जब भी हमारे शहरों पर कोई बड़ा संकट आता है तो भारत में शहरी नियोजन का "अव्यवस्थित" स्वरूप अक्सर सार्वजनिक बहस का मुद्दा बन जाता है, जैसे कि हाल ही में चेन्नई शहर में आई बाढ़ के बाद हुआ था. चूँकि शहरी नियोजन और इसके प्रवर्तन को आम तौर पर भारत के "निष्क्रिय" शहरों के लिए ज़िम्मेदार घोषित कर दिया जाता है, इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि भारत की मौजूदा शहरी नियोजन व्यवस्था के मूलभूत तत्वों की गहन पड़ताल की जाए. हमें भारत में शहरी नियोजन के संस्थागत ढाँचे के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने होंगेः शहर की योजना बनाने का अधिकार किसके पास है? आखिर भारत के शहरी नियोजन के कानून और प्रक्रियाएँ ऐसी क्यों बनाई गई हैं?
हालाँकि भारत की संवैधानिक योजना के अंतर्गत शहरी नियोजन का काम निर्वाचित स्थानीय सरकारों का है, लेकिन नियोजन की यह प्रक्रिया मुख्यतः राज्य सरकार के तहत गैर-प्रतिनिधि नौकरशाही एजेंसियों द्वारा संपन्न की जाती है. यहाँ मैं इस विसंगति के मूलभूत कारणों को उजागर करना चाहूँगा. मैं भारत के शहरी नियोजन संबंधी संस्थानों से संबंधित मूलभूत ऐतिहासिक कारणों का पता लगाना चाहूँगा ताकि यह उजागर किया जा सके कि शहरी नियोजन और "सुधार" को शहर की राजनीति से अलग रखने का औपनिवेशिक तर्क आज भी भारत में नियोजन प्रक्रियाओं को कैसे प्रभावित कर रहा है. साथ ही मैं भारतीय शहरों के नियोजन की पुराने ढंग की ऐसी परिपाटी के प्रभावों की भी जाँच करना चाहूँगा.
योजना प्राधिकरण
सन् 1992 में भारत की स्थानीय शासन प्रणाली में संवैधानिक सुधारों (73वें और 74वें संशोधन के रूप में) के साथ-साथ भारी परिवर्तन भी किये गए. इन सुधारों के द्वारा ग्रामीण और शहरी स्थानीय सरकारों को "स्व-शासन की संस्थाओं" के रूप में काम करने योग्य बनाया गया. 74वें संशोधन में निर्वाचित नगर पालिकाओं को आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय और 12वीं अनुसूची के तहत सूचीबद्ध विषयों के लिए योजनाएँ और स्कीमें तैयार करने और लागू करने की शक्ति प्रदान की गई है. 12 वीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के अंतर्गत पहले तीन विषय हैं, शहरी नियोजन, ज़मीन के उपयोग का विनियमन और आर्थिक एवं सामाजिक विकास. इसके अलावा, 74 वें संशोधन के अंतर्गत 1 मिलियन से अधिक आबादी वाले महानगरीय शहरों के लिए, महानगरीय नियोजन समिति (MPC) का गठन अनिवार्य किया गया है. इस समिति में कम से कम दो-तिहाई सदस्य स्थानीय प्रतिनिधि चुनने का प्रावधान है, ताकि महानगर क्षेत्र में स्थानीय निकायों द्वारा तैयार की गई योजनाओं को शामिल करते हुए विकास की योजना तैयार की जा सके. यही कारण है कि व्यापक क्षेत्र के लिए योजना तैयार करने के लिए उत्तरदायी नगर पालिकाओं के साथ शहरी नियोजन के कार्य को भी निर्वाचित नगर पालिकाओं के साथ जोड़ दिया गया.
परंतु यह विकास प्राधिकरण नगर पालिका की सरकार या नगर पालिका के बजाय राज्य सरकार के नियंत्रण में है और इसका मुख्य दायित्व भारत के अधिकांश बड़े शहरों में शहरी नियोजन ही है.
विकास प्राधिकरण ऐसी सांविधिक एजेंसियाँ हैं जो अवसंरचनात्मक विकास और आवासीय परियोजनाओं के साथ-साथ नगर में शहरी नियोजन के लिए भी ज़िम्मेदार हैं. वे ऐसी नौकरशाही की एजेंसियाँ हैं, जिनमें न तो स्थानीय प्रतिनिधित्व होता है और न ही स्थानीय सरकार के प्रति किसी तरह की जवाबदेही होती है. दिल्ली विकास प्राधिकरण या बैंगलोर विकास प्राधिकरण जैसी एजेंसियाँ “मास्टर योजनाएँ” बनाती हैं, जिनके माध्यम से हर 10-20 साल में शहर में भूमि के उपयोग और विकास का विनियमन किया जाता है.
योजना संस्थाओं का साम्राज्यवादी आधार
भारत में शहरी नियोजन की खामी यही रही है कि एक लंबे समय से इसमें स्थानीय लोकतंत्र का अभाव रहा है. भारत की मौजूदा शहरी नियोजन प्रणाली का आधार वे योजना संस्थाएँ और कानून रहे हैं, जिनकी स्थापना साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार ने सन् 1886 में बंबई में बुबोनिक प्लेग फैलने पर की थी. ब्रिटिश द्वारा निर्मित अधिकांश शहर दोहरे नगर के रूप में चलते थे. दोनों शहरों में स्पष्ट विभाजन होता था. “फ़ोर्ट” इलाके में ब्रिटिश रहते थे और “देसी” कस्बे में भारतीय रहते थे. प्लेग के प्रकोप से पहले तक ब्रिटिश मुख्यतः छावनियों में और उससे जुड़े सिविल लाइंस के इलाकों में रहते थे. लेकिन जब प्लेग ने बंबई की 6 प्रतिशत आबादी को खत्म कर दिया और शहर में व्यावसायिक गतिविधियों को ठप्प कर दिया तो साम्राज्यवादी सरकार को लगा कि उन्हें दखल देने की आवश्यकता है और समग्र रूप में एक शहर के विकास को विनियमित करना होगा.
सन् 1898 में बंबई सुधार न्यास का गठन किया गया और उसके आधार पर पूरे ब्रिटिश इंडिया में इस प्रकार की विभिन्न न्यासों का गठन किया गया. बीमारियों के प्रकोप को रोकने के लिए न्यास को यह दायित्व सौंपा गया कि वे बाहरी नियोजन, नई सड़कों का जाल बिछाने, मकानों के निर्माण और भीड़-भाड़ भरे इलाकों में भीड़ को कम करने के लिए आवश्यक कदम उठाएँ. साम्राज्यवादी सरकार ने महसूस किया कि प्लेग फैलने का मुख्य कारण है,“देसी” इलाकों में भीड़-भाड़ और गंदगी होना. इसलिए उन्होंने झोपड़पट्टियों को गिराकर उनमें सुधार लाने के लिए न्यासों को “विशिष्ट डोमेन” अधिकार प्रदान किये.
बाद में नगर सुधार न्यासों की स्थापना कलकत्ता,लखनऊ, कानपुर,इलाहाबाद,दिल्ली और बैंगलोर जैसे ब्रिटिश नियंत्रण वाले विभिन्न शहरों में की गई. इन न्यासों का संचालन नगर निगमों के समानांतर स्वायत्त रूप में होता था और सन् 1882 में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड रिपन द्वारा जारी किये गए स्थानीय स्व-शासन के प्रस्ताव के बाद ये न्यास आंशिक तौर पर प्रतिनिधि निकाय बन गए. इन न्यासों के संचालन से यह सुनिश्चित हो गया कि साम्राज्यवादी नौकरशाही निर्वाचित नगर निगमों के दखल के बिना ही शहरी विकास के लिए आवश्यक निर्देश दे सकती थी और उन्हें विनियमित भी कर सकती थी. स्थानीय राजनीति से शहरी नियोजन की घेराबंदी की नगर सुधार न्यासों की यह प्रथा स्थायी उत्तर-साम्राज्यवादी विरासत है और बाद में ये न्यास ही विकास प्राधिकरणों के रूप में बदल गए.
हर साल विकास प्राधिकरणों की बढ़ती शक्तियों को विकेंद्रित करके स्थानीय सरकार को सौंपने के संवैधानिक हस्तक्षेपों के बावजूद राज्य में निहित नौकरशाही के ढाँचे को गिराना संभव नहीं हो पाया. 74 वें संशोधन को पारित करने के लगभग तीन दशक के बाद भी शहरी नियोजन और विकास प्राधिकरण को शासित करने वाले विधायी कानूनों में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं हुआ है जिनसे नियोजन प्रक्रियाओं को लोकतांत्रिक बनाया जा सका हो. शहरी नियोजन संबंधी अधिकांश कानून 1960 के संघ सरकार के मॉडल टाउन और कंट्री नियोजन कानून पर आधारित रहे हैं और यह कानून ही अपने-आपमें ब्रिटिश टाउन ऐंड कंट्री प्लैनिंग ऐक्ट ऑफ़ 1947 पर आधारित है. इन कानूनों से ही केंद्रीकृत और टॉप-डाउन नियोजन प्रणाली विकसित हुई है और यह प्रणाली स्थानीय सरकार से संबद्ध नहीं है और इनमें आम लोगों की भागीदारी की बहुत कम गुंजाइश है.
भारतीय शहरों की मास्टर प्लैनिंग की सीमाएँ ब्रिटिश-प्रेरित पुरानी नियोजन प्रणाली के अनुरूप ही हैं. वास्तव में यह प्रणाली युनाइटेड किंगडम में पूरी तरह बदल गई है. जहाँ एक ओर अधिकांश दुनिया कहीं अधिक गतिशील नियोजन प्रक्रियाओं की ओर आगे बढ़ रही है, वहीं भारत की नियोजन प्रक्रिया में “मास्टर प्लान” को एक ऐसा स्रोत मान लिया गया है, जिसके माध्यम से सैद्धांतिक रूप में कम से कम शहरी विकास के बारे में तो सब कुछ तय कर लिया जाता है और उसका विनियमन भी कर लिया जाता है.
लेकिन राज्य संबंधी योजना के कानून के अनुसार मास्टर प्लान भूमि के उपयोग को विनियमित करने के लिए अधिकांशतः देशीय उपकरण के तौर पर माना जाता है और यातायात और पर्यावरण जैसे प्रमुख क्षेत्रों को इस योजना में शामिल नहीं किया जाता. भले ही योजना के दस्तावेज़ में इन क्षेत्रों को शामिल कर भी लिया गया हो तो भी कुछ नई मास्टर योजनाओं के अनुसार कानूनी तौर पर इन्हें बाध्यकारी नहीं माना जाता. इसलिए योजना का केंद्रबिंदु यही रहता है कि शहर को आवासीय,वाणिज्यिक और औद्योगिक जैसी विभिन्न मोनो-फ़ंक्शनल आंचलिक श्रेणियों में विभाजित कर दिया जाए.
इस प्रकार के गैर-लचीले आंचलिक विनियमन पर आधारित योजना प्रणाली में भारत की शहरी वास्तविकताओं के दर्शन नहीं होते, जबकि इन शहरी रूपों की विविधता ही इसकी विशेषता है और इसके चरित्र में गतिशील स्थान ऐतिहासिक तौर पर मिश्रित रूप में मौजूद रहते हैं. इसके परिणामस्वरूप कागज़ पर अंकित योजना और भारतीय शहरों में ज़मीन पर दिखाई देने वाले निर्मित ढाँचे के बीच भारी अंतर्विरोध को देखकर हैरानी नहीं होनी चाहिए. नियोजन प्रक्रिया में निहित योजना की "विफलता" की अनिवार्यता भी नियोजन नियमों के लिए विभिन्न प्रकार के अपवादों को छूट देती है और नियोजन के उल्लंघनों को अनदेखा करने वाली विभिन्न प्रकार की "नियमितीकरण" योजनाओं की शुरूआत करती है.
भारतीय शहर पर थोपी गई सुविचारित आधुनिक मास्टर प्लानिंग प्रणाली भी हजारों कटौतियों के कारण खोखली हो जाती है. निश्चय ही डिफ़ॉल्ट रूप में नहीं, बल्कि डिज़ाइन के कारण ऐसा होता है.
मैथ्यू आईडिकुला अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ पॉलिसी ऐंड गवर्नेंस में विज़िटिंग फ़ैकल्टी हैं और बैंगलोर से जुड़े शहरी मामलों पर स्वतंत्र और कानूनी एवं नीतिविषयक परामर्शदाता भी हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.