हाथ धोना आवश्यक है, लेकिन नारिकुरवर समुदाय के लोग पानी की कमी के कारण अपने हाथ न धो पाने के कारण बहुत चिंतित रहने लगे हैं. नारिकुरवर समुदाय की पेराम्बलूर-बस्ती में पानी की टंकी न होने के कारण पानी की कमी का संकट उनके लिए नया नहीं है. मौसम के बदलाव के आधार पर पानी केवल सुबह एक घंटे के लिए ही आता है, जिसके कारण हर परिवार को मुश्किल से एक या दो बाल्टी पानी ही मिल पाता है. इसके कारण समुदाय के लोगों पर भारी दबाव बना रहता है. पानी की तरह साबुन की भी भारी किल्लत रहती है. जिस हैंड सैनिटाइज़र की माँग सारी दुनिया में है और जो भारी कीमत पर बिक रहा है, नारिकुरवर समुदाय के लोगों को वह भी उपलब्ध नहीं है, क्योंकि यह उनकी खरीद की क्षमता से बाहर है.
जब तक देश में लॉकडाउन लगा रहता है, नारिकुरवर के लोग बाज़ार जाकर अपने उत्पादों को बेच भी नहीं सकते हैं. यही उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है. रोज़मर्रे की खाने-पीने की चीज़ों की कमी और मज़दूरी न होने के कारण ये समुदाय भारी मुसीबत झेल रहे हैं. इनकी मदद के लिए भारत सरकार ने कई योजनाएँ शुरू की हैं ताकि समाज के सबसे कमज़ोर तबके की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया जा सके. तमिलनाडु के एक मंत्री डॉ. जयकुमार ने घोषणा की है कि “राशनकार्ड रखने वाले हर व्यक्ति को लॉकडाउन के कारण हर महीने 1,000 रुपये दिये जाएँगे”. इसके अलावा, मुख्यमंत्री महोदय ने घोषणा की है कि सरकार मई माह के लिए 15 किलो चावल, 2 किलो दाल और एक किलो कुकिंग ऑयल वितरित करेगी.
सचमुच इन उपायों की ज़रूरत थी और लोगों ने इसका स्वागत भी किया है, लेकिन इसके लिए सबसे ज़रूरी बात यही है कि इन लोगों या परिवारों के पास राशन कार्ड होना चाहिए अर्थात् इन तमाम सरकारी सुविधाओं को पाने की बुनियादी आवश्यकता है “परिवार का अपना राशन कार्ड”. प्रत्येक भारतीय नागरिक परिवार के कार्ड के लिए आवेदन कर सकता है, लेकिन पेराम्बलूर के 60 प्रतिशत नारिकुरवर समुदाय के लोगों के अपने परिवार तो हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश लोग अपनी पारिवारिक हैसियत सिद्ध करने में असमर्थ हैं.
वैसे तो वे आवेदन के लिए अपेक्षित सभी ज़रूरतें पूरी करते हैं, लेकिन सरकारी अधिकारी जब तक बस्ती का दौरा नहीं कर लेते, तब तक उसकी पुष्टि नहीं करते. सेल्वम ने स्पष्ट किया कि जब कभी अधिकारी इन सूचनाओं की पुष्टि के लिए बस्ती का दौरा करते हैं तो नारिकुरवर समुदाय के लोग वहाँ नहीं मिलते, क्योंकि “अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के लिए उन्हें बस्ती से बाहर जाना पड़ता है”. परिवार कार्ड के अभाव में नारिकुरवर समुदाय के लोगों को सरकारी सुविधाएँ नहीं मिल पातीं और महामारी के दौरान उनका ज़िंदा भी रहना कठिन हो जाता है.
सेल्वम ने बताया कि अब नारिकुरवर समुदाय के लोग दूध और बिस्कुट की सप्लाई करने वाले स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) से संपर्क करने का प्रयास कर रहे हैं. जहाँ एक ओर पेराम्बलूर में सेल्वम और उनके समुदाय के लोगों के सामने बहुत-सी दिक्कतें आ रही है, वहीं चेन्नई जैसे बड़े शहरों में रहने वाले नारिकुरवर समुदाय के लोगों के सामने आने वाली दिक्कतें तो इससे भी अधिक भयावह हैं. वहाँ इनमें से अनेक लोगों के पास तो घर भी नहीं है और वे मैटल शीट से बने घरों में रहने के लिए विवश हैं. ऐसे घरों में ज़्यादा लोग नहीं रह सकते और यही कारण है कि वे वायरस की चपेट में आसानी से आ सकते हैं.
नारिकुरवर समुदाय के लोगों के लिए ये दिक्कतें नई नहीं हैं, लेकिन इस महामारी ने उनके हालात और भी बदतर और असह्य बना दिये हैं और लंबे समय से संघर्ष में जुटे इस समुदाय के लोग और भी हाशिये पर चले गये हैं. इस महामारी के कारण यह तथ्य भी सामने आ गया है कि इन समुदायों को समझने के लिए और उन्हें समान नागरिक का दर्जा दिलाने के लिए ( चुनावी दौरों से आगे बढ़कर) और भी राजनीतिक गतिविधियाँ बढ़ाई जानी चाहिए.
यह भी उल्लेखनीय है कि इस महामारी के कारण लोगों में एकजुटता और सरकारी देखभाल की झलक कम ही दिखाई पड़ी है. हाल ही में पेराम्बलूर के नारिकुरवर समुदाय के एक ट्विटर के जवाब में स्थानीय अधिकारियों ने पैंतीस परिवारों को खाने-पीने की राहत सामग्री भेजी थी. हालाँकि यह राहत सामग्री समुदाय के लोगों के लिए पर्याप्त नहीं थी, फिर भी इन लोगों ने इसका स्वागत किया. इसके अलावा, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि नारिकुरवर समुदाय जैसे उपेक्षित समुदायों के लोग संसाधनों के वितरण की दृष्टि से वंचित रह जाते हैं, राजस्व व आपदा प्रबंधन विभाग ने पंजीकृत समुदायों को 1,000 रुपये की अनुग्रह राशि वितरित करने की सिफ़ारिश की, लेकिन यह सहायता राशि उन्हें अभी तक नहीं मिली है.
नारिकुरवर समुदाय के लोगों की इन विचित्र चुनौतियों के समाधान के लिए, दो प्रकार की नीतियाँ लागू करनी होंगी. अल्पकालिक योजना के रूप में परिवार कार्ड के बिना भी राशन देने पर लगे प्रतिबंधों में छूट देना बेहद आवश्यक है. ऐसा होने पर खाने-पीने की चीज़ों की सप्लाई स्थानीय अधिकारियों के माध्यम से की जा सकेगी. इसके अलावा, पानी और स्वच्छता की कमी को ध्यान में रखते हुए नारिकुरवर समुदाय के लोगों को स्वच्छता के उत्पाद तत्काल ही बाँटे जाने चाहिए. दीर्घकालीन योजना के रूप में नारिकुरवर समुदाय के लोगों की घुमंतू जीवन शैली को ध्यान में रखते हुए एक समन्वित नीति बनाने और उसे लागू करने की आवश्यकता है जिसके अंतर्गत उन्हें शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य-सेवा और रोज़गार की सुविधाएँ प्रदान की जा सकें.
मौजूदा स्थिति में नारिकुरवर समुदाय के लोगों की आजीविका का साधन केवल मोती के मनके और सौंदर्य उत्पाद बेचकर पैसा कमाना है और यह व्यवसाय न तो “प्राधिकृत” और न ही “अप्राधिकृत” श्रेणी में आता है. ऐसी स्थिति में इस समुदाय के लोगों को न तो सहायता सामग्री मिल सकती है और न ही लॉकडाउन के नियमों में छूट दी जा सकती है. यह खास तौर पर इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि आगामी महीनों में इस समुदाय के लोग एक बार फिर से घर से निकल बाहर जाएँगे, क्योंकि तब इनके उत्पादों की माँग अधिक नहीं होगी. इसके अलावा, यह भी आशंका है कि निकट भविष्य में समुदाय के लोगों के बाहर जाने और स्वच्छता के उत्पाद न मिलने के कारण इन्हें कोविड-19 के फैलाव के लिए दोषी माना जा सकता है और नारिकुरवर समुदाय के लोग, जो पहले से ही समाज की मुख्य धारा से कुछ दूरी पर हैं, और भी हाशिये पर सिमट जाएँगे.
कोविड-19 ने सारी दुनिया के लोगों के लिए परिस्थितियों को भयावह बना दिया है. अधिकांश लोग अपनी क्षमता से अधिक काम करके भी अनेक प्रकार की कमियों और कठिनाइयों से जूझ रहे हैं. ऐसे हालात में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि नारिकुरवर समुदाय और परंपरागत तौर पर घुमंतू समुदायों के लोगों के जीवन को सुगम बनाने के लिए स्थानीय और क्षेत्रीय सरकारों के निकाय आगे बढ़कर प्रयास करें. ऐसा करने पर ही इन समुदायों के लोग विशाल और विविध प्रकार के भारतीय समाज के नागरिकों के समकक्ष हो सकेंगे और अंततः सरकार की नज़रों में आ पाएँगे.
क्रिस्टीना-लोआना ड्रैगोमिर, क्वीन मैरी युनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन के राजनीति व अंतर्राष्ट्रीय संबंध स्कूल में लैक्चरर हैं और CASI 2016 में विज़िटिंग स्कॉलर रही हैं. वह सुश्री सरन्या वधनी के प्रति उनके काम और शोध-कार्य के लिए, क्वीन मैरी युनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन, राजनीति व अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के स्कूल के प्रति उनके सहयोग के लिए और प्रो. रोवन लुबॉक के प्रति उनके सुझावों के लिए आभार प्रकट करती हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919