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कोई नया एनडीए नहीं

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31/08/2020
बिलाल बलोच
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इसी ग्रीष्म ऋतु के आरंभ में इंडिया रिव्यू ने एक विशेषांक प्रकाशित किया था, जिसमें भारत की लोकतांत्रिक राजनीति के संदर्भ में 2019 के आम चुनावों के निहितार्थों पर विचार किया गया था. मिलन वैष्णव और मैंने इसके निबंधों का संपादन किया था. जब हमने पहले-पहल परियोजना की शुरुआत की और जब आदम ज़िगफ़ैल्ड, यामिनी ऐयर, लुइज़ टिलिन, अदनान फ़ारुखी, रोहित चंद्रा और माइकल वॉल्टन नामक लेखकों ने अपने-अपने भाग का लेखन कार्य पूरा कर लिया तो एक ऐसा एकमात्र विषाणु हमारे सामने आया, जिसने भारत के नागरिकों को साफ़ तौर पर डस रखा है और यह एक ऐसा राजनीतिक विषाणु है, जिसने वाक्पटुता से भी आगे बढ़कर कार्यपालिका की अटूट शक्ति और धर्म पर आधारित विभाजनकारी राष्ट्रवाद की भावना से देश की शीर्ष संस्थाओं को भी खोखला करना शुरू कर दिया है. चूँकि इन लेखों में उन तमाम आंतरिक परिवर्तनों और बाहरी झटकों को भी समाहित किया गया है, जिन्हें सत्ताधारी सरकार झेलती रही है, इसलिए हम इन निबंधों से और क्या अपेक्षा कर सकते हैं?   

वैसे तो मोटे तौर पर इन निबंधों में 2019 के आम चुनावों के प्रभाव का मूल्यांकन किया गया है और यह मूल्यांकन घरेलू नीति और राजनीतिक मंच से संबंधित चार प्रमुख बिंदुओं पर आधारित है- दलगत प्रणाली, अल्पसंख्यकों के अधिकार, अर्थव्यवस्था और संघवाद—भारत में सत्ता के मार्ग में निहित दार्शनिक सरोकार इन चारों बिंदुओं में निहित हैं. आदम ज़िगफ़ैल्ड, यामिनी ऐयर और लुइज़ टिलिन इसी थीम को लेकर आगे बढ़ते हैं. ज़िगफ़ैल्ड इसका मूल्यांकन ऐतिहासिक दृष्टि से और तुलनात्मक रूप में पार्टी के वर्चस्व के मूल तत्व की सूचना को ध्यान में रखते हुए करते हैं. राजनीति विज्ञान के विमर्श में उसी पार्टी का वर्चस्व माना जाता है जो दो दशक या उससे अधिक समय तक सत्ता में रही हो. उनका तर्क यही है कि जहाँ एक ओर भाजपा अपने चुनावी ग्रहण क्षेत्र में काफ़ी हद तक अपनी सपोर्ट रखती है, वहीं अन्य संरचनात्मक चिह्नकों को उस तरह से पूरा नहीं कर पाती है, जिस तरह से कांग्रेस पार्टी ने भारतीय राजनीति के क्षितिज में एक बार अपना वर्चस्व बनाये रखा था.    कम से कम अभी तक तो स्थिति ऐसी नहीं है. अन्य बातों के अलावा भाजपा बिखरे हुए विपक्ष (कम से कम भारतीय मानक के अनुसार) के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाती है और भाजपा खास तौर पर बहुत बड़ा वोट शेयर ( अर्थात् बहुमत या डाले गये वोट में बहुमत के करीब) भी नहीं जुटा पाती है. भले ही पार्टी को कई क्षेत्रीय चुनावी हारों का ज़ख्म लगातार झेलना पड़ा हो, फिर भी ऐयर और टिलिन इन गतिविधियों के संबंध में अपने लेख में यह स्पष्ट करते हैं कि भारत के संघीय ढाँचे में स्पष्ट रूप में वर्चस्व को इसी तरह से माना जाता है – क्योंकि भाजपा के अंदर आंतरिक समन्वय ही केंद्र और राज्यों के बीच संवाद का प्रमुख साधन है.

2019 के चुनाव के संबंध में नीलांजन सरकार द्वारा हाल ही में रची गई एक कार्यपुस्तिका में क्रमशः चुनावी और शासकीय वास्तविकता के विश्लेषण को एक साथ जोड़ते हुए विश्वास की राजनीति के संरचनात्मक भागों की रूपरेखा स्पष्ट की गई है. सरकार का तर्क यह है कि परंपरागत लोकतांत्रिक दायित्व के उस मॉडल के बजाय, जहाँ नागरिक, विकास के काम के लिए राजनेताओं को सम्मानित करते हैं, नरेंद्र मोदी जैसे राजनेता विकास के विमर्श पर अपना वर्चस्व बनाये रखते हैं ताकि वे नागरिकों को सीधे लामबंद कर सकें. नीति-निर्माण के इस मॉडल का स्पष्ट प्रभाव विवादास्पद नागरिकता बिल तैयार करने, सीमा पर संघर्ष और चीन के साथ तनाव के साथ-साथ कोविड-19 के संकट और उस पर उनकी प्रतिक्रिया में देखा जा सकता है. इन मुद्दों पर विश्वास की राजनीति के प्रभाव का उपयोग अलग-अलग किया गया है, लेकिन समग्र रूप में इस मॉडल का प्रभाव सफल ही रहा है. इन सभी मामलों में “एक राष्ट्र” की अवधारणा अंतर्निहित है. ऐयर और टिलिन के अनुसार यही वह संघवाद है, जो भाजपा के विकास के विमर्श के साथ गुँथा हुआ है और इसी विमर्श के आधार पर पार्टी अपना वर्चस्व कायम रखती है और भाजपा मोदी के इर्द-गिर्द नागरिकों को लामबंद करती है. ज़िगफ़ैल्ड के लेख के अनुसार हो सकता है कि पार्टी का वर्चस्व केंद्रीकृत ढाँचे के सामान्य अनुभव से पूरी तरह से मेल न खाता हो. इसके बजाय वह “राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्रीयकरण” से मेल खा सकता है. इसके माध्यम से प्रधानमंत्री विकास के विमर्श के लिए अपना वर्चस्व सिद्ध करते हैं. और यही कारण है कि भाजपा दो दशक या उससे भी अधिक समय तक सत्ता में बनी रह सकती है.

जहाँ तक भाजपा और पुरानी कांग्रेस की संगठनात्मक स्तर पर तुलना करने की बात है, प्रदीप छिब्बर और राहुल वर्मा ने अपनी हाल ही की कार्यपुस्तिका में राज्यवाद और अस्मिता की धुरी के माध्यम से इन दो पार्टियों की वैचारिक दूरियों को स्थापित किया है. धर्मनिरपेक्षता और धार्मिकता ऐसे कारक तत्व हैं जो भारतीय राष्ट्र की दो अवधारणाओं के प्रमुख संरचनात्मक अंग माने जाते हैं. जहाँ एक ओर कांग्रेस ने ऐतिहासिक तौर पर सामाजिक और आर्थिक रूप में राज्य पर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहा था, वहीं दक्षिणपंथी वर्गों और भाजपा जैसी पार्टियों ने अस्मिता की राजनीति का विरोध करते हुए राज्यवाद की राजनीति तक अपने को सीमित रखना चाहा है. हमारे अंक के अंतिम दो निबंधों में से एक निबंध अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर अदनान फ़ारुखी का है और दूसरा अर्थव्यवस्था पर रोहित चंद्रा का है. दोनों ही निबंधों का थीम राष्ट्रवाद है और दोनों ने सीधे ढंग से अपने तर्कों के माध्यम से इस पर प्रकाश डाला है.

भाजपा के उदय से भारत में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की प्रवृत्ति में कमी आ गई है. कांग्रेस जैसी परंपरागत “धर्मनिरपेक्ष” पार्टियाँ भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लामबंद होने से कतराने लगी हैं क्योंकि उन्हें डर है कि उन पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण का आरोप न लगा दिया जाए और तथाकथित मंडल पार्टियाँ बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में मुसलमानों और दूसरे पिछड़े वर्गों (OBCs) के इर्द-गिर्द भारी संख्या में जमा होने लगीं, लेकिन यह भी उन पर भारी पड़ा. फ़ारूखी का यही निष्कर्ष है कि भारत के मुसलमान मतदाता अल्पसंख्यक “बस्तियों” में सिमटते जा रहे हैं. भाजपा बहुत बड़े पैमाने पर अकेली पड़ती जा रही है. पिछले साल अगस्त में मोदी ने जम्मू-कश्मीर (भारत में यही एकमात्र राज्य था, जिसमें मुसलमान बहुसंख्यक थे) की स्वायत्तता के दर्जे को खत्म कर दिया और हाल ही के महीने में सत्ताधारी दल से संबद्ध उन तमाम पुलिसकर्मियों या राजनेताओं को मुसलमानों के हत्याकांड में संलग्न आरोपों से मुक्त कर दिया, जिनकी भयावह तस्वीरें फ़रवरी में विवादास्पद नागरिकता कानून के विरोध की पृष्ठभूमि में अनेक मोबाइल कैमरों के स्क्रीन पर दिखाई गई थीं. यह उल्लेखनीय है कि महामारी से पहले निर्वाचित प्रतिनिधियों के बजाय हर प्रकार की जातियों और धर्मों के मिश्रित नागरिकों के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों से यह सिद्ध होता है कि भारत में संस्थागत पूर्वाग्रह के मार्ग में बदलाव लाने की कोशिश की जा रही है. इसी प्रकार का आंदोलन अमरीका में हाल ही के सप्ताहों में ब्लैक लाइव्ज़ मैटर मूवमैंट के माध्यम से चलाया गया था.  

भाजपा की राष्ट्र की यह अवधारणा केवल चुनावी या नागरिक क्षेत्र में ही लागू नहीं की गई है, बल्कि नीतिगत क्षेत्रों में भी इसे लागू करने का प्रयास किया जा रहा है. यह उल्लेखनीय है कि देश के व्यापक आर्थिक संकल्प को पूरा करने के लिए बाज़ार पर आधारित आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए दीर्घकालीन आशाएँ (और अंतर्राष्ट्रीय आकांक्षाएँ) बढ़ते हुए स्वदेशी और लोकप्रिय आर्थिक उपायों के साथ ही पूरी की जा सकती हैं. रोहित चंद्र और माइकल वाल्टन ने इस पर विचार किया है.   

ये लेखक यह मानते हैं कि मोदी सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार से विरासत में प्राप्त "कुलीनतंत्र के पूँजीवाद" के बावजूद कई प्रमुख आर्थिक सुधारों को लागू किया है, जैसे कि माल और सेवा कर (जीएसटी) और दिवाला और दिवालियापन कोड (IBC). परंतु समग्र रूप में सरकार की अपेक्षाओं के अनुरूप निजी निवेश में गिरावट की प्रवृत्ति पर कोई असर नहीं पड़ा. चंद्रा और वाल्टन इसका कारण यही बताते हैं कि सरकार इन प्रमुख सुधारों को अच्छी तरह से लागू करने में सफल नहीं हुई, गैर-निष्पादन आस्तियों (NPAs) को सरकारी बैंकों की बहियों में उतारने में हिचकती रही और औद्योगिक नीति को सही दिशा देने में असफल रही.  महामारी के समय से ही ये समस्याएँ और भी जटिल होती चली गईं. हालाँकि मोदी ने भारत को एक ऐसे देश के रूप में प्रस्तुत किया था, जहाँ विदेशी धन का तो स्वागत होगा, लेकिन विदेशी प्रतियोगिता की अनुमति नहीं होगी. इस साल भारत की अर्थव्यवस्था में 4.5 प्रतिशत की गिरावट आने की आशंका है और चीन के विकल्प के रूप में (और चीन के साथ भारत के गतिरोध के कारण) ये फ़र्में भारत की ओर उन्मुख होंगी, लेकिन संरक्षणवाद की यह ढुलमुल नीति अल्पकालिक है. आंशिक रूप में लेखकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इस तरह के आर्थिक परिणाम ज़रूरी नहीं कि "नीतिगत गलतियों" के परिणाम हों, बल्कि भाजपा की राष्ट्रवादी परियोजना द्वारा पोषित लंबे समय से चले आ रहे संरचनात्मक कारकों और प्रभाव के ऐसे पैटर्न के परिणाम भी हैं, जिसने बड़े कारोबारियों को मज़बूत किया है और स्वतंत्र रूप में जवाबदेह संस्थाओं को खत्म कर दिया है.

मौजूदा संकट से पहले भी शीर्ष संस्थाओं, अर्थव्यवस्था और हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर भारी खतरा मँडरा रहा था और इसका मूल कारण राष्ट्रवादी परियोजना ही थी. हाल के महीनों में भारत के विदेशी संबंधों में भी कई बदलाव आए हैं, लेकिन इस अंक में इसकी चर्चा नहीं की गई है. महामारी के बीच वैश्विक हालात भी तेज़ी से बिगड़ते रहे हैं. घरेलू वृद्धि में गिरावट आ गई है और गिरावट से जूझते भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने की बार-बार माँग की जा रही है. चीन के साथ बढ़ते गतिरोध के कारण संकट के इस दौर में भारत की अर्थव्यवस्था में सुधारों को और अधिक उदार बनाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है. इसके साक्ष्यों का विवरण इस अंक में दिया गया है और ऐसे साक्ष्यों की संख्या और भी बढ़ती रहेगी. कुछ समय पहले ही सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दे आर्थिक सरोकारों से आगे निकल गए हैं और मौजूदा संकट के दौर में इनमें किसी तरह की कमी नहीं आएगी.    

बिलाल बलोच GlobalWonks के सह-संस्थापक और COO हैं. वह CASI के अनिवासी विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

यह लेख India Review के वॉल्यूम 19 (अंक 2) में बिलाल बलोच और मिलन वैष्णव द्वारा संयुक्त रूप में लिखित प्रस्तावना के आधार पर तैयार किया गया है.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919