भारत में, संरचनात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप महिला कार्यबल की संरचना में बड़ा बदलाव आया है. महिला श्रम शक्ति में घटती भागीदारी पर होने वाली बहस में अधिक उम्र की कम पढ़ी-लिखी महिलाओं पर अधिक ध्यान दिया गया है. सन् 1983 में 33 प्रतिशत महिलाएँ सन् 1983 में, कामकाजी उम्र की लगभग 33 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ वैतनिक रोज़गार में थीं. 2017 में यह प्रतिशत गिरकर लगभग 20 हो गया था. तब से ग्रामीण भारत में महिलाओं के लिए रोज़गार दर में वृद्धि हुई है. हालाँकि, संरचनागत बदलाव का दूसरा पहलू भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जो वैतनिक रोज़गार में महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी के साथ-साथ आकस्मिक मज़दूरी वाले काम में महिलाओं की घटती हिस्सेदारी में प्रकट होता है.
स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट 2023 के कुछ चुने हुए निष्कर्ष महिलाओं की आय से संबंधित तथ्य के निहितार्थों और आधिकारिक रोज़गार के सर्वेक्षणों के साक्ष्य का उपयोग करते हुए लिंग-आधारित आय के अंतर पर केंद्रित रहते हैं.
रोज़गार के विभिन्न प्रकारों में आय का अंतर
आकस्मिक वेतन वाले काम से हटकर नियमित वेतन वाले रोज़गार की ओर होने वाला रचनात्मक बदलाव लैंगिक आय के अंतर को कम करता है क्योंकि आकस्मिक वेतन वाले काम में यह अंतर बड़ा होता है. 2021-22 में एक नियमित वेतनभोगी पुरुष की आय लगभग ₹ 17,910 थी और वेतनभोगी महिला की आय लगभग ₹13,666 थी. आकस्मिक वेतन वाले काम में, आय में असमानता अधिक थी, महिलाएँ पुरुषों की तुलना में केवल 60 प्रतिशत कमाती थीं. दुर्भाग्य से, स्व-रोजगार में महिलाओं की हिस्सेदारी सुधार के बाद की अधिकांश अवधि में स्थिर रही है (और यहाँ तक कि कोविड और कोविड के बाद की अवधि के दौरान भी बढ़ी है). यह चिंता का विषय है क्योंकि स्व-रोज़गार के मामले में आय का अंतर सबसे अधिक है, औसतन महिलाएँ पुरुषों की आय का केवल 40 प्रतिशत ही कमाती हैं.
आय वितरण में ये असमानताएँ कैसे सामने आती हैं? जैसे-जैसे महिलाएँ आय के सोपान पर आगे बढ़ रही हैं, क्या वे पुरुषों की आय के बराबर कमा रही हैं या अंतर और भी बढ़ गया है? चित्र 1 (नीचे) में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है. प्रत्येक प्रकार के रोज़गार के लिए, हम आय को दस समूहों में विभाजित करते हैं जो सबसे कम (दशमक1) और उच्चतम कमाई करने वाले (दशमक 10) का प्रतिनिधित्व करते हैं. जैसा कि हम तालिका 1 में देखते हैं, आय वितरण में, स्व-रोज़गार में लिंग-आधारित आय का अंतर सबसे अधिक है. इसके विपरीत, वेतनभोगी रोज़गार में आय का अंतर बहुत कम होता है और वास्तव में, जैसे-जैसे यह आय का वितरण बढ़ता है, यह अंतर लगातार कम होता जाता है. वेतनभोगी आय स्पैक्ट्रम के शीर्ष पर, महिलाएँ औसतन पुरुषों की आय का 90 प्रतिशत कमाती हैं. दूसरी ओर, स्व-रोजगार के लिए, आय का अंतर अभी भी अधिक है, महिलाएँ पुरुषों की आय का लगभग 60 प्रतिशत कमाती हैं. हालाँकि जैसे-जैसे आय वितरण बढ़ता है, स्व-रोज़गार में लिंग संबंधी आय का अंतर कम होता जाता है, लेकिन यह काफ़ी अधिक रहता है.
समय के साथ आय के अंतराल की प्रवृत्ति
स्व-रोजगार से होने वाली आय का आधिकारिक अनुमान 2017 से ही एकत्र किया गया है, जबकि हमारे पास 1980 के दशक से मजदूरी की आय के बारे में जानकारी है. चित्र 2 में समय के साथ प्रत्येक चतुर्थक समूह के भीतर वेतनभोगी श्रमिकों के आय के अंतराल में दीर्घकालीन रुझान दिखाये गए हैं.
प्रवृत्तियों की व्याख्या
ज़ाहिर है कि समय के साथ-साथ खास तौर पर दूसरे और तीसरे चतुर्थकों में आय के अंतराल में कमी होती रही है. इस घटते अंतराल की व्याख्या दो संभावनाओं से की जा सकती है. पहली संभावना इस बात की है कि श्रम बाजार में लिंग-आधारित भेदभाव समय के साथ कम हो सकता है और पुरुषों और महिलाओं के साथ नियोक्ता समान व्यवहार कर सकते हैं. या यह हो सकता है कि श्रम बाजार (पुरुषों के रूबरू) में भाग लेने वाली महिलाओं की प्रकृति में बदलाव आ जाए और महिलाओं के अधिक शिक्षित होने के साथ-साथ उन व्यवसायों और उद्योगों के प्रकारों में सुधार हो जाए, जिनका वे वेतनभोगी रोज़गार के लिए नियमित रूप से उपयोग करती हैं.
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, इस अवधि में, महिला कार्यबल की संरचना में एक बड़ा बदलाव आ गया है. बूढ़ी और कम शिक्षित महिलाओं ने काम छोड़ दिया है और उनके स्थान पर अधिक शिक्षित महिलाएँ काम पर आ गई हैं. कृषि के क्षेत्र में नियोजित महिलाओं की संख्या में कमी आ गई है और अधिकाधिक महिलाएँ सेवा क्षेत्र में आ गई हैं.
यह समझने के लिए कि ये रचनात्मक परिवर्तन समय के साथ आय के अंतर में होने वाले परिवर्तन की व्याख्या किस तरह से करते हैं, हम एक मानक वियोजन तकनीक का उपयोग करते हैं.
कितागावा-ओक्साका-ब्लाइंडर वियोजन तकनीक पुरुषों और महिलाओं के बीच के औसत आय के अंतर पर विचार करती है और इस अंतर को "स्पष्ट किये गए अंतर " अर्थात् दो समूहों के बीच अवलोकन योग्य विशेषताओं में अंतर दर्शाते हुए और " स्पष्ट न किये गए अंतर” अर्थात् " अप्राप्य विशेषताओं में अंतर के रूप में कहा जा सकता है. अप्राप्य विशेषताओं में शामिल हैं, शिक्षा,वैवाहिक स्थिति,बच्चों की संख्या, उद्योग और रोज़गार का काम. अप्राप्य उपादान की व्याख्या आम तौर पर अंतर करने वाले पैमाने के रूप में की जाती है,लेकिन इसमें छोड़ी गई उन विशेषताओं का प्रभाव भी शामिल हो सकता है जिनका डेटा उपलब्ध नहीं है.
तालिका 2 समय के साथ समझाए गए और अस्पष्टीकृत घटकों की सीमा को दर्शाती है. 1983 के बाद से स्पष्ट किये गए उपादान में लगातार गिरावट आती रही है. यह दर्शाता है कि समय के साथ श्रम बाजार में पुरुषों और महिलाओं की विशेषताएँ कैसे समान हो गई हैं और इसलिए पुरुष और स्त्री के अनुपात में वेतन का अंतर कम से कम होता जाता है. 2021-22 तक,आय का लगभग 80 प्रतिशत अंतर इस अस्पष्टीकृत घटक के कारण है.
यह वृद्धि ग्रामीण कार्यबल के मामले में अधिक नाटकीय है, जहाँ 2021-22 में लिंग पर आधारित 90 प्रतिशत से अधिक वेतन के अंतर को श्रमिकों की विशेषताओं द्वारा समझाया नहीं गया था. लेकिन जिस अवधि (1999 से 2017) में महिला वेतनभोगी कार्यबल में तेज़ी से वृद्धि देखी गई, उसमें शहरी भारत में अस्पष्टीकृत घटक में भी वृद्धि देखी गई. इसलिए यह नतीजा सामान्य ही है. अंततः ग्रामीण भारत में अंतर का आकार काफ़ी बढ़ गया लेकिन शहरी क्षेत्रों में यह वृद्धि बहुत कम स्पष्ट है. व्यापक निष्कर्ष पर अधिक ज़ोर पर दिया जाना चाहिए. उसी अवधि में, जिसमें महिलाओं के बीच नियमित वेतन कार्य में तेज़ी से वृद्धि देखी गई, लिंग पर आधारित वेतन के अंतर के अस्पष्टीकृत हिस्से में भी वृद्धि देखी गई, जिसे आम तौर पर भेदभाव के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है.
पिछले दो दशकों में भारतीय महिला कार्यबल में बड़ा बदलाव देखा गया है. वेतनभोगी कर्मियों के संदर्भ में महिलाओं के हिस्से में वृद्धि का समाचार एक सुखद समाचार है. हालाँकि, इस वृद्धि से अस्पष्टीकृत आय अंतर में व्यवस्थित कमी नहीं आई है. बल्कि, शैक्षिक सम्मिलन ने अंतर पैदा करने में भेदभाव की संभावित भूमिका को उजागर किया है. शिक्षा में वृद्धि और गैर-कृषि रोज़गार तक बेहतर पहुँच के बावजूद, महिलाएँ पुरुषों की तुलना में कम कमाती रही हैं. लेकिन एक बार फिर, यह उत्साहजनक है कि, जैसे-जैसे कोई आय के सोपान पर आगे बढ़ता जाता है, अंतर कम हो जाता है, और यह अंतर अर्थव्यवस्था के अपेक्षाकृत अधिक औपचारिक हिस्सों में महिलाओं के लिए कम भेदभावपूर्ण स्थितियों को प्रतिबिंबित कर सकता है. इसलिए, लड़कियों को बेहतर शिक्षा देने के लिए प्रोत्साहित करने वाली और औपचारिक रोज़गार के विस्तार को सक्षम बनाने वाली नीतिगत प्रतिक्रियाएँ अंतर को कम करने में मदद कर सकती हैं.
अमित बसोले और रोजा अब्राहम अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी में फैकल्टी हैं. यहाँ प्रस्तुत विश्लेषण को तैयार करने में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के रिसर्च एसोसिएट हामी अमीन द्वारा सहायता प्रदान की गई थी.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
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