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भारत-अफ्रीका संबंधों का बदलता परिदृश्य

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26/02/2018
वेदा वैद्यनाथन

पिछले कुछ दशकों में भारत की अफ्रीका नीति बहुत हद तक निराशा और अनिच्छा से प्रकट की गई प्रतिक्रियाओं के बीच झूलती रही है. कई मंचों पर तो इस महाद्वीप की ओर रणनीतिक उदासीनता भी दिखाई पड़ी है. नई दिल्ली की विदेश नीति के व्यापक ढाँचे में अफ्रीका महाद्वीप के देशों को अब तक कोई खास महत्व नहीं दिया जाता था, लेकिन अब स्थिति में बदलाव आने लगा है. भारत के नेता अफ्रीकी देशों की यात्रा भी बहुत कम करते थे और बहुत कम ही ऐसा होता था कि नई दिल्ली की विदेश नीति से संबंधित महत्वाकांक्षाओं में उस पर कोई चर्चा भी की जाती हो. अफ्रीका के साथ भारत के समकालीन संबंधों का वर्णन अब तक पूरी तरह से हमारी सदियों पुरानी व्यापारिक भागीदारी, समृद्ध प्रवासी भारतीयों द्वारा विकसित सामाजिक-सांस्कृतिक संपर्क सूत्रों और नेहरु युग के दौरान चलाए गए उन राष्ट्रीय आंदोलनों के ऐतिहासिक संवादों पर ही केंद्रित रहता था, जिसमें साम्राज्यवादी शासन के विरोध में चलाए गए संघर्षों के समर्थन और गुट-निरपेक्ष आंदोलन के बदलते भू-राजनैतिक उथल-पुथल का ही उल्लेख रहता था. इस बयानबाजी से परे, आखिर वे कौन-से तत्व थे, जिनके कारण ये रिश्ते फिर भी आगे बढ़ते रहे. इनके कारण ही राज्य के स्वामित्व वाले उन उद्यमों (SOE) द्वारा, जो पश्चिम एशियाई देशों से ऊर्जा भंडार को दूर करके उसे विशाखित करने का प्रयास कर रहे थे, महत्वपूर्ण परिसंपत्तियों का और लघु व मझौले उपक्रमों (SME) और बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNC) द्वारा अन्य वाणिज्यिक उद्यमों का अधिग्रहण किया गया.

लेकिन पिछले कुल वर्षों में इस अन्यथा मिटते रिश्ते में अनेक कारणों से ऊर्जा का संचार हुआ.  एक अनुमान के अनुसार 2018 तक इस महाद्वीप की 3.2 प्रतिशत की दर से आर्थिक उन्नति इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण था. इसमें विश्व की सबसे तेज़ गति से बढ़ने वाली छह अर्थव्यवस्थाएँ शामिल हैं. विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार इस साल इथियोपिया 8.2 प्रतिशत, घाना 8.3 प्रतिशत, कोटे डी आइवर 7.2 प्रतिशत, जिबूती 7 प्रतिशत, सेनेगल 6.9 प्रतिशत और तंज़ानिया 6.8 प्रतिशत की दर से आर्थिक उन्नति करेगा. इसके अलावा, अनेक अफ्रीकी देश विदेशी निवेशकों और विकास में भागीदारों को आकर्षित करने के लिए प्रोत्साहन देते रहे हैं और नई दिल्ली की सरकार संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद (UNSC) में सीट पाने के लिए सक्रिय होकर प्रयास कर रही है. इसके अलावा, इस महाद्वीप के शक्तिशाली देशों का, विशेषकर चीन की अति सक्रिय भूमिका के कारण प्रभाव बढ़ता जा रहा है और इसी बात ने नई दिल्ली को इस पर पुनर्विचार करने को बाध्य किया.

इसके बाद विदेश नीति के क्षेत्र में अनेक भारी कदम उठाये गये. जैसे 2015 में भारत-अफ्रीकी मंच का तीसरा शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें नई दिल्ली ने अधिकांश अफ्रीकी देशों को (इकोला प्रकोप के कारण मूल तारीखों को रद्द करके) प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया. इस शिखर सम्मेलन से जो वातावरण बना, उसका प्रभाव लंबे समय तक बना रहा. बरसों तक इस महाद्वीप की राजनयिक उपेक्षा होती रही और अब भारत का शीर्ष नेतृत्व लगातार महाद्वीप के दौरे करके इस कमी को पूरा करने में जुटा है. इसका उल्लेखनीय उदाहरण यही है कि राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करने के बाद राष्ट्रपति कोविंद ने अक्तूबर, 2017 में जिबूती और इथियोपिया की पहली विदेश यात्रा की. इसी तरह जब प्रधानमंत्री मोदी अफ्रीकी देशों के चार दिवसीय दौरे में मोज़ांबीक में रुके तो वह 34 साल में इस देश की यात्रा करने वाले पहले प्रधानमंत्री बन गये. जब उप राष्ट्रपति हमीद अंसारी ने फ़रवरी, 2017 में रवांडा का दौरा किया तो वह इस देश की यात्रा करने वाले पहले भारतीय नेता बन गए.

भारत की इस नई दिलचस्पी का एक कारण यह भी हो सकता है कि अफ्रीकी महाद्वीप इस समय अपने संक्रमण के महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहा है और उसकी विकास-यात्रा में भारत अनेक भूमिकाओं का निर्वाह कर सकता है. वर्तमान दौर में भारत ने जो खास काम इस महाद्वीप में किया है, वह है विकास के लिए अनेक प्रकार की पहल करना. इन पहलों में से कुछ हैं, भारतीय तकनीकी व आर्थिक सहयोग (ITEC), टीम 9 और अखिल अफ्रीकी ई-नैटवर्क, जिनका उद्देश्य है, संस्थागत और मानवीय क्षमता का निर्माण और कौशल व ज्ञान-अंतरण को सुगम बनाना.  दिलचस्प बात तो यह है कि हाल ही में दिए गए वक्तव्यों और संयुक्त बयानों की नज़दीकी जाँच-पड़ताल से पता चलता है कि अफ्रीका के प्रति नई दिल्ली के नज़रिये की व्याख्या “win-win cooperation” अर्थात् दोनों पक्षों में परस्पर सहयोग और जीत की भावना से की जा सकती है और यह “विकास के वैकल्पिक मॉडल” को दर्शाने के लिए एक सुविचारित नैतिक प्रयास है.

इस रिश्ते की नई प्रवृत्तियों के पीछे उन उप-राष्ट्रीय संगठनों और राज्य सरकारों की भूमिका भी रही है, जो अफ्रीकी देशों के अपने समकक्षों के साथ स्वतंत्र रिश्ते बनाने के लिए प्रयास करते रहे हैं. उदाहरण के लिए, केरल अपने उन प्रोसेसिंग संयंत्रों के लिए, जो कच्चे माल की तंगी से जूझ रहे हैं, अफ्रीकी देशों से काजू आयात करने की योजना बना रहा है. इसी प्रकार इथियोपिया और दक्षिण अफ्रीका केरल सरकार द्वारा चलाये जा रहे स्वावलंबी संगठन “कुडुम्बश्री ” के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य गरीबी मिटाना और महिलाओं का सशक्तीकरण है ताकि वे अपने-अपने देशों में इस मॉडल को स्थानीय स्वरूप प्रदान करते हुए अनुकूलित कर सकें.

भारतीयों के साथ परस्पर संवादों की एक अनूठी विशेषता यह रही है कि उनके साथ भारतीय मूल के लोगों की वास्तविक सद्भावना भी जुड़ी रही है. इनका बॉलीवुड की फ़िल्मों और गीतों के माध्यम से भारत के साथ अपनेपन का और सांस्कृतिक रिश्ता भी बना हुआ है. बॉलीवुड की फ़िल्में और गीत भारत के साथ रिश्ता बनाये रखने के लिए अक्सर सेतु का काम करते हैं.    लेकिन प्रवासी भारतीयों और स्थानीय अफ्रीकी लोगों की एकजुटता में कभी-कभी टकराव भी पैदा हो जाता है. बिल्कुल हाल ही में गुप्ता बंधुओं का हाई-प्रोफ़ाइल मामला सामने आया है, जिसमें उन पर आरोप लगा है कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के पूर्व-राष्ट्रपति ज़ूमा के साथ अपनी नज़दीकियों के कारण “सरकारी भूमि” पर कब्ज़ा किया है. इसी तरह फूलों की खेती करने वाली एक भारतीय फ्लोरीकल्चर कंपनी “करुतरी  ग्लोबल” पर आरोप लगा है कि उसने इथियोपिया में ज़मीन हथियाई है या फिर भारत में अफ्रीकी छात्रों पर हमलों के कारण भारतीयों या प्रवासी भारतीयों के प्रति विरोध बढ़ता जा रहा है.

फिर भी सच तो यही है कि भारतीय कॉर्पोरेट ने ही इस प्राचीन रिश्ते को न केवल खड़ा किया है, बल्कि उसे निभाया भी है. भारतीय कारोबारी अफ्रीका के भौगोलिक रिक्त स्थानों और क्षेत्रों में सक्रिय हैं. कृषि-व्यवसाय, इंजीनियरिंग, निर्माण, फिल्म वितरण, सीमेंट, प्लास्टिक्स और सिरेमिक्स निर्माण, विज्ञापन, विपणन, फार्मास्युटिकल्स और दूरसंचार जैसे केवल कुछ ही ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें भारतीय लोग सक्रिय हैं. अफ्रीकी महाद्वीप में भारतीय कॉर्पोरेट जगत् की उपस्थिति को मोटे तौर पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:  प्रवासी भारतीयों द्वारा स्थापित कारोबार; राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियाँ या निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ (MNCs) और कारोबार के अवसरों की तलाश में नए लघु व मझौले उपक्रमों  (SMEs) की स्थापना.

भारत-अफ्रीका व्यापार परिषद के सदस्यों के साथ बातचीत से यह पता चला कि भारतीय और मेज़बान सरकार से उन्हें किस हद तक समर्थन मिला है और स्थानीय समाज के साथ काम करते हुए उन्हें किस प्रकार के वायदे और झटके मिलते रहे हैं. वे मानते हैं कि भारत सरकार और अफ्रीका में होने वाले उनके कारोबार के बीच बहुत कम समन्वय रहता है और भारतीय कॉर्पोरेट की भूमिका तो मात्र नीतियों के प्रारूप बनाने तक ही सीमित रहती है. उनका दावा है कि ऐसे बहुत कम अवसर आए हैं जब भारत सरकार ने आगे बढ़कर प्रतिस्पर्धी बोलियों के दौरान समझौतों को अंतिम रूप देने में उनकी कोई मदद की हो और अगर कोई मदद की भी है तो वह भी नैटवर्क निर्माण, मेज़बान सरकार के साथ संपर्क साधने या कौंसल संबंधी समर्थन देने तक ही सीमित रही है. इथियोपिया में भारतीय दूतावास के पदाधिकारियों का कहना है कि भारतीय कारोबारी उनसे तभी संपर्क करते हैं जब उन पर कोई संकट आता है. ऐसे समय में ही वे हमसे मदद की गुहार लगाते हैं, लेकिन उनके साथ सहयोग का दायरा बढ़ाने के लिए उनके दरवाज़े हमेशा ही खुले रहते हैं. दिलचस्प बात तो यह है कि कुछ भारतीय कारोबारियों का दावा है कि वे अफ्रीका की मेज़बान सरकारों के साथ मिलकर काम करते हैं और जब भी वे भारत का दौरा करना चाहते हैं तो वे उनके प्रतिनिधिमंडल की मदद करते हैं और बैठकें आयोजित करने में भी सहयोग प्रदान करते हैं.                                                                               

सरकारी संस्थाओं और अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले व्यापारियों के साथ मिलकर भारत ने अफ्रीका के संबंध में न तो कोई समन्वित नीति बनाई है और न ही कोई ऐसा रास्ता निकाला है जिससे दोनों देशों के संबंधित लोग मिलकर कुछ काम कर सकें. सरकार द्वारा की गई विभिन्न पहलों का उद्देश्य अफ्रीका की ऐसी युवा जनसांख्यिकी को प्रशिक्षित और सुसज्जित करना है जो एक ऐसा मॉडल प्रदान कर सके जिसका अनुकरण करते हुए भारतीय कंपनियाँ प्रौद्योगिकी और मानव पूँजी का सुगमता से अंतरण कर सकें, जो पहले से ही उनकी विशेषता रही है. उदाहरण को तौर पर इसी प्रकार इथियोपिया के गम्बेल क्षेत्र में भारतीय किसानों ने बहुत ही सस्ती दरों पर ज़मीन पट्टे पर ले रखी है, लेकिन बुनियादी ढाँचे के विकास और कनैक्टिविटी पर ही काफ़ी खर्च करके उनका काम बंद हो गया है. ऐसे समय में भारत की विकास संस्थाओं के लिए यह एक अवसर है, जब वे ऐसे अनुभव-हीन खेती-बाड़ी के कामों के लिए वित्तीय संसाधन प्रदान करके पूर्वी अफ्रीका के विकास में भारी मात्रा में सहयोग कर सकते हैं.

जैसे-जैसे भारत अफ्रीका के देशों में नये सिरे से अपनी गतिविधियाँ बढ़ा रहा है, एक ऐसा गतिशील वातावरण बनने लगा है जिसमें तेज़ी से होते हुए परिवर्तन की लहर दिखाई पड़ने लगी है. अफ्रीकी सरकारें भी केवल मूक दर्शक नहीं बनी बैठी हैं, बल्कि वे भी आगे बढ़कर सक्रिय होकर इस महाद्वीप की नियति को सँवारने में जुट गई हैं. आवश्यकता इस बात की है कि उनसे परामर्श करते हुए ही नई दिल्ली इस क्षेत्र में अपनी गतिविधियों को आगे बढ़ाए. यह अब इसलिए भी आवश्यक होने लगा है कि इस क्षेत्र में सिंगापुर, मलेशिया, जापान, कोरिया और चीन जैसी गैर-पश्चिमी ताकतें भी अपनी गतिविधियाँ बढ़ाने में लगी हैं. अब जब चीन जिबूती में अपना पहला विदेशी सैन्य अड्डा स्थापित करने जा रहा है, इस महाद्वीप के साथ रिश्तों के रणनीति मायने भी बदल जाएँगे. नई दिल्ली के लिए भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से इतने विविध महाद्वीप के लिए समान नीति बनाने का प्रयास करना असंभव भी है और अनावश्यक भी, लेकिन अफ्रीका के विकास में सक्रिय भागीदारी और व्यापक गतिविधियों में संलग्न होने के कारण यह तय है कि नई दिल्ली इससे काफ़ी लाभान्वित होगा.

डॉ. वेदा वैद्यनाथन ने हाल ही में अफ्रीकी अध्ययन केंद्र, मुंबई विवि से पीएच.डी पूरी की है. वे ICS- हार्वर्ड येंचिंग संस्थान में डॉक्टरल फ़ैलो रही हैं और उन्होंने पैकिंग विवि और हार्वर्ड विवि में भी एक-एक साल बिताया है.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919