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भारत की हरित क्रांति के अंतर्विरोध

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03/06/2019
मार्शल एम. बाउटन

भारत में हरित क्रांति के सूत्रपात के पाँच से अधिक दशक बीत गये हैं, लेकिन भूख के विरुद्ध हमारा युद्ध अभी तक समाप्त नहीं हुआ है.

हमें हरित क्रांति की प्रेरणा तब मिली थी, जब साठ के दशक के मध्य में अच्छी फसल नहीं हुई थी और अकाल के हालात पैदा हो गए थे, लेकिन इसका असली उद्देश्य था, भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना और अगर सटीक रूप में कहा जाए तो इसका मुख्य उद्देश्य भारत को खाद्यान्न के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना था. अब हम यह देख सकते हैं कि उस समय अपनाई गई नीतियों में अब तक कोई बड़ा परिवर्तन नहीं किया गया है और भारत की समस्त जनता को भूख की समस्या से छुटकारा दिलाने में और पर्याप्त मात्रा में उपयुक्त पोषण की व्यवस्था की चुनौतियों का सामना करने में यह क्रांति विफल हो गई है. इन नीतियों के अंतर्गत ही उर्वरक, भूजल-निष्कासन और खाद्यान्न (विशेषकर चावल और गेहूँ ) के लिए आवश्यक न्यूनतम समर्थन मूल्य और अनाज की वसूली और सार्वजनिक वितरण (मुख्यतः चावल और गेहूँ ) के लिए सब्सिडी देने की शुरुआत की गई थी.

आज भारत खाद्यान्न के उत्पादन के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर आत्मनिर्भर हो गया है. साथ ही गेहूँ और चावल के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और चावल का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है. कुल उत्पादन में भारी वृद्धि के बावजूद सभी प्रकार के खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बहुत कम वृद्धि हुई है, क्योंकि साठ के मध्य की तुलना में आज भारत की आबादी तिगुनी से भी अधिक हो गई है. सन् 1951 में जहाँ खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति वास्तविक उपलब्धता 144 कि.ग्रा. थी, वहीं 1971 में इसकी मात्रा में भारी वृद्धि हुई और यह मात्रा बढ़कर 171 कि.ग्रा. हो गई. इसका मुख्य कारण था गेहूँ की भारी उपलब्धता, लेकिन पिछले पचास वर्षों में इसकी उपलब्धता में 170 - 180 कि.ग्रा. के बीच घट-बढ़ होती रही.

खास परिवर्तन यही हुआ है कि अधिक पौष्टिक दालों और बाजरा जैसे अन्य प्रकार के अनाजों के स्थान पर गेहूँ और चावल की खपत बढ़ने लगी है.

गरीब लोगों को गेहूँ, चावल और चीनी की आपूर्ति सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत देश भर में फैली 500,000 दुकानों के माध्यम से भारी सब्सिडी के दाम पर की जाती है. जहाँ एक ओर इस योजना के साथ-साथ इसके बाद शुरू की गई अन्य योजनाओं के ज़रिये खास तौर पर शहर में रहने वाले भारत के गरीब लोगों को पौष्टिक आहार प्रदान किया गया, वहीं गरीबों से इतर लोगों को चोरी से इसे उपलब्ध कराने और कैलोरी प्रदान करने के लिए दी जाने वाली प्रोत्साहन राशि में हाथ डालने और खाद्यान्नों में से पौष्टिक तत्वों को भारी मात्रा में निकाल लेने की हरकतों की व्यापक रूप में आलोचना की जाने लगी.

दुर्भाग्यवश भारत में खाद्यान्न के उत्पादन में हुई वृद्धि के बावजूद भी कुपोषण में आनुपातिक तौर पर कोई कमी नहीं आई. जहाँ एक ओर पिछले दो या तीन दशकों में आर्थिक वृद्धि की दर में बढ़ोतरी हुई है, वहीं गरीबी में आई कमी और रेशेदार आहार की उपलब्धता के कारण लगभग 15 प्रतिशत कुपोषित लोगों में भी कमी आई है, लेकिन समग्र रूप में कुपोषण की स्थिति जस की तस बनी हुई है. इसके परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के 2018 के वैश्विक भूख संकेतक  (GHI) में भारत का स्थान 119 वें रैंक से घटकर 103 हो गया है और यह दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित लोगों का सबसे बड़ा देश बन गया है अर्थात् वैश्विक स्तर के कुल कुपोषित लोगों में से लगभग एक चौथाई लोग भारत में रहते हैं. 

आज भारत में पाँच साल से कम उम्र के बच्चे कुपोषण के सबसे अधिक शिकार हैं. जहाँ एक ओर पिछले एक या दो दशकों में बच्चों के कुपोषण में कुछ हद तक कमी आई है, वहीं बच्चों के वजन घटने और बौनेपर की प्रवृत्ति अभी भी बहुत व्यापक है. 2018 की वैश्विक पोषण रिपोर्ट के अनुसार 2015 में पाँच वर्ष से कम उम्र के लगभग 21 प्रतिशत बच्चों में वजन घटने और 38 प्रतिशत बच्चों में बौनेपन की प्रवृत्ति पाई गई.


 
भारत में कैलोरी की अधिक मात्रा में खपत के कारण अति-पोषित लोगों की संख्या में भी तेज़ी से वृद्धि हो रही है. खास तौर पर 5-19 आयु-वर्ग के किशोर बच्चों और वयस्क लोगों में वजन बढ़ने और मोटापे की अधिक प्रवृत्ति दिखाई पड़ने लगी है. इसके कारण मधुमेह और अन्य असंचारी रोगों में भारी वृद्धि होने लगी है. आज अन्य अनेक उभरती अर्थ व्यवस्थाओं की तुलना में खुराक से संबंधित बीमारियों के कारण मरने वाले लोगों की संख्या में भारत में तेज़ी से वृद्धि होने लगी है.

ज़ाहिर है भारत में बच्चों के लगातार कुपोषित बने रहने का सबसे बड़ा कारण है ग्रामीण क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्तर पर 25 प्रतिशत गरीबी. गरीब राज्यों में स्थिति और भी दयनीय है. इसकी तुलना में शहरी क्षेत्रों में यह आँकड़ा 14 प्रतिशत है.   इस समय भारत में खेतिहर परिवारों में भारी गरीबी का यह आँकड़ा 50 प्रतिशत तक पहुँच गया है. इसके मुख्य कारण हैं, कृषि उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच कारोबार की शर्तों में बदलाव करने और कृषि क्षेत्र के लिए पर्याप्त मात्रा में निवेश करने में सरकार की विफलता. 

आर्थिक सहयोग व विकास संगठन (OECD) और भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (ICRIER) द्वारा हाल ही में किये गए अध्ययन से पता लगा है कि पिछले अठारह वर्षों में भारत सरकार ने शहरी उपभोक्ताओं के लिए खाद्यान्न की कीमतों में कमी बनाये रखने के लिए परोक्ष रूप में कृषि पर 14 प्रतिशत कर लगाया है. 1981 से लेकर 2014 तक कृषि और सिंचाई के क्षेत्र में सरकारी निवेश क्रमशः औसतन 4.6 और 4.0 प्रतिशत रहा है, जो विकास के तुलनात्मक स्तर पर चीन की निवेश दर से भी बहुत कम है.  

इसलिए इस बात पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि ग्रामीण और कम आमदनी वाले परिवारों में, मुख्यतः खेतिहर परिवारों में कुपोषण की घटनाएँ बहुत अधिक रही हैं.

बच्चों के लगातार कुपोषित बने रहने का दूसरा कारण है, हरित क्रांति के लिए अपनाई गई कृषि और खाद्यान्न नीति में अकुशलता और विकृति आना, जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है. कुपोषण पर केंद्रित सन् 1975 में शुरू की गई समन्वित बाल विकास योजना और सन् 1995 में शुरू की गई मध्याह्न भोजन योजना जैसे कार्यक्रमों से कैलोरी पर बल देने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भी कोई सुधार नहीं हुआ है. चावल और गेहूँ पर सब्सिडी की निर्भरता बनी रही और इसमें विविध प्रकार के पौष्टिक खाद्यान्नों को शामिल नहीं किया गया.

बच्चों के लगातार कुपोषित बने रहने का दूसरा कारण है, पीने के शुद्ध पानी की कमी और स्वच्छता का अभाव. निश्चय ही पीने के शुद्ध पानी की उपलब्धता में भारत ने काफ़ी प्रगति की है, लेकिन 2008 की वैश्विक पोषण रिपोर्ट के अनुसार खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति ही खास तौर पर बच्चों में बीमारी का प्रमुख कारण है. सन् 2015 में इसका आँकड़ा 40 प्रतिशत था.

अफ्रीका से तुलना करके हम कुछ सीख ले सकते हैं. एक ओर अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र में गरीबी की दर भारत से लगभग तीन गुना अधिक है और दो क्षेत्रों में अल्पपोषण की दरें भी लगभग बराबर हैं, फिर भी खुले में शौच की प्रवृत्ति भारत में कहीं अधिक प्रचलित है और बच्चों में वजन घटने और बौना होने की प्रवृत्ति भी बढ़ने लगी है. प्रधानमंत्री मोदी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने स्वच्छ भारत का अभियान चलाकर स्वच्छता में सुधार लाने का प्रशंसनीय कार्य किया है. स्पष्ट रूप में इस अभियान के अच्छे नतीजे सामने आने लगे हैं.

अगर हम आगे की सोचें तो देखेंगे कि ग्रामीण भारत में गरीबी और कुपोषण की स्थिति तब और भयावह हो जाएगी, जब लगातार सूखा पड़ेगा, खराब मौसम की मार पड़ेगी और जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालीन दुष्परिणाम सामने आने लगेंगे. 2014-15 और 2015-16 में लगातार सूखा पड़ने से देश की स्थिति पहले ही काफ़ी बिगड़ चुकी है. अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (IFPRI) की वैश्विक खाद्य नीति संबंधी परियोजनाओं के 2018 के प्रक्षेपणों के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन के संभावित दुष्परिणामों पर विचार करें तो 2030 तक 93 प्रतिशत और 2050 तक 45 मिलियन भारत के लोग भुखमरी के शिकार हो सकते हैं.

आज आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों में बढ़ते कुपोषण को रोकने के लिए भारत में तत्काल कार्रवाई की जाए और अब तो अति पोषण का खतरा भी मंडराने लगा है, जिसके दूरगामी प्रभाव के कारण आम लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है. इस संबंध में निम्नलिखित कार्रवाई करना आवश्यक होगा:

1)  समर्थन मूल्य से संबंधित हरित क्रांति की नीतियों में सुधार लाने के साथ-साथ इनपुट सब्सिडी, वसूली और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भी सुधार लाया जाए और गेहूँ व चावल के बजाय पौष्टिक अनाज, दालों, सब्ज़ियों और फलों पर ज़ोर दिया जाए.

2)  भारत की आगामी योजनाओं में जैव खेती के लिए जितने खाद्यान्नों को शामिल किया गया है, उससे कहीं अधिक प्रकार के खाद्यान्नों को तत्काल इसमें शामिल किया जाना चाहिए.

3)  खास तौर पर ग्रामीण इलाकों में, जहाँ बच्चों में कुपोषण की समस्या अधिक भयावह है, स्वच्छता पर ज़ोर दिया जाना चाहिए.

साठ के दशक में ही भारत ने अपने-आपको और दुनिया को भी दिखा दिया था कि वह नाटकीय रूप में भूख की चुनौती का सामना करते हुए पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न भी उगा सकता है. आज एक बार फिर यह चुनौती भारत के सामने है और उसे समग्र तौर पर खाद्य सुरक्षा के लिए उपाय करने होंगे. जहाँ प्रधान मंत्री अपने कार्यकाल की दूसरी पारी में ऐतिहासिक तौर पर कमान संभालने जा रहे हैं, उन्हें पाँच साल की अवधि को अवसर मानकर भारत को हमेशा के लिए भूख और कुपोषण से अंततः छुटकारा दिलाना होगा.

मार्शल एम. बाउटन CASI’ के कार्यकारी निदेशक और विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919